मानव का निर्माण है विवेकानन्द की शिक्षा-डा. विशेष गुप्ता
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कहा जाता है कि स्वर्गलोक की सीधी किरणें भारतभूमि पर पदार्पण करती हैं इसलिए भारत सन्तों की स्थायी स्थली है। वैसे तो इतिहास से लेकर वर्तमान तक भारत में अनेक साधु-सन्त एवं सिद्ध पुरुष हुए। परन्तु चालीस वर्ष से भी कम आयु में जिस युवा-संन्यासी ने देश-विदेश में भारत के वेदान्त दर्शन की अलख जगाई, वह केवल स्वामी विवेकानन्द ही थे। इस वर्ष उनकी 150 वीं जन्म शताब्दी है। निश्चित ही उनकी जयन्ती से जुड़ा यह वर्ष उनके व उनकी वैचारिकी का वर्तमान सन्दर्भ में मूल्यांकन करने का एक स्वर्णिम अवसर है। देश में प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी 'राष्ट्रीय युवा दिवस' के रूप में मनाया जाता है। परन्तु इस वर्ष 12 जनवरी, 2013 को उनकी 150वीं जयन्ती है। इस अवसर पर उनके वैचारिक जीवन से जुड़े प्रतिबिम्ब ही नहीं, बल्कि उनके उदात्त सिद्धान्तों का चित्रण भी वर्तमान की आधारपीठिका तैयार करते हुये भारत के भविष्य का भी प्रतिचित्र तैयार करेगा।
स्वामी विवेकानन्द युवा पीढ़ी के आज भी प्रेरणास्त्रोत हैं। स्वामी जी का 'उत्तिष्ठ जाग्रत' का आह्वान तथा 'उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक न रुको' का सन्देश वर्तमान में अनेक शिक्षण संस्थाओं का ध्वजावाहक बनकर युवा पीढ़ी को उर्जस्वित कर रहा है। इतिहास साक्षी है कि स्वामी विवेकानन्द ने भारत और भारतीय संस्कृति को सूक्ष्म रूप में जानने और समझने के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उन्होंने पश्चिम से स्पष्ट कहा कि वैचारिक स्पष्टता, सहनशीलता और दूरदर्शिता का जितना विस्तृत क्षितिज हिन्दू धर्म के पास है, वह और किसी मत-पंथ से इसका अवलोकन नहीं करते। स्वामी जी का वैचारिक मंथन इस सत्यता को स्पष्ट उजागर करता है कि उन्होंने अपनी स्पष्ट सोच और भावी दृष्टि की मथानी से उपनिषदों और वेदान्त को इतना मथा कि उनकी इस प्रक्रिया से हिन्दू धर्म आधुनिकता के बहुत समीप दिखाई देने लगा। उनका दृढ़ विश्वास था कि यह हिन्दू धर्म का सार्वभौमिकवाद ही है, जो भारत को विश्व में विशिष्ट श्रेणी में लाकर रखता है।
स्वामी विवेकानन्द का वैचारिक क्षितिज बहुत विशाल था। उन्होंने वेदान्त व उपनिषद के सिद्धान्तों को भारतीय संस्कृति एवं भारतीय चरित्र के स्वाभाव के अनुकूल बनाकर प्रस्तुत किया। वैसे तो स्वामी जी ने धर्म, दर्शन, संस्कृति, राजनीति, भारत, भारतीयता, अध्यात्म व स्त्री इत्यादि के साथ-साथ अनेक गूढ़ विषयों पर अपनी अभिव्यक्ति दी। परन्तु स्वदेशी परिप्रेक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय शिक्षा पर जो अपने विचार उन्होंने प्रस्तुत किये, वह निश्चित ही अद्वितीय हैं। नि:सन्देह स्वामी जी एक गहन चिन्तक ही नहीं थे, वे इस देश के प्रमुख वैचारिक सुधारक भी थे। शिक्षा से उनका सीधा अर्थ व उद्देश्य 'मानव निर्माण' से था। जरा ध्यान दें कि यह उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वाद्ध था जब स्वामी विवेकानन्द ने यह अनुभव किया कि सम्पूर्ण मानवता एक संकट के दौर से गुजर रही है। मानव की वैज्ञानिक और मशीनीकृत जीवनशैली उसे स्वयं को एक मशीन बना रही है। जीवन के नैतिक और धार्मिक मूल्य रसातल में जा रहे हैं। सभ्यता के बुनियादी सिद्धान्त विस्मृत किये जा रहे हैं। स्वदेशी जीवन के तौर-तरीकों, आदर्शों के मध्य संघर्ष ने वातावरण दूषित कर दिया है। जीवन जीने के विगत व्यवहार प्रतिमानों को नकारने की आदत एक फैशन का रूप लेती जा रही है। उनका स्पष्ट मत था कि इन समस्त सामाजिक और वैश्विक बुराइयों को दूर करने का साधन व समाधान केवल भारतीय शिक्षा के पास ही है।
