आतंकवाद के सामने भारत बेबस क्यों?
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आतंकवाद के सामने भारत बेबस क्यों?

by
Mar 2, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2013 16:14:19

 

21 फरवरी को हैदराबाद के भीड़भाड़ वाले दिलसुख नगर क्षेत्र में दो बम धमाके हुए, जिनमें 17 व्यक्तियों ने जान गंवायी। और 117 व्यक्ति घायल हुए। उनमें से अनेक जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। दुर्घटना घटते ही वही पुराना कर्मकांड शुरू हो गया। पूरे देश में अलर्ट घोषित कर दिया गया। टेलीविजन चैनलों पर बहसों का सिलसिला हो गया, जिनमें रंग-रंग का चश्मा लगाये बुद्धिमानों ने उस घटना की कारण-मीमांसा शुरू कर दी, और यह कैसे टाला जा सकता था, बताना शुरू कर दिया। गृहमंत्री और प्रधानमंत्री भागे-भागे वहां गए और देश को भरोसा दिलाया कि हमने जांच शुरू कर दी है, हम इस साजिश की जड़ तक पहुंच कर ही रहेंगे, कानून के शिकंजे से कोई अपराधी नहीं बचेगा। गृहमंत्री ने कहा कि हमने तो राज्य सरकार को पहले ही सचेत कर दिया था, पर वह नहीं चेती। उन्होंने अपनी स्थायी मुस्कान के साथ कहा कि हम प्रतीक्षा कर रहे थे कि 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई के अपराधी कसाब को और 13 दिसम्बर 2001 को देश की संसद पर हमला करने वाले अफजल को फांसी देने की कुछ न कुछ प्रतिक्रिया अवश्य होगी, सो वह इस रूप में हमारे सामने आ गयी।

सतही जांच, बेअसर एनआईए

हैदराबाद की पुलिस, आईबी और एनआईए ने दौड़धूप शुरू कर दी है। मीडिया में रोज नई-नई कहानियां, संस्थानों और व्यक्तियों के नाम उछलने लगे। गुप्तचर एजेंसियों ने दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, बिहार के दरभंगा और पूर्वी चम्पारण और पूर्व में कोलकाता और दक्षिण में कर्नाटक व महाराष्ट्र तक छापे मारना शुरू कर दिया। 1993 से सब बम विस्फोटों के पीछे दाउद बंधुओं की साजिश बतायी जाती थी। उसको पकड़ने के लिए दुनिया भर में जाल बिछाया जाता था, पर वह आज तक पकड़ में नहीं आया। निराश होकर अब कर्नाटक के तीन भटकल भाइयों को इन विस्फोटों के पीछे बताया जा रहा है। पर एक सप्ताह लम्बी पूरी मशक्कत के बाद हैदराबाद के पुलिस आयुक्त लोकनाथ शर्मा ने स्वीकार कर लिया है कि अभी तक उन्हें कोई सुराग नहीं मिला है। अब उनकी सारी आशा कुछ सीसीटीवी कैमरों में कैद धुंधले छायाचित्रों पर टिकी है। अपनी हताशा को छिपाने के लिए केन्द्र सरकार ने 3400 करोड़ रुपये की लागत से एक नयी आतंक निरोधी संस्था 'एनसीटीसी' के निर्माण का शोशा उछाल कर केन्द्र और राज्य के बीच मतभेद का स्वर अलापना शुरू कर दिया है। गृहमंत्री शिंदे भागे-भागे कोलकाता गये, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को मनाने के लिए। वे आभास पैदा कर रहे हैं कि कुछ राज्य सरकारों के विरोध के कारण 'एनसीटीसी' नहीं बन पायी और इसलिए ये बम विस्फोट हुए और निर्दोष जानें चली गयीं। पर आंध्र प्रदेश में तो उनकी अपनी कांग्रेस सरकार थी इसलिए वहां केन्द्र व राज्य के बीच रस्साकशी नहीं थी। तब ऐसा क्यों हुआ? यदि एनसीटीसी के होने मात्र से यह दुर्घटना टाली जा सकती थी तो 26/11 की विभीषिका के बाद तब के गृहमंत्री पी.चिदम्बरम द्वारा बड़े ताम-झाम के साथ गठित एनआईए ने क्या कमाल करके दिखाया? सिवाय इसके कि उसने महाराष्ट्र और आंध्र पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये आतंकियों को निर्दोष कहकर छुड़वा दिया और मालेगांव व मक्का मस्जिद (हैदराबाद) के विस्फोटों के लिए हिन्दू युवकों व एक हिन्दू साध्वी को गिरफ्तार करके दुनिया भर में 'हिन्दू आतंकवाद' का ढिंढोरा पीट दिया। उसी का परिणाम है कि हैदराबाद के जमीयत उल जमात मदरसा के सरगना मौलना मोहम्मद नसीरुद्दीन, जो 1992 से अब तक हिन्दुओं के विरुद्ध नफरत फैला रहे हैं और जिन्होंने खुलेआम अमरीका व इस्रायल के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी अपना दुश्मन घोषित कर रखा है, इन विस्फोटों की सुई भी तथाकथित 'हिन्दू आतंकवाद' की ओर घुमा रहे हैं (हिन्दुस्तान टाइम्स, 27 फरवरी, 2013)।

