खेलें कान्हा संग होली
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खेलें कान्हा संग होली

by
Mar 23, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Mar 2013 13:46:49

 

आलोक गोस्वामी

हम बड़े भाग वाले हैं कि भारत के रहने वाले हैं। भारत उत्सवों का देश है। मास तो बारह हैं पर उत्सव निरे सारे हैं। हर एक अपने में अनोखा। अपने ही राग-रंग और अल्हड़पन का झरोखा। इधर मौसम बदला, उधर नया त्योहार आया। नित नूतन आनंद का अतिरेकी उद्गार छाया। राखी, दशहरा, दिवाली, जन्माष्टमी, राधाष्टमी…..और होली। सबका अपना महात्तम, सबकी अपनी छाप। सबके साथ लोकरंग की अतुल, अमिट छाप। लेकिन इन सबमें होली तो अनूठी है, क्यों होली तो फिर होली है।

कितनी ही लोककथाओं और किंवदंतियों में गुंथा होली का उत्सव निराला है। होली एक मस्ती है। अपने-पराए, ऊंचे-नीचे, आगे-पीछे, सबके सब भेदाभेदों से परे आपसी प्यार और अपनापे का जैसा अनूठा नजारा इस होली में दिखता है, वह और किसी उत्सव में उस मात्रा में शायद ही दिखता है। लाल, हरा, नीला, पीला……होली के रंगों में रंग कर सब एकमएक हो जाते हैं। नाचते हैं, गाते हैं। इठलाते, मदमाते हैं। मीठी छेड़छाड़ में गांठ नहीं लाते हैं। घर भर के रिश्ते और पास पास आते हैं। भारत में विभिन्न प्रांत-प्रांतरों में होली अपने-अपने तरीके से मनाई जाती है। पर मूल भाव सब जगह एक ही होता है-प्रेम, आनंद, मस्ती और ठिठोली। लेकिन चौरासी कोस के ब्रज क्षेत्र में होली या होरी की बात ही और है। ब्रज में कहते भी हैं-जग होरी, ब्रज होरा। होरा यानी ऐसी वैसी नहीं, पूरे रौब-दाब वाली होली।

यह सच भी है। जहां भारत के ज्यादातर हिस्सों में होली एक या दो या तीनेक दिन का उत्सव है, वहीं ब्रज में यह करीब दो महीने चलता है। मस्ती जो छाती है तो उतरने का नाम नहीं लेती। बच्चे, बूढ़े, जवान जैसे साल भर होली की बाट जोहते हैं। क्योंकि होली ऋतु बदलने, नई फसल उपजने के साथ ही बुराई के खाक होने, बड़े-बुजुर्गों के प्रति आदर गहराने का उत्सव है।

होली का एक नाम बसंतोत्सव भी है। बसंत के आगमन का उत्सव। मीठी, मदमस्त बयार के झखोरे मन में तरंग उठाते हैं, कदम खुदबखुद लहराते हैं, उमंगों के बादल घुमड़-घुमड़ जाते हैं। तिस पर फाल्गुन महीने की खुनक मानो सोने पे सुहागा। ब्रज के देहातों में फाल्गुन पूर्णिमा से करीब महीना भर पहले होली की मुनादी करता डांडा गढ़ने के साथ ही रंगोत्सव शुरू हो जाता है। डांडा उस जगह गाढ़ा जाता है जहां होलिका दहन होना होता है। गांव-मोहल्ले वाले उसी दिन से उस जगह जलावन के ढेर लगाने शुरू कर देते हैं। नन्दगांव, बरसाना, गोकुल, बल्देव, मांट, फालैन, शेरगढ़, महावन, मथुरा, वृन्दावन और दाऊजी में तो होली की खास तैयारियां होने लगती हैं।

बरसाने की लठामार होली तो जगप्रसिद्ध है ही। माना जाता है कि कोई 450 साल पहले ब्रज चौरासी कोस की यात्रा के पुनर्संस्थापक श्री नारायण भट्ट ने लठामार होली की शुरुआत की थी। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन खेली जाने वाली लठामार होली का नजारा ऐसा भावविभोर करने वाला, ऐसा रंग से सराबोर करने वाला होता है कि शब्दों में बता पाना संभव ही नहीं है। बरसाने की रंगीली गली कान्हा के सखा नन्दगांव के हुरियारों और राधा रानी की सखियों के रूप में बरसाने की महिलाओं से ऐसी पटी होती है कि ओर-छोर नहीं दिखता। बरसाने की सखियों से जानबूझकर ठिठोली करते नन्दगांव के छैलाओं पर लाठियों की मीठी और स्नेह पगी धमाधम होती है। लाठियों के वार से बचने को हुरियारे अपने सर पर चमड़ा मढ़ी ढाल ढक लेते हैं और बड़े आनन्द से लाठियों के वार सहते हैं, बीच-बीच में छेड़छाड़ भरे पद गाते हैं, ब्रजबालाएं लाठियां और तेजी से भांजने लगती हैं, गली के चारों ओर छतों-मुंढेरों पर चढ़े संगी- साथी और इस लोकरंजक होली का आनंद लेने वाले हुरियारों पर भर भर बाल्टी टेसू का रंग उड़ेलते हैं, गुलाल-अबीर के बादल छा जाते हैं। गली में रसिया और होली के सवैया गूंज उठते हैं-

