संगम के तट पर शहीदों का गांवबलिदान को सिर्फ दान से मत तोलो
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संगम के तट पर शहीदों का गांवबलिदान को सिर्फ दान से मत तोलो

by
Mar 2, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2013 16:24:41

संगम के तट पर शहीदों का गांव

बलिदान को सिर्फ दान से मत तोलो

हरिमंगल

ऐसा लगता है कि समय के साथ सरकार और समाज-दोनों ने शहीदों और शहीदों के परिवारों को भुला दिया। इस अपमान और तिरस्कार के साथ शहीदों के अधिकांश परिवार गुमनामी के अंधेरे में रह रहे हैं। देश में राष्ट्रीय पर्व के रूप में प्रचलित गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस, शहीद दिवस, विजय दिवस जैसे अनेक दिवस आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन सिर्फ उसी दिन बलिदानियों को प्रतीकात्मक रूप से याद किया जाता है। ऐसे में इनके दु:खों को समझने वाला अथवा सांत्वना देने वाला कोई नहीं है। सरकार ने पेंशन, ग्रेज्युटी, सहायता राशि आदि देकर अपने फर्ज से पल्ला झाड़ लिया है। कथित समाजसेवियों की भी ऐसे परिवारों के प्रति कोई रुचि नहीं है।

प्रयाग कुंभ में संत बालक योगेश्वर दास के शिविर में आयोजित विष्णु महायज्ञ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भागीदारी करने आये लगभग तीन दर्जन शहीदों के परिवारों में से कुछ ने पाञ्चजन्य संवाददाता से बातचीत में उन तमाम बातों का खुलासा किया जो आज भी उनके दिलों में नासूर की तरह है। यहां मिलीं श्रीमती बीना जसरोटिया, जिनका बड़ा पुत्र मेजर अजय सिंह जसरोटिया 15 जून, 1999 को कारगिल युद्ध में शहीद हुआ। बीना जसरोटिया बताती हैं कि सन् 2000 में बड़े ही उत्साह और सम्मान से 'विजय दिवस' मनाया गया। 2001 में यह सीमित स्थानों पर मनाया गया। उसके बाद तो यह मात्र औपचारिक दिवस बनकर रह गया है। बेटे की शहादत के बाद बार-बार मन में इच्छा होती थी कि एक बार तो वहां जाऊं जहां मेरे लाड़ले ने देश की रक्षा करते हुए बलिदान दिया। लेकिन सरकार ने हमारी इस भावना को कभी प्राथमिकता नहीं दी। यह तो हमारे महाराज जी (संत बालक योगेश्वर दास जी) थे कि मुझे ही नहीं, तमाम परिवारों को 2007 में द्रास तक ले गये। वहां जाकर हमें पता चला कि यह लड़ाई कितनी कठिन थी। हम कल्पना करके ही सिहर गये कि कैसे हमारे बच्चे इन ऊंची पहाड़ियों पर बैठे दुश्मनों से मोर्चा लेने नीचे से ऊपर गये होंगे? सम्मान की चर्चा की तो कहने लगीं, 'अनेक बार हमें 'सम्मान' के लिये बुलाया जाता है, लेकिन जैसे ही कोई नेता या मंत्री आता, हमें उपेक्षित छोड़कर लोग उनके पीछे हो लेते हैं। ऐसे में भला कौन जाना चाहेगा 'सम्मान' पाने या कहें अपमान कराने के लिये।'

अमरनाथ यात्रा में श्रद्धालुओं की सुरक्षा करते हुए तब शहीद हुए जम्मू-कश्मीर पुलिस के उपाधीक्षक प्रवीण शर्मा की पत्नी अनुराधा शर्मा एक बड़ा सवाल उठाती है। कहती हैं, 'आज सैन्य बल या पुलिस के लोग लगातार शहीद हो रहे हैं लेकिन सरकार भावनात्मक रूप से इस हानि को नहीं समझती है। वह इसे एक राजकीय सेवक की मौत मानकर अपने कर्तर्व्यों की इतिश्री कर रही है। जब तक समाज और सत्तासीन लोगों में राष्ट्रभक्ति नहीं होगी तब तक शहीदों के परिवार उपेक्षित रहेंगे।'