अलगाववादियों के पोषक

1989 में कश्मीर घाटी से तीन लाख हिन्दुओं को खदेड़ने के साथ आतंकवाद का जो सिलसिला आरंभ हुआ है, उसमें हजारों जानें अब तक जा चुकी हैं, हजारों परिवार बर्बाद हुए हैं और सैकड़ों हिन्दू पंगु हो गये हैं। हर नये बम विस्फोट के बाद समाचार पत्रों में इन विस्फोटों की तिथि अनुसार तालिका और उनमें मारे गए लोगों की संख्या छपती रहती है। अब तो हमने कहना शुरू कर दिया है कि आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता, कोई मजहब नहीं होता। इस खोखले शब्दाचार की आड़ में हमने पूरे विश्व में फैले हुए हरे रंग के आतंकवाद से त्रस्त दस-पांच भारतीय युवकों के आतंक निरोधी प्रयास से उसे वैश्विक आतंकवाद के समकक्ष खड़ा कर दिया है। इसी का परिणाम है कि वोट राजनीति के गुलाम नेताओं ने लोकसभा में निर्दोष मुस्लिम युवकों की रिहाई का राग अलापना शुरू कर दिया है। भारतीय लोकतंत्र के केन्द्र संसद पर आतंकी आक्रमण के मस्तिष्क अफजल को फांसी पर अनेक भारतीय बुद्धिजीवी चौराहे पर खड़े होकर आंसू बहा रहे हैं। यहां तक कि फांसी की सजा को ही समाप्त करने की मांग उठा रहे हैं। जबकि वही बुद्धिजीवी प्रत्येक बलात्कारी को प्राणदण्ड देने और राष्ट्रपति से उसे क्षमा न करने की मांग कर रहे हैं। क्या अफजल अकेला है या फिर कश्मीर का पूरा पृथकतावादी वर्ग उसके पीछे खड़ा है? उसके पार्थिव शरीर को कश्मीर घाटी में लाने की मांग यदि मुख्य विपक्षी दल पीडीपी उठा रहा है तो उसकी काट करने के लिए नेशनल कांफ्रेंस के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी उसके स्वर में स्वर मिलाना पड़ रहा है। अफजल को एक 'गाजी' या 'शहीद' का दर्जा देने के लिए वहां के एक उर्दू अखबार 'कौमी वकार' ने अफजल के हाथ का लिखा एक पत्र छापा है, जिसमें अफजल ने कहा है कि 13 दिसम्बर, 2001 को पार्लियामेंट पर हमले के लिए वह तनिक भी शर्मिंदा नहीं है। 'कौमी वकार' के सम्पादक का कहना है कि यह पत्र अफजल ने फांसी लगने के पांच साल पहले लिखा था। पर उसे जानबूझकर नहीं छापा गया। अफजल के भाई ने उसके हस्तलेख की शिनाख्त करके उसे प्रामाणित करार दिया है। सच कुछ भी हो किंतु इतना तो साफ है कि कश्मीर के पृथकतावादी अफजल को अपना हीरो मानते हैं। इसका अर्थ हुआ कि जो भारतीय बुद्धिजीवी अफजल की वकालत कर रहे हैं, वे पृथकतावादियों के साथ हैं।

ऐसे में कैसे होगी जांच?

शत्रु-मित्र विवेक के इस अभाव का ही परिणाम है कि एनआईए एक ओर तो एक छोटी-सी संस्था 'अभिनव भारत' पर प्रतिबंध लगाने के लिए महाराष्ट्र सरकार पर दबाव डाल रही है, दूसरी ओर आतंकवादी गतिविधियों के आरोप में जेलों में बंद मुस्लिम युवकों की रिहाई का वातावरण बना रही है। (टाइम्स आफ इंडिया, 27 फरवरी) कर्नाटक के एक पत्रकार मुजीब उर रहमान सिद्दीकी को एनआईए की विशेष अदालत ने रिहा कर दिया। रिहा होते ही सिद्दीकी ने 'प्रेस कांफ्रेंस' में पसमांदा लोगों, वंचितों और मुसलमानों पर जुल्मों का आरोप लगा दिया। (हिन्दू, 27 फरवरी) अनेक चैनल मुस्लिम युवकों को दिखाकर पूरे विश्व में प्रचार कर रहे हैं कि भारत में निर्दोष मुसलमानों को जेल में ठूंसा जा रहा है। सत्तालोलुप राजनेता इस प्रश्न को संसद में उठा रहे हैं। इस अभियान के कारण पुलिस का काम बहुत कठिन हो गया है। उसके दिल में डर बैठ गया है कि यदि उसने सिर्फ जानकारी के आधार पर किसी पर संदेह किया और उसे हवालात में बंद कर दिया तो उस पर मुसलमानों के उत्पीड़न का आरोप लग जाएगा। अंग्रेजी अखबारों को ध्यान से पढ़ें तो उनमें बार-बार पुलिस और गुप्तचर संस्थाओं पर 'हिन्दू के प्रति पक्षपात' का आरोप लगाया जा रहा है। इसी का परिणाम है कि आंध्र प्रदेश से इत्तेहादुल मुसलमीन के सांसद असाउदुद्दीन ओवैसी ने टेलीविजन पर निर्भीक स्वर में कहा कि मुसलमानों के प्रति भेदभाव इन विस्फोटों के पीछे कारण हो सकता है। असाउद्दीन के छोटे भाई अकबरुद्दीन, जो विधायक हैं, खुलेआम नफरती भाषण देने के कारण भारी जनदबाव पर कुछ दिन पहले ही गिरफ्तार किये गये थे। इस वातावरण से प्रोत्साहित होकर ही दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय की शिक्षक एसोसियेशन ने हैदराबाद पुलिस को जांच से अलग रखने का लिखित वक्तव्य जारी कर दिया है। (हिन्दू 27 फरवरी)