आज बिरज में होरी रे रसिया,

होरी रे रसिया बरजोरी रे रसिया।

अपने अपने भवन तें निकसी,

कोई सांवरि कोई गोरी रे रसिया।

कौन गाम के कुंवर कन्हैया

कौन गाम की गोरी रे रसिया।

नंदगाम के कुंवर कन्हैया लाला, बरसाने की गोरी रे रसिया।

वृन्दावन में टेढ़ी टांग वाले ठाकुर बांके बिहारी की अदा तो और बांकी हो जाती है होली की मस्ती में। धुलैड़ी या रंग खेले जाने से पांच दिन पहले, फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी को बिहारी जी के मंदिर की छटा निराली ही हो जाती है, मस्ती की ऐसी बयार बहनी शुरू होती है जो अगले पांच दिन तक अटूट रहती है। टेसू के फूलों से बने खुशबूदार रंग की बौछार और इत्र की महक वाले अबीर-गुलाल के गुबार के बीच से ठाकुर की छवि को निहार कर आनंद आ जाता है। मंदिर में गुलाल और टेसू के रंग के मेल से इतनी कीच हो जाती है कि कुछ देर दर्शन करके बाहर आने पर तलवे ऐसे रंग जाते हैं जैसे पैरों पर महावर रचा दी हो। पांचों दिन सुबह और शाम के दर्शन अद्भुत अनुभूति कराते हैं। मंदिर के अंदर से गोस्वामीजन पीतल की लंबी पिचकारियों से गुनगुने पीले रंग की ऐसी बौछार करते हैं कि 200 फुट दूर खड़ा भक्त भी सराबोर हो जाता है। रोजाना ठंडाई का भोग लगता है, लड्डू-पेड़ों की तो गिनती ही क्या। वृन्दावन में होली की मस्ती का वर्णन करते हुए लाल बलबीर ने कहा है-

मोर के पखौआ सीस

गुंजन की माला गरैं,

मुख में तमाल बैन बोलैं बरजोरी के।

गावत धमार लाल पिचकी अपार परैं,

नीरज फुहार अंग भीजत किशोरी के।।

लाल बलबीर लाल छांड़त गुलाल लाल,

अवनि अकाश द्रुम लाल

चहुं ओरी के।

धाई सहजोरी गोरी लोक

लाज तोरी कहैं,

दौरि घेर लेऔ

ये खिलारी आये होरी के।

मथुरा के द्वारिकाधीश मंदिर का नगाड़ा या बम्ब होली की धमाचौकड़ी की शुरुआत की मुनादी करता है। होली के रसिया दल-बल सहित फेंट में गुलाल भरे एक दूसरे को रंग में रंगते हुए होली के गीत गाते हैं। मथुरा की गलियों में रसियाओं की टोलियां हर एक को रंगते हुए यमुना के ओर से छोर तक सब रंग डालती हैं।

इसी तरह दाऊजी का हुरंगा भी खूब रोचक होता है। भांग और ठंडाई के भोग के साथ ही दाऊजी के मंदिर के बड़े से आंगन में एक तरफ लहंगा ओढ़नी पहने ब्रज बालाएं कपड़े के कोड़े और बाल्टी में रंग लिए खड़ी होती हैं तो दूसरी तरफ पुरुष होते हैं। बालाएं पुरुषों पर रंग डालती हैं, कोड़े फटकारती हैं तो पुरुष पिचकारी से सबको सराबोर करते हैं। ऐसे आनंद के बीच रसिया गाया जाता है-

मत मारो दृगन की चोट

होरी में मेरे लग जायगी…

ब्रज की होली से अछूता कोई नहीं रहता, और रहे भी क्यों। होली है ही ऐसा उत्सव। रंग, उमंग और रसरंग का ऐसा उत्सव कि कोई बचना चाहे तो भी बच नहीं सकता। कम से कम ब्रज में तो ऐसा ही है। सूरदास, रसखान से लेकर तमाम कवियों ने होली की मस्ती को शब्दों में बांधने की कोशिश की है। सूरदास ने कहा है-

नन्दनन्दन वृषभानु किशोरी,

मोहन राधा खेलत होरी….

रसखान कहते हैं-

जाहु न कोऊ जमुना–जल

रोके खड़ो मग नन्द को लाला।

नैन नचाइ चलाइ चितै

रसखानि चलावत प्रेम को भाला।।

मै जु गई हुति बैरन बाहर

मेरी करी गति टूटि गौ माला।

होरी भई कै हरी भए लाल,

कै लाल गुलाल पगी ब्रजबाला।।

तो पद्माकर ने लिखा है-

फाग की भीर अभीरन में,

गहि गोविन्द भीतर लै गई गोरी।

छीनी पीताम्बर कम्मर से,

सुविदादई मीडिकपोलन रोरी।

नैन, नचाइ, कही मुस्काइ,

लला फिर खेलन आइयो होरी।

होली ऐसा उत्सव है जिसके आनन्द में बड़े-बूढ़े भी बाल गोपालों के संग हंसी-ठिठोली करते हैं और बालक भी अपने बड़ों को आदर सहित गुलाल लगाते हैं। इस दिन सब माफ होता है। कहते हैं न-बुरा न मानो होली है। कोई बुरा मानता भी नहीं। क्यों कि धुलैड़ी की शाम को नहा-धोकर, नए कपड़े पहनकर सब अपने मिलने-जुलने वालों को मिठाई देकर होली की मिठास को दूना जो कर देते हैं।

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