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हम भारत के लोगों को अपने इतिहास तथा प्राचीन संस्कृति का स्वाभिमान होना चाहिए। क्योंकि प्राचीन समय से ही भारतीय संस्कृति तथा हिन्दू धर्म सारी दुनिया में प्रभावशाली व ज्ञानदायक रहा है। इस बात को विश्व के सभी इतिहास भी स्वीकार करते हैं। इसीलिए भारत को विश्वगुरु की उपाधि मिली हुई थी। परन्तु मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण हम अपनी संस्कृति व इतिहास को भूलते जा रहे हैं।
विश्व के सभी प्राचीन राष्ट्रों व सभ्यताओं से भारत के सांस्कृतिक संबंध थे। भारत के दक्षिण पूर्वी देशों-थाईलैण्ड, वर्मा, इण्डोनेशिया, मलेशिया, जापान आदि देशों में आज भी इसके प्रत्यक्ष अनेक उदाहरण मिलते हैं। इसके साथ ही भारत के पश्चिम में स्थित अरब प्रायद्वीप से भी भारत के प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों का पता चलता है। यद्यपि आज हिन्दू संस्कृति सिमट कर केवल भारतीय भूभाग पर ही रह गयी है। परन्तु इतिहास को देखने पर पता चलता है कि भारतीय हिन्दू संस्कृति अरब तक फैली हुई थी। समय-समय पर उत्तर-पश्चिम सीमा से भारत पर अनेक विदेशी आक्रमण होते रहे। परन्तु भारत के वीर-पराक्रमी हिन्दू राजाओं ने इनका मुंहतोड़ जवाब देते संघर्ष भी किया।
इसका एक उदाहरण राजा विक्रमादित्य भी थे, जिन्होंने विदेशी आक्रमणों का जवाब देते हुए सन् 77 ई.पूर्व में कान्धार, बेबीलोन को जीत कर अरब पर भी आक्रमण किया। उन्होंने वहां की धार्मिक तथा सांस्कृतिक आस्थाओं तथा परम्पराओं का सम्मान करते हुए अनेक सुधार किये। वहां उनका सम्मान एक विजेता के रूप में न होकर एक 'स्वतंत्रता के प्रहरी' के रूप में हुआ। उन्हें 'आर्यवृत का शासक' कहा गया। अरबों, पारसियों, कुर्द, हूणों तथा यहूदियों ने उनका सम्मान किया। क्योंकि उन्होंने अरब में ज्ञान का दीपक जलाया तथा वैदिक तथा भारतीय पौराणिक संस्कृति का प्रसार किया। उन्होंने पश्चिमी एशिया (वर्तमान मध्य पूर्व) के क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित की। अन्तोलिया के एक व्यक्ति को वहां का गवर्नर बनाकर वे भारत लौटे। लेकिन इसके 40 वर्ष पश्चात् ही अर्थात् 33 ई. पूर्व में रोमन साम्राज्य ने अन्तोलिया पर आक्रमण कर दिया, जिससे वहां वैदिक प्रभाव कम हो गया।
कहा जाता है कि प्राचीन काल में अरब स्थित काबा 360 मूर्तियों वाला देव स्थान था। उसी प्रकार मक्का सहित सम्पूर्ण अरब में प्रचुर मूर्ति पूजा प्रचलित थी। यह कुरान की आयतों से भी ज्ञात होता है। प्रत्येक कबीले की अपनी मूर्ति व देवी-देवता होते थे। वहां बहुविवाह, परदा तथा तलाक प्रथायें नहीं थीं।
हजरत मोहम्मद के समय में इस्लाम के प्रचार-प्रसार हेतु मक्का युद्ध का अखाड़ा बन गया। मक्का की समस्त मूर्तियां इस्लामी सेनाओं द्वारा नष्ट कर दी गयीं। इन युद्धरत इस्लामी सेनाओं द्वारा उन सभी पुस्तकों, साहित्य, विवरणों तथा इतिहास को नष्ट कर दिया गया, जो इस्लाम से पूर्व के थे तथा जिन्हें जाहिल्या (अज्ञानता) करार दे दिया गया था।
