संस्कार बदले बिना नहीं होगा समाधान
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देश के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टि डालते हैं तो ध्यान में आता है कि महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार, हिंसा, लूटपाट आदि की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। कुल मिलाकर देखा जाए तो देश की सामाजिक स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। बलात्कार की बढ़ती घटनाएं देश की बिगड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था का ही दुष्परिणाम है। इस समस्या का स्थायी समाधान चाहिए तो उनके कारणों को ढूंढ़कर निदान की प्रक्रिया प्रारंभ करनी होगी।
गत वर्ष दिल्ली में लगभग 700 बलात्कार की घटनाएं हुईं, जिनमें से कुछ को ही दोषी ठहराया जा सका। यह आंकड़ा भी सही नहीं है, क्योंकि अनेक घटनाएं तो पुलिस स्टेशन तक पहुंचती ही नहीं हैं। एक समाचार पत्र में विवरण आया कि एक बलात्कारी आटो चालक ने स्वीकार किया कि उसने 9 महिलाओं को अपनी हवस शिकार बनाया, जिसमें से मात्र दो ने शिकायत दर्ज की थी। दूसरी ओर कई बार वर्षों तक मामले चलते रहते हैं, इसके बाद सजा होगी तो भी उसका कोई मतलब नहीं होता। इसलिए आज के कानून में सुधार होना चाहिए। न्यायालयों (फास्ट ट्रैक कोर्ट) की संख्या अधिक बढ़ानी चाहिए, पीड़ितों को जल्द से जल्द, एक निश्चित समय में न्याय मिलना चाहिए। पुलिस की संख्या बढ़ाना और उसको चुस्त-दुरुस्त करना भी आवश्यक है। कड़े कानून के भय से कुछ सुधार हो सकता है। परन्तु इससे समस्या का पूर्ण समाधान संभव होगा क्या?
कारण क्या है?
देश में इस विषय पर चल रही व्यापक चर्चा में एक बात उभरकर सामने आई है कि समाज को अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। परन्तु दृष्टिकोण में बदलाव आए कैसे, यह बड़ा प्रश्न है। फांसी की सजा से, पुलिस की व्यवस्था बढ़ाने से, बलात्कारियों के नामों की सूची इंटरनेट पर डालने से यह बदलाव संभव है क्या? मेरी दृष्टि से दृष्टिकोण में बदलाव विचारों से आ सकते हैं। विचारों में बदलाव परिवार के संस्कारों एवं शिक्षा में नैतिक मूल्यों के समावेश तथा समाज के संस्कारक्षम वातावरण से संभव हो सकता है। महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव की शुरुआत स्वयं के परिवार से करनी होगी। परिवार में बहन, बेटी, पत्नी, माता के साथ सम्मानपूर्वक एवं समानता का व्यवहार हो। गरीब परिवार भी दो वक्त की रोटी को परेशान हैं। बच्चों की तरफ उचित ध्यान नहीं है। उनका सही विकास नहीं हो पा रहा है।
दूसरी तरफ मध्यम वर्ग भौतिकता की दौड़ में जुटा है। पति-पत्नी दोनों के नौकरी व व्यवसाय में होने के कारण उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं है। इसी प्रकार ज्यादातर और आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न परिवारों में ड्रिंक्स, डान्स और क्लब का कल्चर बहुत बढ़ रहा है। जब बच्चों को माता-पिता से स्नेह, संस्कार व उचित देख-रेख नहीं मिलती, तब अतृप्त व असहिष्णु किशोर बनता है।
आज समाज में खुलापन भी बढ़ रहा है। अधिकांश फिल्मों, दूरदर्शन चैनलों एवं विभिन्न समाचार माध्यमों के द्वारा महिलाओं को भोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। कम्प्यूटर, इंटरनेट में सब प्रकार की अश्लील सामग्री उपलब्ध है। इस परिस्थिति में बच्चों को अधिक संस्कारों एवं समझदारी की आवश्यकता है। इसका माध्यम है माता-पिता का बालकों के प्रति स्नेह, संवाद का व्यवहार। अगर इस दिशा में प्रयास किया जाए तो समस्या का समाधान संभव है।
इसी प्रकार और एक महत्वपूर्ण तथ्य पर हमारा ध्यान नहीं है, या उसकी चर्चा नहीं होती है। 30-40 वर्ष पूर्व बच्चों की यौन सम्बंधित समझदारी 16 से 18 वर्ष के आसपास आती थी। साधारणत: उसी उम्र में उसका विवाह भी हो जाता था। आज बच्चों की यौन सम्बन्धित समझदारी 10 से 12 वर्ष की उम्र में आ जाती है और उनके विवाह की उम्र 30 वर्ष के आसपास हो गई है। इतने समय वे युवा संयम के साथ कैसे बिताएं, यह बड़ा प्रश्न है। इस हेतु आज बच्चों में संस्कार, समझदारी लाने के लिए अधिक मात्रा में प्रयास और संवाद की आवश्यकता है।
कैसे बदले दृष्टिकोण?
जिस देश की शिक्षा में मूल्यों, नैतिकता, आध्यात्मिकता का निरन्तर अभाव होगा, वहां युवाओं में अनैतिकता पनपने की पूरी संभावना होती है। शिक्षा से तीन बातें फलित होनी चाहिए। व्यक्तित्व का समग्र विकास एवं चरित्र निर्माण, देश व समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति और राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का समाधान। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से एक भी बात सिद्ध नहीं हो पा रही है।
इस हेतु स्वतंत्र भारत में केन्द्र सरकार द्वारा गठित सभी आयोगों ने मूल्यपरक शिक्षा हेतु अनुशंसाएं दीं, परन्तु देश की शिक्षा में आज तक उन मूल्यों का समावेश नहीं किया गया। सामाजिक स्तर पर जहां-जहां वर्तमान शिक्षा के साथ अतिरिक्त प्रयास के द्वारा मूल्यों या नैतिक शिक्षा देने का प्रयास हुआ वहां उनके अच्छे परिणाम देखने को मिलते हैं। इसी कड़ी में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के द्वारा कुछ विद्यालयों में व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण की शिक्षा देने हेतु छह मास के प्रयास के बाद तीन विद्यालयों में कुछ कक्षाओं की बिना शिक्षक के परीक्षा ली गई, जिसके अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं। यदि सरकारों ने संकल्प लिया कि वे मूल्यपरक शिक्षा देंगे, परिवार ने संकल्प लिया कि वे अपने बच्चों को संस्कारक्षम वातावरण देंगे और समाज ने संकल्प लिया कि उच्छंृखल खुलापन और महिलाओं को सिर्फ उपभोग की वस्तु बताने वाले विज्ञापनों, कार्यक्रमों का बहिष्कार करेंगे, तो निश्चित रूप से यह स्थिति बदलेगी और माताएं बहनें अधिक सुरक्षित होंगी। अतुल कोठारी
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