इस विषाक्त वातावरण में कर्तव्यपरायण एवं ईमानदार पुलिस अधिकारी इन विस्फोटों की जांच से पीछे हट रहे हैं। महाराष्ट्र के अनुभवी और कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी रमेश महाले ने 26/11 की जांच से त्यागपत्र दे दिया है और अपने सहयोगियों के बहुत दबाव डालने पर भी वे त्यागपत्र वापस लेने को तैयार नहीं हुए। मंगलवार (26 फरवरी) को पुलिस आयुक्त यशवंत वाटकर ने 'काम का बोझ अधिक' होने का कारण देकर अपने स्थानांतरण की अर्जी भेज दी। ये दोनों ही अधिकारी अपराधों की जांच में बहुत कुशल माने जाते हैं। पर सत्तालोलुप राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण पुलिस और जांच समितियों का मनोबल क्षीण हो रहा है। केन्द्र और महाराष्ट्र के नेता 26/11 को पूरी तरह पाकिस्तान के खाते में डालना चाहते हैं जबकि बिना स्थानीय सहयोग के इतना बड़ा आतंकी हमला संभव ही नहीं है। किसी भी निष्पक्ष पुलिस जांच के हाथ स्थानीय तत्वों पर जाएंगे ही, पर कांग्रेस सरकारें ऐसा नहीं चाहतीं। इसलिए पुलिस अपने हाथ बंधे पा
रही है।

इस राजनीति से निजात कैसे?

जब तक वोट राजनीति से ऊपर उठकर आतंकवाद को उसकी प्रेरक विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाएगा तब तक हम आतंकवाद का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। क्या यह संभव है कि किसी जुनून या बड़े लक्ष्य की प्राप्ति की प्रेरणा के अभाव में उच्च शिक्षा प्राप्त, बड़े पदों पर बैठे युवक किसी अदृश्य दूरगामी भविष्य के लिए अपनी जवानी का बलिदान देने को तैयार हो जाएं। यह जुनून ही है जिसके कारण हमारी गुप्तचर एजेंसियां 'जिहादी मोड्यूल्स' को भेद नहीं पा रही हैं। परवीन स्वामी ने विस्तार से लिखा है कि हमारी गुप्तचर एजेंसियों के पास पर्याप्त संख्या में कार्यकर्त्ता नहीं हैं। (हिन्दू, 27 फरवरी) पर पर्याप्त संख्या होने पर भी आतंकी गुटों में कैसे प्रवेश करना, यह मुख्य प्रश्न है। हम केवल संस्थाओं के नाम गिनाते रहते हैं। कभी इंडियन मुजाहिदीन, कभी सिमी, कभी लश्करे तोएबा, हिजबुल मुजाहिदीन, जैशे मुहम्मद, हरकत उल जिहादी जैसे नाम उछालते रहते हैं, जबकि इन सब गिरोहों के नामों से ही उनकी विचारधारा झलकती है। पर हम सत्य का सामना करने से डरते हैं इसीलिए हम आतंकवाद से लगातार मार खा रहे हैं, जानें गंवा रहे हैं और स्वयं को ही कटघरे में खड़ा पा रहे हैं।

कितने हैं पूर्व विदेश सचिव कंवल सिबल जैसे स्पष्ट दृष्टि वाले, निर्भीक विचारक, जो कह सकें (मेल टुडे 27 फरवरी) कि 'इस आतंकवाद का विशाल अन्तरराष्ट्रीय व्याप है। इसकी लगाम कसने में केवल भारत ही नहीं तो वे देश भी पूरी तरह सफल नहीं हो रहे जो हमारी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली, साधन सम्पन्न और आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कटिबद्ध हैं। इसके केन्द्र में इस्लाम के शत्रुओं के विरुद्ध इस्लामी जगत में पल रहीं शिकायतें हैं और वे मजहबी पुस्तकें हैं जो इन शिकायतों को दूर करने के लिए निर्दोष लोगों की हत्या का नैतिक समर्थन करती हैं।'

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