शिक्षा का उद्देश्य
स्वामी जी ने स्पष्ट संकेत दिया कि आज की शिक्षा का दोष यह है कि इसके पास वर्तमान में कोई लक्ष्य नहीं है। स्वामी जी ने अपने शब्दों व अपनी कर्म साधना से यह संदेश दिया कि शिक्षा का तात्पर्य मनुष्य का निर्माण है। वे वेदान्त के दर्शन के माध्यम से मनुष्य के निर्माण की योजना बनाना चाहते थे। शिक्षा को केन्द्र में रखकर वेदान्त कहता है कि मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसकी आत्मा में निवास करता है। अपने इस वेदान्त दर्शन के सन्दर्भ में स्वामी जी का स्पष्ट मत है कि शिक्षा मनुष्य में पूर्व से छिपी प्रतिभा की अभिव्यक्ति है। शिक्षक को छात्र की इस आन्तरिक प्रतिभा को पहचानकर उसके आन्तरिक स्वत्व को जगाना होगा। परन्तु उन्होंने यह भी संकेत दिया कि शिक्षा के इस उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए गुरु को अपनी साधना के माध्यम से छात्र के अहंकार, अज्ञानता और उसकी कृत्रिम अस्मिता को समाप्त करना होगा। इस प्रकार स्वामी जी का शिक्षा से तात्पर्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के संगम से निर्माण होने वाले मानव से है। स्वामी जी ने अपनी शैक्षिक योजना में छात्र के श्रेष्ठ शारीरिक स्वास्थ्य को शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग बताया है। उनका मानना है कि एक स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ शरीर में ही निवास करता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि जो शारीरिक रूप से निर्बल हैं उनको स्व (सेल्फ) की अनुभूति नहीं हो सकती। परिणामत: उन्होंने शारीरिक संस्कृति के साथ में मस्तिष्क की संस्कृति के समन्वय पर भी बल दिया है। इन दोनों संस्कृतियों (शरीर और मस्तिष्क) के समन्वय को स्थायी रूप देने के लिए उन्होंने छात्र के मस्तिष्क को ध्यान के केन्द्रीकरण और नीतिगत शुद्धता के बार-बार अभ्यास करने पर भी बल दिया है। जहां तक ज्ञान को शिक्षा से सम्बद्ध करने का प्रश्न है तो इस मुद्दे पर स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि मानव शिक्षा केवल सूचनाओं के एकत्रीकरण का केन्द्र नहीं है, बल्कि यह तो जीवन का गहन प्रशिक्षण है।
शिक्षा प्राप्त करने की विधि
शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों के बाद अब अगला प्रश्न उठता है कि शिक्षा प्राप्त करने की विधि क्या हो? वेदान्त के आधार पर स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि ज्ञान प्रत्येक मनुष्य की आत्मा में समाहित है। यह शिक्षक का दायित्व है कि वह इस ज्ञान को प्राप्त करने के मार्ग की बाधाओं को दूर करे। