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श्वेत-श्याम दौर की पुरानी फिल्म है चलती का नाम गाड़ी। हांफते-कांपते चलाते रहने की खींचतान और घबराई आवाज में 'तेरा क्या होगा' की तान। कमोबेश यही हाल यूपीए सर 'कार' का है। स्टेयरिंग किसी हाथ में, चला कोई और रहा है। इस पर एक के बाद दूसरे घोटालों के खुलासे। ठीक आम चुनाव से पहले चारों पहियों में चौबीस पंक्चर। अब हवा खराब है। मामला नाजुक। जिम्मेदारी पीसी चाको पर थी। जैसे भी हो बैठाओ यह बवंडर। छवि और छींटाकशी की परवाह किए बगैर उन्होंने जान लड़ा दी। सदस्यों ने लाख टोका, शिकायत की, चिट्ठी-पत्री की, मगर वे अड़ गए। नहीं बुलाया प्रधानमंत्री को पूछताछ के लिए। लेकिन मामला संभलने की बजाय नया बखेड़ा। पोथी पेश होनी थी संसद में लेकिन 2जी में किस 'जी' ने खाया, किस 'जी' को बचाया की अंतर्कथाएं पहले ही चिंदी-चिंदी उड़ने लगीं। बवंडर तो क्या बैठता सरकार में कुर्सियों पर सवार लोगों में डर जरूर बैठ गया। अब गड़बड़-गफलत और एक-दूसरे की गिरेबान पकड़ने की कहानी शुरू हो गई है। बकरा तो तय था मगर वह बलि के लिए तैयार नहीं है। 'राजा' का कहना है वह तो सिर्फ प्यादा था। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि सरकार के असल राजा को …बनाया गया। अंधेरे में रखा गया। कैसा अंधेरा है? सवाल सबके दिमाग में घुमड़ रहा है। सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को गुमराह किया जाता है? वह आसानी से हो भी जाता है? मंत्री अगर 'चला' देते हैं तो ऐसे प्रधान और प्रधानी का क्या मतलब है। जेपीसी का गठन दोषी को पकड़ने और जवाबदेही तय करने के लिए किया गया या यह भी देश की आंखों में धूल झोंकने की कवायद है? सत्ता का वह शीर्ष जो दिख रहा है, है भी या देश को ही गुमराह किया जा रहा है? बहरहाल, कालिख की कहानी जो भी हो इस कार और किरकिरी की जिम्मेदारी तो स्टेयरिंग थामने वाले को ही लेनी पड़ेगी।
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