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विश्व में गूंजे हमारी भारती-बल्देव भाई शर्मा

by
Jan 21, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Jan 2013 12:20:14

 

स्वामी विवेकानंद का स्मरण हृदय में रोमांच भर देता है, उनके शब्द पढ़-सुनकर भुजाएं फड़कने लगती हैं और मन में उदात्त भावों को जगाता आनंद का उत्स फूट पड़ता है। मानो ऊर्जा का विस्फोट हैं विवेकानंद। नरेन्द्र नाथ दत्त से स्वामी विवेकानंद बनने तक की उनकी यात्रा न केवल मानवीय दुर्बलताओं पर विजय है, बल्कि अनंत आस्था के प्रवाह में अवगाहन है, राष्ट्र- धर्म- संस्कृति के उन्नयन का मंत्र भी। निराशा, आत्मबोधहीनता और अज्ञान से निकलकर किस तरह जिजीविषा के साथ निर्भय होकर अमरत्व की ओर बढ़ें, हिन्दू चिंतन, विशेषकर उपनिषदों के आह्वान को बोधगम्य बनाकर जब उन्होंने प्रस्तुत किया, तो न केवल ईसाइयत की श्रेष्ठता के अहंकार पर चढ़कर आई साम्राज्यवादी निरंकुशता का दंभ चूर-चूर हो गया, बल्कि यूरोप और अमरीकावासी तो उन्मत्त होकर उनके पीछे दौड़ने लगे मानो उन्हें कोई त्राता मिल गया हो। उनके विदेश प्रवास काल में घटित ऐसे अनेक प्रसंग और वहां के समाचार पत्रों में प्रकाशित स्वामी जी के चुम्बकीय आकर्षण की यशोगाथा वहां उनका जादू छा जाने के साक्षी हैं। प्रेम, सेवा और बंधुत्व के मार्ग पर चलकर समस्त मानवता के लिए स्वार्थ-भेद-संघर्ष से परे सुखमय, कल्याणकारी व शांतिपूर्ण जीवन का उनका संदेश पाश्चात्य भोगवादी और विभेदकारी सभ्यता से तप्त हृदयों के लिए मानो अमृतवर्षा जैसा था। उनके सम्मोहन में बंधा समस्त यूरोप व अमरीका धन्य-धन्य कह उठा। देश के उस पराधीनता काल में भी किसी भी तरह की आत्महीनता की बजाय भारत को, हिन्दू चिंतन को विश्व में प्रतिष्ठा दिलाकर, भारत को पराधीन कर विजय के दंभ में जी रहीं यूरोपीय जातियों व देशों को फटकार लगाकर एक दिग्विजयी योद्धा की भांति स्वामी विवेकानंद भारत लौटे तो देश का जनमानस गर्वोन्नत होकर उनके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाकर खड़ा था, लेकिन स्वामी जी मद्रास के समुद्रतट पर जहाज से उतर कर मातृभूमि की रज में लोट-पोट हो रहे थे, आनंद अश्रुओं से विगलित अवस्था में वे बेसुध से हो गए, मानो वर्षों से मां की गोद से बिछुड़ा कोई अबोध बालक मां के अंक में आकर विश्रांति पा गया हो। मातृभूमि के स्पर्श से उनके आनंद का तो पारावार ही नहीं था, वर्षों भोगवादी पश्चिम की भूमि पर विचरण कर लौटे स्वामी विवेकानंद मानो भारत की रज के स्पर्श से चिरंतन शुचिता के संस्कार में अवगाहन कर रहे थे। ऐसी थी उनकी भारत भक्ति, मातृभूमि के प्रति अखंड साधना और हिन्दू चिंतन, भारतीय जीवनमूल्यों-संस्कारों के प्रति अडिग विश्वास व अगाध आस्था।