27 अक्तूबर, 2001 को कठुआ में शहीद हुए जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक और उपाधीक्षक देवेन्द्र शर्मा की पत्नी सुदेश शर्मा को कुछ वर्ष बाद ऐसे अभिलेख मिले जिसके अनुसार उनके पति के शहीद होने पर राष्ट्रपति पदक मिलना चाहिए था, लेकिन सिफारिश न होने के कारण इसके लिए संस्तुति ही नहीं भेजी गयी। जब श्रीमती शर्मा ने उन अभिलेखों के साथ अपनी पैरवी शुरू की तो उनसे कहा गया कि अब देर हो गयी है, कुछ नहीं हो सकता है। वे सवाल उठाती है, 'क्या सम्मान पाने के लिए ऊंची पहुंच होनी जरूरी है।'

कारगिल युद्ध में शहीद सुखजीत सिंह की पत्नी तविन्दर कौर बताती है, शादी के 5 वर्ष बीते ही थे, अचानक 14 जुलाई, 99 को इनके शहीद होने की खबर आयी। समझ नहीं आ रहा था कैसे जिएं? तब बेटा 3.5 वर्ष का और बेटी 14 माह की थी। सरकार ने आश्वासनों की झड़ी लगा रही थी। समाज सम्मान में पलक बिछाये हुए था। आशा की किरण जगी, पर एक वर्ष बीतते-बीतते सब खत्म हो गया।' बच्चे को सेना में भेजने के सवाल पर कहा 'यदि सरकार के नजरिये में बदलाव नहीं आया तो आने वाले समय में अनेक परिवार अपने बच्चों को सेना की नौकरी से दूर रखेंगे।'

'टाइगर हिल' पर विजय पताका फहराने का श्रेय 7 जांबाज कमान्डो को जाता है, जिसमें से 6 कमाण्डो को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। शहीद कमाण्डो मदन लाल को मरणोपरांत 'वीर चक्र' प्रदान किया गया।  मदनलाल की पत्नी कमला देवी 'सम्मान' पर ही सवाल उठाती है। कहती है, 'इस कार्य के लिये उन्हें 'परमवीर चक्र' मिलना चाहिए था, सेना के लोग भी कहते हैं, लेकिन न जाने क्यों सम्मान देने में सरकार ही अन्याय करती है।'

'टाइगर हिल' पर ही शहीद हुए 19 वर्षीय कमाण्डो उदयभान सिंह की वीर गाथा जितनी ही ओजपूर्ण है, उनकी मां कांता देवी से बात करना उतना ही कठिन। बोलीं, 'उदयभान मेरा इकलौता बेटा था, मैंने उसे बड़े गर्व से देश की रक्षा के लिए भेजा था। उसने अपने सीने पर गोलियां खायी हैं।' उसे परमवीर चक्र मिलना चाहिए था पर मिला 'सेना मेडल'। कांता देवी को सरकार से कोई अपेक्षा नहीं है। बताती हैं कि उदयभान के नाम पर स्कूल खोलने की घोषणा हुई परन्तु वह आज तक न हो सका।

कारगिल की तोलोलिंग पहाड़ी पर सूबेदार बहादुर सिंह 11 जून, 99 को शहीद हुए। उनकी पत्नी प्यारी देवी कहती हैं, 'मेरे पति ने बड़ी बहादुरी से लड़ाई लड़ी, दुश्मनों से लड़ते हुए अपनी जान दे दी, लेकिन जब मेडल की बात आयी तो सरकार ने 'वीर चक्र' देकर हाथ जोड़ लिये। और अब तो भुला ही दिया।'

देश की सीमा पर शहीद हुए हेमराज का नाम आज अनेक लोगों की जुबां पर है। उसकी निर्मम हत्या के बाद दुश्मन देश के घुसपैठिये सैनिक उसका सिर काटकर ले गये और आज तक वापस नहीं आया। उनकी मां मीना देवी बहुत कुरेदने के बाद बोलीं, 'हमसे बड़ी अभागिन कौन होगी जो शहीद बेटे का चेहरा भी न देख सकी। जब सिर कटी लाश घर आयी तो बहुत इच्छा थी कि उसके पांव ही देख लूं, लेकिन मुझे तो वह भी नहीं देखने दिया गया। जब तक सरकार दुश्मनों को सबक नहीं सिखायेगी तब तक न जाने कितनी मांओं के बेटों के सिर काटे जायेंगे?'