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द भूमि में लगे उस पौधे की बढ़त का उदाहरण देते हुये कहते हैं कि 'माली का कार्य केवल उस पौधे को वायु, जल व पोषण उपलब्ध कराना होता है, उसमें बढ़त तो उसमें छिपी शक्ति के ही माध्यम से ही होती है। ठीक यही प्रक्रिया बालक के सम्बन्ध में भी लागू होती है।' वेदान्त के शैक्षिक सन्दर्भ से भी आगे बढ़कर उन्होंने बालक को मिलने वाले उस वातावरण पर भी प्रमुख जोर दिया है। उनका यह भी मत है कि बच्चे के विधिवत् विकास के लिए घर और स्कूल का वातावरण श्रेष्ठ बने। बच्चे के माता-पिता के साथ शिक्षक भी बच्चे को प्रेरणा दें। ताकि वह जीवन के उच्च लक्ष्यों को तय कर सके। स्वामी जी स्वीकार करते हैं कि गुरुकुल संस्थायें श्रेष्ठ हैं। इसलिए श्रेष्ठ शिक्षा को प्राप्त करने के लिए ऐसे ही समानान्तर गुरुकुलों के खोले जाने की आवश्यकता है। बालक को श्रेष्ठ शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनका ऐसी ही संस्थाओं में प्रवेश हो ताकि उनमें आदर्श चरित्र का निर्माण हो और वहां से उन्हें श्रेष्ठ 'रोल मॉडल' भी मिल सके।
तीसरे स्तर पर स्वामी जी शिक्षा से जुड़ी अपनी योजना में बच्चे के शरीर, मस्तिष्क और उसकी आत्मा के चहुंमुखी विकास के लिए कुछ प्रमुख विषयों को अपने अध्ययन में सम्मिलित करने की सलाह देते हैं। उन्होंने शारीरिक संस्कृति, सौन्दर्य-बोध, प्राचीन धर्म ग्रन्थ शिक्षा, धर्म-विज्ञान और तकनीक जैसे विषयों के ज्ञान पर बल दिया है। इसके अतिरिक्त उनका यह भी मत है कि देश में स्वधर्म और सांस्कृतिक मूल्यों को भी शिक्षा से जुड़े पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण भाग होना चाहिए। वह इसलिए क्योंकि भारतीय संस्कृति की जड़ें यहां के आध्यात्मिक मूल्यों में समाहित हैं। उन्होंने रामायण, महाभारत, गीता, वेद और उपनिषदों में समाहित समय-सिद्ध मूल्यों को भी पाठ्यक्रम का अंग बनाने पर जोर दिया। वह इसलिए क्योंकि हमारे ये मूल्य विश्व की संस्कृति के साथ सामंजस्य बनाने में सहायक होंगे।
इसके अतिरिक्त महिला शिक्षा भी स्वामी जी की शैक्षिक योजना का प्रमुख अंग रही है। वे सोचते थे कि यदि देश की महिलाएं उचित प्रकार की शिक्षा प्राप्त करती हैं तो वे अपने मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान स्वत: ही ढूंढ लेंगी। स्त्री शिक्षा से उनका तात्पर्य महिलाओं को शक्तिशाली, भयविहीन तथा आत्मसम्मान के साथ जीने के एक सलीके से था।
भौतिक व आध्यात्मिकता का समन्वय
कई बार कुछ लोग स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा से जुड़े विचारों को दोषपूर्ण ढंग से विश्लेषण करने का प्रयास करते हैं। स्वामी जी शिक्षा के माध्यम से होने वाले भौतिक विकास के विरोधी नहीं थे। वरन् उन्होंने भौतिक विकास के साथ आध्यात्मिक विकास से समन्वय रखने पर बल दिया है। उन्हांेने अपने आध्यात्मिक कालखण्ड में सदैव ही गरीबी, अज्ञानता और बेरोजगारी के उन्मूलन की आवश्यकता अनुभव की। उनका विचार था कि हमें तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता इसलिए है ताकि हम अपने उद्योगों का विकास करके उनमें शिक्षित लोगों को स्थापित कर सकें। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि भारत को पश्चिम की सभ्यता से जो श्रेष्ठ है उसको प्राप्त करना चाहिए। हर देश की अपनी एक वैयक्तिक अस्मिता है जो नष्ट नहीं होनी चाहिए।
