|
अमरीका के किसी विश्वविद्यालय ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपनी किसी कांफ्रेंस में भाषण देने का निमंत्रण भेजा और मोदी ने उसे स्वीकार कर लिया, पर दो दिन बाद ही उस निमंत्रण को रद्द कर दिया, इसे हम महत्व क्यों दें? पर, जिस तरीके से यह निमंत्रण पत्र रद्द कराया गया, जिन दो-तीन लोगों ने यह षड्यंत्र रचा, उनकी मानसिकता और अमरीका में ऐसे षड्यंत्र सफल क्यों हो जाते हैं, इसे समझने के लिए उस पूरे प्रकरण की गहराई में जाना राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
क्या है प्रसंग :
प्रकरण यह है कि अमरीका के पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय का एक व्हार्टन बिजनेस स्कूल है, जिसकी पढ़ाई का स्तर बहुत ऊंचा माना जाता है और जिसमें भारत और चीन के छात्र बड़ी संख्या में प्रवेश लेते हैं। इस स्कूल में एक व्हार्टन आर्थिक परिषद है (ज़्कक़) इस परिषद के तत्वावधान में पिछले सत्रह वर्ष, यानी सन् 1996 से एक वार्षिक सम्मेलन का आयोजन होता है और यह आयोजन पूरी तरह छात्रों के द्वारा किया जाता है। इस वर्ष यह सम्मेलन 22-23 मार्च को फिलाडेल्फिया में किया जा रहा है। इस सम्मेलन में किन वक्ताओं को बुलाया जाए, इसका चयन भी पूरी तरह छात्र ही करते हैं। विश्वविद्यालय केवल वक्ता को निमंत्रण भेजने की औपचारिकता पूरी करता है। इस वर्ष नरेन्द्र मोदी को 23 मार्च को बीज वक्तव्य (की-नोट एड्रेस) देने के लिए आमंत्रित किया जो स्वाभाविक भी था, क्योंकि गुजरात के 'विकास माडल' पर अमरीका सहित पूरे विश्व में चर्चा हो रही है। मोदी ने यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया और चूंकि अमरीकी सरकार ने 18 मार्च, 2005 को मोदी को अमरीका प्रवेश हेतु वीजा न देने का निर्णय घोषित किया था और अभी तक वह बंधन हटाया नहीं है, इसलिए तय हुआ कि 23 मार्च को फिलाडेल्फिया में आयोजित इस सम्मेलन को मोदी 'वीडियो कांफ्रेंसिंग' के द्वारा सम्बोधित करेंगे। इस विधि से वे पहले भी अमरीका स्थित भारतीय प्रवासियों को सम्बोधित कर चुके हैं। पर, एक सप्ताह के भीतर ही रविवार, (2 मार्च ) को मोदी को सूचना मिली कि वह निमंत्रण रद्द कर दिया गया है। इसके बाद कहा गया कि उनकी जगह भारत की नवनिर्मित आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल भाषण करेंगे, यद्यपि इसकी विधिवत घोषणा अब तक नहीं हुई है।
वे तीन शैतानी दिमाग
मोदी को निमंत्रण रद्द करने के विश्वविद्यालय के पत्र में कहा गया कि कतिपय दबाव के कारण उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा है। स्वाभाविक ही उत्कंठा जगी कि यह दबाव कहां से आया, क्यों आया? रहस्य खुला कि इस दबाव को बनाने के पीछे पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के तीन भारतीय एसोशिएट प्रोफेसर-तूर्जा घोष, अनिया लुंबा और सुबीर कौल व फिलाडेल्फिया के एक भारतीय वकील कस्तूरी सेन का षड्यंत्र काम कर रहा था। षड्यंत्र सफल होते ही तूर्जा घोष ने अपनी पीठ ठांेकते हुए गर्वोक्ति की कि हमारा अभियान केवल दो दिन में सफल हो गया। कस्तूरी सेन ने एक फेसबुक अकाउंट खोला और हमने 135 शिक्षकों के हस्ताक्षरों के साथ एक अपील उस फेसबुक पर डाली, जिसमें 2002 में गुजरात में मुसलमानों के नरमेध और अमरीका सरकार द्वारा मुख्यमंत्री मोदी को उस नरमेध के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उनके अमरीका प्रवेश की निषेधाज्ञा को मुख्य आधार बनाया। उस अपील में यह भी लिखा कि गुजरात की प्रगति के आंकड़ों की सत्यता के बारे में कुछ लोगों को संदेह है। इस अपील के सार्वजनिक प्रचार के साथ-साथ व्हार्टन स्कूल के छात्रों पर दबाव डाला गया कि वे मोदी को निमंत्रित करने का अपना निर्णय वापस ले लें। तूर्जा घोष को गर्व है कि वे दो दिन में ही यह दबाव बनाने में सफल हो गए।