कारगिल युद्ध में शहीद हवलदार दलेर सिंह भाऊ की पत्नी शारदा भाऊ भी सरकार की नीति और समाज की सोच से बहुत दु:खी हैं। कहती है कि सैनिक की शहादत को सरकार पैसे से तौलती है। उसे लगता है कि शहीद के परिवार को आर्थिक सहायता देने से उसका काम समाप्त हो जाता है। उन्हें उस शहीद के परिवार की भावनाओं का कोई ख्याल नहीं जिसका कोई शहीद हुआ है।'

सरकार और समाज को जगाना होगा

–संत बालक योगेश्वर दास

संगम की रेती पर 'शहीदों का गांव' सुनकर सबको हैरत होगी। लेकिन पिछले कई वर्षों से शहीदों को परिवारों को आपस में जोड़ने तथा उनमें चेतना जागृत करने के लिए संत बालक योगेश्वर दास ने कुंभ में संगम तट पर शहीद परिवारों का एक छोटा-सा गांव बसाया। शहीदों के परिजनों के आने-जाने तथा उनके रहने की सम्मानजनक व्यवस्था उन्होंने स्वयं की। श्री हनुमान मन्दिर, बद्रीनाथ के इन संत की कर्मभूमि जम्मू और उसके आस-पास है। प्रस्तुत है विभिन्न मुद्दों पर उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-

थ् शहीद के परिवारों से जुड़ने का क्या कारण है?

द्ध ईश्वर की इच्छा। शहीद अजय जसरोटिया की मां से सबसे पहले मुलाकात हुई। उनकी वेदना सुनकर इन परिवारों के लिए कुछ करने को प्रेरित हुआ। अभी तक तो 150-175 परिवारों से ही जुड़ सका हूं, उन्हें आपस में जोड़ सका हूं। आपस में जोड़ने का परिणाम यह है कि अकेले में सबको अपना दु:ख सालता है लेकिन जब वह आपस में बात करते हैं तो उन्हें लगता है कि इनका दु:ख तो हमसे बड़ा है। इस तरह दु:ख सहन करने की क्षमता बढ़ती है।

थ् कुछ मदद कर रहे हैं इन परिवारों की?

द्ध मैं क्या मदद करुंगा? शहीद परिवारों से जुड़ने के बाद मुझे पता चला कि कारगिल के शहीदों के परिजन वहां जाना चाहते हैं। मैंने इस भावना को सम्मान दिया। पूरा एक जहाज बुक  किया लेकिन वह भी कम पड़ गया, तो अन्य साधन से सबको द्रास तक ले गया। वहां एक विशाल यज्ञ किया, जिसमें शहीदों के परिजनों ने आहूतियां दी।

थ् इन परिवारों को क्या कुछ दिलाना चाहते हैं?

द्ध आज जो दान करता है उसे पूज्य कहा जाता है, लेकिन जिसने अपनी जान दे दी, वह वन्दनीय है, पूज्यनीय है, स्मरणीय है। उन्हीं के कारण तो आज हमारा अस्तित्व है। क्या 10-15 हजार रुपए के लिए ये लोग अपनी जान दे रहे हैं? नहीं, वे देशभक्ति के लिए गोली खा रहे हैं।

थ् सरकार और समाज के लिए कोई संदेश?

द्ध अभी एक हेमराज का सिर काटा गया है। सरकार और समाज ऐसे ही चुप रहे तो यह हैवानियत नहीं रुकेगी। हमारे सैनिक सीमा पर डटें रहे, इसके लिए समाज और सरकार को उनके सम्मान की चिंता करनी चाहिए।द

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