इसलिए इस सन्दर्भ में स्वामी जी का स्पष्ट विचार था कि देश के सन्तुलित विकास के लिए यह जरूरी है कि हम पश्चिम की गतिशीलता और उनकी वैज्ञानिक अभिवृत्ति को अपने देश की आध्यात्मिकता के साथ समन्वय करें। इसलिए अन्त में उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण शिक्षा योजना इस प्रकार नियोजित होनी चाहिए जो अपने युवाओं को देश की भौतिक प्रगति में सहयोग देने के लिए ही प्रेरित न करे, बल्कि भारत की आध्यात्मिक विरासत का संरक्षण करने के लिए भी दिशा निर्देश करे। उनका विश्वास था कि यदि समाज का सुधार करना है तो वह शिक्षा के आखिरी छोर तक पहुंचने के बाद ही सम्भव है। शिक्षा का तात्पर्य ही यह है कि जिसको प्राप्त करने के पश्चात् मानव अपनी अन्त: मनोभाव के प्रति जाग्रत हो। उनका स्पष्ट मत रहा है कि भारत के सनातन मूल्यों का विज्ञान और तकनीकी की प्रगति से उद्भूत नूतन मूल्यों के साथ सामंजस्य से ही भारत में शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त होगा।
वर्तमान में हम स्वामी विवेकानन्द की 150 वीं जयन्ती मना रहे हैं, निश्चय ही हम स्वामी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व रूपी आइने को सामने रखकर अपनी बहुआयामी राष्ट्रीय व्यवस्था का मूल्यांकन भी करेंगे। साथ ही यह जानने का प्रयास भी करेगें कि देश की आजादी के 65 वर्षों बाद हम स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक व्यक्तित्व और उनके द्वारा दी गयी शिक्षाओं का सार तत्व किस सीमा तक अपनी नीतियों में समाहित कर पाये हैं। हमें यह भी मूल्यांकन करना पड़ेगा कि राष्ट्र की आधार पीठिका बनाने वाली शिक्षा को किस सीमा तक हमने स्वामी जी के वैचारिक ढांचे के अनुसार बनाने का प्रयास किया है। क्या स्वामी जी के द्वारा निर्देशित मानव का निर्माण करने वाली शिक्षा आज अपने उसी वास्तविक रूप-स्वरूप में है? यदि नहीं तो हमें यह भी मूल्यांकन करना पड़ेगा कि किस सीमा तक हमारी शिक्षा छात्र के व्यक्तित्व से कटकर मात्र सूचना एकत्रित करने का साधन बनकर रह गयी है और किस सीमा तक हमारी राष्ट्रीय शिक्षा आध्यात्मिक मूल्यों से अलग होकर बिखर गयी है? असल में ये वे प्रश्न हैं जो 21 वीं शताब्दी के इस कालखण्ड में होने वाले शैक्षिक परिवर्तन के अन्तर्गत उत्तर ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं। सन्दर्भवश स्वामी विवेकानन्द के मानव निर्माण वाले शिक्षा के मॉडल को जब हम वर्तमान में लागू करते हैं तो पता लगता है कि आज भारत की बुनियादी शिक्षा के ढांचे, शिक्षण, प्रशिक्षण, तकनीक तथा सबसे अधिक इसकी गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा है।
मूल्यों–संस्कारों से कटती शिक्षा
देश की आजादी के बाद हमारा यह स्वप्न था कि भारत की बुनियादी शिक्षा अपने राष्ट्र की जड़ों से जुड़ते हुए अपने स्वदेशी मूल्यों, संस्कारों व परम्पराओं का पोषण करेगी। परन्तु यहां राष्ट्रीय विकास हेतु शिक्षा के जिस विदेशी मॉडल का अनुकरण किया गया उससे हमारी मातृभाषा से जुड़ी बुनियादी शिक्षा पृष्ठभूमि में चली गयी और मैकाले शिक्षा पद्धति से जुड़ी अंग्रेजी शिक्षा आत्मसम्मान का साधन बन गयी। पिछले दिनों एक गैर सरकारी संस्था 'प्रथम' द्वारा 'एनुअल स्टेटस ऑफ ऐजूकेशन रपट (असर) 2011-2012' द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि देश में पन्द्रह साल की उम्र में 8वीं कक्षा तक के बच्चे गणित और विज्ञान से जुड़े मूल्यांकन में दक्षिण