महत्वपूर्ण बात यह है कि उस अपील पर जिन 135 शिक्षकों के हस्ताक्षर हैं उनमें से व्हार्टन बिजनेस स्कूल का एक भी नाम नहीं है और इस षड्यंत्र के तीन सूत्रधारों में से कोई भी अर्थशास्त्र के विषय का शिक्षक नहीं है। तूर्जा घोष समाज विज्ञान का, अनिया लंुबा और सुबीर कौल अंग्रेजी के शिक्षक हैं। उस विश्वविद्यालय के एक एसोशिएट प्रोफेसर असीम शुक्ला ने प्रश्न उठाया है कि छात्रों पर दबाव बनाया क्यों और किस तरीके से? इस षड्यंत्र में स्तालिनवादी मस्तिष्क काम कर रहा है, यह इस एक तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि तूर्जा घोष ने 2011 में अमरीका के 'आक्युपेशन वाले आंदोलन' में बढ़-चढ़कर भाग लिया था और वह उस सिलसिले में गिरफ्तार भी हुआ था। 'अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य' के तर्क का खंडन करते हुए उसने कहा है कि खतरनाक व्यक्ति को मैं अपने मंच से या अपने घर में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे सकता। प्रिंसटन यूनीवर्सिटी में पीएचडी के छात्र और दिल्ली की प्रतिष्ठित संस्था 'सेंटर फार पालिसी रिसर्च में' विजिटिंग स्कालर विनय सीतापति ने इंडियन एक्सप्रेस (7 मार्च ) में बताया है कि उनके बहुत प्रयास करने पर भी तूर्जा घोष ने उनके ई-मेलों का उत्तर नहीं दिया। उन्होंने अनिया लूंबा से हुए अपने ई-मेल संवाद को उस लेख में प्रस्तुत किया है। सीतापति का मुख्य तर्क है कि यदि मैं नरेन्द्र मोदी से असहमत हंू तब भी मैं उन्हें अपनी बात कहने का अवसर देना चाहूंगा।
हुआ व्यापक विरोध
नरेन्द्र मोदी को निमंत्रण रद्द होने की जानकारी मिलते ही शिवसेना के नेता एवं पूर्व सांसद सुरेश प्रभु, जो केन्द्र सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं, ने फिलाडेल्फिया कांफ्रेंस ने बहिष्कार की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि मैं
अनेक देशों में भाषण देने के लिए
जाता रहता हूं, किंतु ऐसे व्यवहार
की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। निमंत्रण को रद्द करने से केवल नरेन्द्र मोदी का नहीं, मेरे देश का अपमान हुआ है। यह उस अमरीका में अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की हत्या है जो इस सिद्धांत का ढिंढोरा पीटता है। एक औद्योगिक घराने अडानी ग्रुप के अध्यक्ष गौतम अडानी ने भी सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया है। अडानी ग्रुप इस सम्मेलन के प्रायोजकों में से एक हैं और गौतम अडानी को भी वहां भाषण देना था। अडानी ग्रुप को 'प्लेटिनम प्रायोजक' बताया गया था।
वाशिंगटन स्थित भारतीय बुद्धिजीवी सदानंद धूमे ने वाल स्ट्रीट जर्नल में अपने नियमित स्तंभ में सम्मेलन का बहिष्कार करने के अपने निर्णय के पक्ष में लिखा है कि इस संस्था का घोषित उद्देश्य है, 'भारत के बारे में विचारों के आदान-प्रदान का एक तटस्थ मंच प्रदान करना। पर यह निमंत्रण वापस लेकर वह अपने उद्देश्य से गिर गई है। यदि पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय को उनके भाषण के बारे में कोई शंका थी तो आपने निमंत्रण दिया ही क्यों? यदि पिछले सत्रह साल से वक्ताओं का चयन छात्र ही करते आ रहे हैं तो शिक्षक वर्ग को, जो व्हार्टन बिजनेस स्कूल के नहीं बाहर के हैं, उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार कैसे मिल गया? यदि भारत की आर्थिक स्थिति पर विचार के लिए आयोजित सम्मेलन में सबसे सफल राज्य के, जिसकी उपलब्धियों की चर्चा अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में हो रही है, नेता को बोलने का अवसर नहीं दिया जाता तो यह सम्मेलन बुलाया ही क्यों गया? व्हार्टन को मोदी से बहस करानी चाहिए थी, उनसे कड़े से कड़े प्रश्न पूछे जाने चाहिए थे, पर ऐसा नहीं हुआ।'