परन्तु तुकर्ी के इस्तांबुल के विशाल पुस्तकालय मक्तब-ए-सुल्तानिया में तुकर्ी के सुल्तान सलीम ने सन् 1772 ई. में एक प्राचीन खलीफा हारून रशीद (786-809 ई.) के एक काव्य संग्रह 'सैर-उल-उकूल' को खोज निकाला। इसका प्रथम अनुवाद 1864 ई. में बर्लिन में तथा दूसरा 1932 ई. में बेरूत में हुआ। यह महत्वपूर्ण दस्तावेज प्राचीन अरब के जनजीवन, सामाजिक व्यवस्थाएं, मक्का में मन्दिरों तथा प्रथाओं पर प्रकाश डालता है। इससे ज्ञात होता है कि इस्लाम के प्रचलन से भी अनेक वर्ष पूर्व प्राचीन काल से मक्का में एक 'ओकुल मेला' लगता था, जिसमें प्रत्येक वर्ष एक विशाल महाकवि सम्मेलन होता था, जिसमें समस्त अरब प्रायद्वीप के कवियों को बुलाया जाता था। सर्वश्रेष्ठ कविता को सोने के अक्षरों से टांककर एक प्रशस्ति के रूप में मक्का के उस प्रसिद्ध पूजास्थल के मुख्य विशाल कक्ष में लगाया जाता था। अन्य कविताओं को ऊंट या बकरे की खालों पर टांककर मक्का के बाहरी दीवारों पर लटकाया जाता था। मक्का में युद्ध के समय हजरत मोहम्मद की सेना और उनके अनुयायियों ने सोने की ये प्रशस्तियां भी लूट लीं। एक अनुयायी ने पांच प्रशस्तियां चुरा लीं। खलीफा हारून रशीद के काल में उपरोक्त अनुयायी की तीसरी पीढ़ी के वंशजों ने खलीफा से भारी पुरस्कार पाने की चाह से पांचों सोने की प्रशस्तियां व 18 अन्य चमड़े पर लिखी कवितायें तत्कालीन प्रसिद्ध कवि अबू अमीर अब्दुल असमाई को भेंट की। इस प्रशस्ति में भारत के राजा विक्रमादित्य सम्राट की बहुत प्रसंशा करते हुए लिखा है- 'भाग्यवान हैं, वे जो राजा विक्रमादित्य के काल में रहे। वह एक योग्य, कर्तव्यनिष्ठ, प्रजा हितैषी राजा हैं। हम अंधेरे में थे, विक्रमादित्य ने ज्ञान का दीपक जलाया।' प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार पीएन ओक ने भी अपनी एक पुस्तक में यह उदाहरण दिया है। इस प्रकार यह उदाहरण पश्चिमी एशिया में भारतीय संस्कृति तथा धर्म के प्रभाव व प्रसार को स्पष्ट करता है। यह उपरोक्त कविता कवि जराहन बिनतोई द्वारा लिखी गयी, जिसने लगातार 3 वर्ष तक उन कवि सम्मेलनों में पुरस्कार प्राप्त किये थे। वह हजरत मोहम्मद से 165 वर्ष पूर्व तक रहा था। उसकी भारत के यशोगान के संदर्भ में भी कुछ पंक्तियां हैं, जो दिल्ली के लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिरला मन्दिर) में गीता उपवन में अंकित हैं।
इसी प्रकार हजरत मोहम्मद के सगे ताऊ उमर-बिन-हाशम ने भी भगवान शिव तथा भारतीय हिन्दू भूमि की स्तुति में कई कविताएं लिखीं थीं। हाशम ने अन्त तक इस्लाम स्वीकार नहीं किया था, अत: कुछ मुसलमान उन्हें अबू जिसल (अज्ञानता का पिता) भी कहते थे। वे एक महाकवि भी थे। भारत के बारे में उनकी अरबी में लिखी एक कविता भी दिल्ली के लक्ष्मीनारायण मन्दिर में स्थित बगीचे में उल्लेखित है। इसमें हाशम 'भगवान शिव की पूजा' तथा 'अपनी पूरी जिन्दगी के बदले में हिन्दू भूमि में एक दिन बिताने की आराधना' करता है।
इस प्रकार उपरोक्त उदाहरणों से अरब प्रायद्वीप से भारत के प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों का पता चलता है। धार्मिक दृष्टि से भी अरब में इस्लाम से पहले यहूदी, ईसाइयत, हिन्दू तथा अन्य मूर्तिपूजक लोगों का प्रभाव था। कुछ समय पूर्व ही कुवैत में वहां के पुरातत्व विभाग ने सोने की गणेश की मूर्ति प्राप्त की है। विक्रमादित्य की भांति ही भगवान बुद्ध, सम्राट अशोक, चन्द्रगुप्त आदि अनेक प्राचीन उदाहरण हैं, जिन्होंने भारतीय धर्म-संस्कृति तथा शक्ति की पताका पूरी दुनिया में फहराई। हर हिन्दू को अपनी इस विश्वविजयी भारतीय संस्कृति को गर्व से याद करना चाहिए। भारतीय संस्कृति व धर्म की इसी श्रेष्ठता के कारण ही आठ सौ साल के मुसलमान राज व दो सौ साल के अंग्रेजी शासकों की गुलामी के बावजूद भारत की संस्कृति अक्षुण्ण रही तथा देश की 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू ही बनी रही। डॉ. सुशील गुप्ता
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