कोरिया और चीन के दूसरी और तीसरी कक्षा के बच्चों के समान पाये गए। इस रपट में जो संकेत मिले हैं उनसे स्पष्ट होता है कि गांव में तेजी से फैलती अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं के सामने सरकारी प्राथमिक शिक्षाओं की दुर्दशा मन को कचोटती है। जहां तक अंग्रेजी शिक्षा का प्रश्न है वह भले ही आज के युवाओं को 'अंग्रेजीदां' बनाने में सहयोग दे रही हो, परन्तु तथ्य साक्षी हैं कि पिछले दो-तीन वर्षों में परीक्षाओं के दबाव में तथा असफल हो जाने पर देशभर में हजारों बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं।
आज योजनाकारों, शिक्षाविदों एवं नीति-निर्माताओं के सामने यह प्रश्न मुंह बाएं खड़ा है कि बच्चों में आत्महत्या की ये घटनायें मौजूदा शिक्षा प्रणाली अथवा परीक्षा प्रणाली के दोष के कारण हो रही हैं अथवा कोई और कारण है। कटु सत्य यह है कि आज भी शिक्षा वर्षभर की तोता रटन्त पढ़ाई तथा सत्र के अन्त में केवल तीन घण्टे की परीक्षाओं तक सीमित होकर रह गयी है। ऊपर से माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा करने का दबाव भी बच्चों को आत्मघाती बना रहा है। स्वामी विवेकानन्द का विचार था कि 'शिक्षा ऐसी हो जो बालक में छिपी हुयी प्रतिभा को बाहर लाकर उसका देश के आध्यात्मिक मूल्यों से तालमेल बैठाये'। परन्तु वर्तमान में ठीक उलटा घटित हो रहा है। शिक्षा व शिक्षार्थी के मध्य रचनात्मक व व्यावहारिक संवाद कमजोर होकर पाठ्यक्रम से सघन संवाद स्थापित हो रहा है। यही कारण है कि पाठयक्रम का आकार बढ़ रहा है और छात्र लगातार कमजोर व तनावग्रस्त होकर बचपन में ही प्रतिक्रियात्मक होकर आक्रामक बन रहा है। देश में विद्या भारती से जुड़े सरस्वती शिशु मन्दिरों और शैक्षिक संस्थानों ने स्वामी विवेकानन्द सरीखे महापुरुषों के पदचिन्हों पर चलते हुए शैक्षिक वातावरण के निर्माण करने व छात्र-युवाओं के समक्ष पाठ्यक्रम के साथ अपने आचरण को पवित्र बनाने की अलख जगाई है। ध्यान रहे भारतीय शिक्षा पद्धति अंग्रेजी भाषा के खिलाफ नहीं है। परन्तु तकलीफ तब होती है जब अंग्रेजी भाषा अंग्रेजियत को प्राथमिकता देकर छात्र को विनयशील बनाने की तुलना में उसके अहम को पोषित करती है। स्वामी विवेकानन्द हमेशा इस प्रतिमान के विरोध में खड़े रहे। सरस्वती शिशु मन्दिरों द्वारा सम्पोषित शैक्षिक संस्कृति का और अधिक विस्तार हो इसके लिए हमें ऐसे समरुचि संस्कृति के संवाहकों को शक्ति प्रदान करने की महती आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द की 150 वीं जयन्ती पर 'भारत जागो और विश्व जगाओ' का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचे, इसके लिए आवश्यक है कि हमें एक कदम आगे बढ़कर उनकी वैचारिक मशाल को थामकर उसकी वैचारिक श्रंृखला बनायें। ताकि उनकी 'उतिष्ठत जाग्रत' की जीवन दृष्टि भारत के लोगों में पुन: एक आध्यात्मिक वैचारिक क्रान्ति का ही श्रीगणेश न करे, बल्कि भारत को विश्वगुरु की अपनी विस्मृत अस्मिता को एक बार फिर प्राप्त करने हेतु एक नई आशा का संचार भी करे।
(लेखक महाराजा हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद में एसोसियेट प्रोफेसर एवं समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।)
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