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बात लगभग 50 साल पुरानी है। हमारे मोहल्ले में एक 'जगदी' रहती थीं। उनका असली नाम क्या था, यह तो वही जानें, पर 'जगत दादी' से 'जगदादी' होते हुए यह जगदी तक पहुंच गया, और अब इसी नाम से उन्हें पूरा गांव जानता और पुकारता था।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वह मोहल्ले में सबसे बुजुर्ग और अनुभवी महिला थीं। बच्चों की बीमारी तो वह उसका चेहरा देखकर ही समझ जाती थीं। उनके पास ऐसी सब बीमारियों के लिए रामबाण घरेलू नुस्खे थे, जिन्हें वे मुक्तभाव से सबको बताती रहती थीं।
शाम होते ही जगदी घर के बाहर बड़ी सी खाट डालकर बैठ जाती थीं। पूरे मोहल्ले के बच्चे वहां खेलने लगते थे। जब कोई बच्चा थक जाता, तो वह उस खाट पर जा लेटता और थोड़ी देर के आराम के बाद फिर खेल मंडली में शामिल हो जाता। उनके वहां रहने से सब बच्चे सुरक्षित अनुभव करते थे।
जगदी अपने बटुए में सदा मिश्री के टुकड़े रखती थीं। खेलते हुए जब कोई बच्चा गिर कर या छोटी-मोटी चोट खाकर रोने लगता, तो जगदी उसे कुछ देर सहलाकर थोड़ी सी मिश्री खिला देती थीं। कई बच्चे तो मिश्री के लालच में जानबूझ कर गिर जाते थे, पर ऐसे नाटकबाजों की उनके सामने एक नहीं चलती थीं।
जगदी की उपस्थिति में कई अन्य महिलाएं भी वहां आकर बातों की खिचड़ी पकाने लगतीं। संसद के शून्य काल की तरह सास-बहू की निन्दा से लेकर स्वेटर के नये डिजाइन और अचार की विधियों जैसे हर विषय पर वहां खुली चर्चा होती थी। कई महिलाएं अपने बच्चों को वहां छोड़कर पशुओं की सानी-पानी में लग जातीं। क्या मजाल कि जगदी के रहते कोई बच्चा इधर-उधर हो जाए। पुरुष वर्ग इसे 'जगदी का दरबार' कहकर इससे दूर ही रहता था।
जगदी की इन खट्टी-मीठी बातों के साथ एक कड़वी याद भी जुड़ी है। होली के बाद आने वाले नवरात्र में वे नीम का काढ़ा बनाती थीं। हर बच्चे के लिए इसे पीना अनिवार्य था। वे कहती थीं कि इससे साल भर कोई बीमारी पास नहीं आएगी।
हमने उसका नाम 'जगदी का काढ़ा' रख छोड़ा था। यद्यपि काढ़े के बाद वे पेड़ा भी देती थीं, फिर भी सब बच्चे इससे दूर भागते थे। लेकिन मोहल्ले की हर महिला और उसके बच्चों का हिसाब उनकी उंगलियों पर था। वे अनीता और सुनीता से लेकर कुन्ती और सावित्री तक को आवाज लगाकर बच्चों को बुलवा लेती थीं।
उनको झांसा देना भी आसान नहीं था। कभी-कभी कोई बच्चा घर में आकर झूठ बोल देता कि वह काढ़ा पी आया, पर शाम तक उसकी शिकायत के साथ एक कप काढ़ा उसके घर पहुंच जाता। एक बार मैंने भी ऐसा किया, पर सफलता नहीं मिली। काढ़ा तो पीना ही पड़ा, उसके बाद मिलने वाला पेड़ा भी हाथ से गया।
आप पूछेंगे कि इतनी लम्बी कहानी सुनाने का उद्देश्य क्या है? असल में मनमोहन सिंह जी को इस दूसरे कार्यकाल में जैसे कड़वे घूंट पीने पड़ रहे हैं, उससे मुझे जगदी के काढ़े की याद आ गयी। उसे पीकर तो साल भर की छुट्टी हो जाती थी, पर बेचारे मनमोहन जी को कब तक यह काढ़ा पीना होगा, ये कोई नहीं जानता।
ममता बनर्जी हों या मायावती, मुलायम सिंह हों या करुणानिधि, उमर अब्दुल्ला हों या शरद पवार, सबके हाथ में पेड़े भी हैं और काढ़ा भी। मनमोहन जी पेड़े के लालच में उनके पास जाते हैं, पर काढ़ा पीकर लौट आते हैं। काढ़े के कारण कई बार साथ छोड़ना चाहते हैं, पर पेड़े का लालच हाथ पकड़ लेता है। इतने पर ही बस नहीं, तो कई बार बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुंहफट साथियों के हिस्से का काढ़ा भी उन्हें ही पीना पड़ जाता है। बार-बार हो रही इस थुक्का-फजीहत से उनकी जीभ का नक्शा इतना बिगड़ चुका है कि वे खट्टा, मीठा, कड़वा या कसैला जैसे स्वाद ही भूल चुके हैं।
हमारी जगदी तो सबसे पहले खुद काढ़ा पीती थीं और फिर बाकी सबको पिलाती थीं, पर मनमोहन जी जिस मोहल्ले में रहते हैं, वहां की जगदी पेड़ा अपने बेटे को खिलाकर काढ़े का गिलास उन्हें थमा देती हैं। उस दुखी आत्मा से न उगलते बनता है न निगलते।
हे भगवान, इस नवरात्र में बेचारे मनमोहन जी को पेड़े और काढ़े के इस जंजाल से मुक्त करो। विजय कुमार
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