उन्होंने भारत भ्रमण कर निरंतर देशवासियों को जगाया, अपने समाज जीवन की कुरीतियों, मानसिक जड़ता और अंधविश्वासों के कुंहासे को चीरकर अपने स्वत्व को पहचानने व अपने पूर्वजों की थाती को संभालने का आह्वान किया। भारत माता को साक्षात् देवी मानकर उसके उत्कर्ष के लिए उसकी सेवा में सर्वस्व न्योछावर कर देने की भावना, दरिद्र नारायण की सेवा, स्त्री चेतना का जागरण, शिक्षा का प्रसार, राष्ट्रोन्नयन में युवाओं की भूमिका, उनका चरित्र निर्माण- उनका बलशाली बनना, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बोध, भारत की आध्यात्मिक चेतना का प्रवाह, जाति, पंथ भेद से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता व लोक कल्याण के द्वारा भारत का उत्थान, राष्ट्रीय एकात्मभाव का जागरण, हिन्दू धर्म-संस्कृति का गौरवबोध, झोपड़ियों में से भारत उदय का आर्थिक चिंतन, ऐसी बहुआयामी सार्वकालिक विचार दृष्टि स्वामी जी ने हमें दी जो हमारे वैयक्तिक, सामाजिक व राष्ट्रजीवन के सर्वतोमुखी उत्कर्ष की भावभूमि है। स्वामी विवेकानंद की डेढ़ सौवीं जयंती (सार्द्ध शती) के अवसर पर भारत के जन-जन तक इसके चिंतन-मनन और क्रियान्वयन का संदेश पहुंचे, इसी महत् उद्देश्य से देशभर में विवेकानंद सार्द्ध शती के आयोजन वर्ष भर चलेंगे। स्वामी विवेकानंद के विचार केवल बौद्धिक चिंतन तक ही न रहें, बल्कि व्यावहारिक धरातल पर भी साकार हों और देश का चित्र बदले, यह आवश्यक है। भारत का जो चित्र स्वामी जी की अंतश्चेतना में उभरता था, वह केवल सुखी, समृद्ध, शक्तिशाली भारत का नहीं था, बल्कि एक संपन्न, सशक्त, स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में भारत विश्व का मार्गदर्शन करे, अपने गौरव बोध के साथ समूची मानव जाति को सुख-शांति व कल्याण का मार्ग दिखाए, भारत माता फिर से विश्वगुरू के सिंहासन पर आरूढ़ हो विश्व पूज्य बने। यह संकल्प तभी पूर्ण होगा जब हम विवेकानन्द के विचार को मनसा-वाचा-कर्मणा जिएंगे।

दुर्भाग्य से आज सत्तास्वार्थों के मोहजाल में फंसकर जाति, पंथ के विभेद उभारकर देश को कमजोर बना रही राजनीति पर अवलंबित राष्ट्रीय नेतृत्व भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याओं की न केवल अनदेखी कर रहा है, बल्कि उनको बढ़ाने में भी उसकी अदूरदर्शी व गलत नीतियां जिम्मेदार हैं। लगातार बिगड़ती कानून- व्यवस्था और नागरिक जीवन व उसके सम्मान के प्रति लापरवाही के कारण बढ़ते नृशंस अपराध, माओवादी नक्सलवाद व जिहादी आतंकवाद जैसी क्रूर हिंसक गतिविधियां आंतरिक सुरक्षा के लिए तो गंभीर खतरा हैं ही, देश के विघटन का खतरा भी उपस्थित कर रही हैं। उधर, सरकार की स्वाभिमानशून्यता व घुटनाटेक नीति के कारण पाकिस्तान, चीन लगातार भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा व एकता-अखंडता के लिए गंभीर चुनौती खड़ी कर रहे हैं। सरकार पोषित सेकुलर सोच के कारण शिक्षा में नैतिकता, राष्ट्रभक्ति, सामाजिकता जैसे उदात्त भाव तिरोहित हो रहे हैं, हिन्दुत्व को न केवल सांप्रदायिक बताया जाता है, बल्कि वोट राजनीति के लिए उसे कमजोर करने व लांछित करने के षड्यंत्र भी लगातार जारी हैं। आधुनिक सोच के नाम पर औपनिवेशिक व पाश्चात्य मानसिकता हावी है, जिसके आगे भारतीय जीवनमूल्यों, संस्कारों व चरित्र निर्माण की प्रक्रिया को पोंगापंथ ठहरा दिया जाता है। ऐसे में जब भारत, भारत ही नहीं रहेगा तो वह विश्व के सामने क्या आदर्श रखेगा? एक बार फिर विवेकानंद की सिंह- गर्जना भारतीयता से विमुख बंद दिमागों की खिड़की खोले, उनके अंत:करण में छाए वैचारिक विभ्रम के कुंहासे को छांट दे, भारत भक्ति से ओत-प्रोत हृदयों में आशा व विश्वास का संचार करे और भारत फिर अंगड़ाई लेकर 'इंडिया' को मात देता हुआ उठ खड़ा हो। 'भारत जागो, विश्व जगाओ' का यह संदेश गुंजित करने के सार्द्ध शती के इस अभियान में पाञ्चजन्य की भूमिका का निर्वाह करते हुए यह विशेषांक आप सबको समर्पित है, इस अभिलाषा के साथ-

विश्व में गूंजे हमारी भारती

जन जन उतारे आरती

धन्य देश महान!

धन्य हिन्दुस्थान!!

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