अमरीका-भारत व्यापार परिषद, जो 350 शीर्ष अमरीकी कंपनियों का प्रतिनिधित्व करती है, के अध्यक्ष रोन सोमर्स, जो स्वयं भी सम्मेलन में मुख्य वक्ता हैं, ने कहा कि अमरीका का कोई विश्वविद्यालय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ जाये, इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और अपमानजनक क्या हो सकता है? सोमर्स ने कहा कि व्हार्टन फोरम के छात्रों को गुजरात के मुख्यमंत्री से सवाल पूछने का मौका देना चाहिए था, यह अवसर उन्होंने गंवा दिया। सोमर्स इस वर्ष 'वाईब्रेंट गुजरात' सम्मेलन में आये थे। इन सबसे भी आगे जाकर एक अमरीकी सांसद इनि फेलियोमाविगा ने इस निर्णय की निंदा करते हुए कहा कि क्या व्हार्टन को यह पता नहीं है कि एक दशक के बाद भी भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भी मोदी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है? यह दु:खद है कि कुछ प्रोफेसरों के विरोध के कारण व्हार्टन ने उनको भेजा गया निमंत्रण रद्द कर दिया। विरोध करने वाले लोग कानून के बाहर जाकर अलग मत रखने वाले लोगों के अधिकार का हनन कर रहे हैं। फैलियोमाविगा विदेशी मामलों की समिति की एशिया-प्रशांत उप समिति के वरिष्ठ सदस्य हैं। उन्होंने पिछले माह ही कांग्रेस में कहा था, 'नरेन्द्र मोदी से हमें वार्ता करनी चाहिए, क्योंकि वे भारत के प्रधानमंत्री भी हो सकते हैं।'
इस बार चुप नहीं
भारत के राजनेताओं की प्रतिक्रिया देखने लायक है। एक ओर सोनिया पार्टी की नेता अम्बिका सोनी हैं जो इस घटना को अपमानजनक नहीं मानती और मोदी को वीजा न देने के अमरीकी निर्णय को भी गलत नहीं मानतीं, दूसरी ओर केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर हैं, जिन्होंने मोदी के प्रति अपनी कटुता को दबाकर एक टीवी चैनल पर खुलकर इस निर्णय की निंदा की। उन्होंने कहा कि मोदी की बात उन्हें सुननी ही चाहिए थी। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ऐसी जगह है जहां आप सवाल कर सकते हैं और उनका जवाब दे सकते हैं।
व्हार्टन स्कूल के इस निर्णय की अमरीका के प्रवासी भारतीय समाज में व्यापक प्रतिक्रिया हो रही है। वहां सभी सोशल साईटस और फेसबुक व ट्वीटर कटु आलोचना से भरे हुए हैं। उन्हें देखकर जाना जा सकता है कि अमरीका में बसे हुए लाखों प्रवासी भारतीय इस निर्णय के विरुद्ध हैं किंतु उनके होते भी तीन-चार वामपंथीयों बुद्धिजीवियों का षड्यंत्र सफल हो गया। इसी प्रकार 2005 में भी मुट्ठी भर भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा एक सप्ताह लम्बे गुपचुप अभियान से नरेन्द्र मोदी को दिया गया वीजा रद्द करा दिया था और प्रवासी भारतीयों का विशाल वर्ग हक्का-बक्का रह गया था। किंतु इस बार वे चुप नहीं बैठे हैं। उन्होंने 9 मार्च को एडीसन, शिकागो एवं न्यूजर्सी में एक निर्धारित समय पर नरेन्द्र मोदी के वीडियो भाषण की घोषणा कर दी है। उनका भाषण पूरे अमरीका व कनाडा में भी प्रसारित होगा।
विचारणीय बात यह है कि वामपंथी बुद्धिजीवी, जो दिन-रात अमरीका को कोसने में बहादुरी दिखाते हैं, अमरीका के ऐश्वर्य का उपभोग करने को लालायित रहते हैं, अमरीका के टुकड़ों पर पलते हैं और अमरीका को ही गाली देते हैं। अमरीका के अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का दुरुपयोग करते हैं। इनके दिमागों में नफरत भरी है। नरेन्द्र मोदी को उन्होंने अपना दुश्मन मान लिया है। वे पिछले दस साल से मोदी की मुस्लिमविरोधी छवि बनाने में तुले हुए हैं जबकि गुजरात में पिछले दस वर्ष में एक-भी दंगा नहीं हुआ। गुजरात के मुसलमान नरेन्द्र मोदी का समर्थन कर रहे हैं, चुनावों में भाजपा को जीता रहे हैं। पिछले सप्ताह ही मौलाना वस्तानवी और जमीयत नेता मौ.महमूद मदनी ने सार्वजनिक वक्तव्य दिये कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री रूप में स्वीकार करने को मुसलमान राजी हैं। (7मार्च) के इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर उसके संवाददाता सैयद खालिक अहमद ने समाचार दिया है कि गुजरात विश्वविद्यालय के दो मुस्लिम छात्रों-तैयब शेख और यस्मिन बानू ने संस्कृत भाषा में स्वर्ण पदक प्राप्त किये हैं और वे दोनों ही संस्कृत भाषा में एमए करना चाहते हैं। कहां यह सत्य और कहां नफरती दिमागों में भरा हुआ पुरानी जानकारी का कचरा। इस मस्तिष्क ने रूस और चीन के ताजे इतिहास से भी कोई सबक नहीं सीखा और वह नफरत की दुनिया में ही जी रहा है।(7 मार्च , 2013) देवेन्द्र स्वरूप
टिप्पणियाँ