भगिनी निवेदिताभारत मां की दत्तक पुत्री
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मृदुला सिन्हा
दार्जिलिंग की उस पुण्य भूमि पर जहां एक विदुषी, संस्कारित और आस्थावान महिला का दाह संस्कार हुआ, श्वेत निर्मल संगमरमर की समाधि विद्यमान है, जिसके नीचे लिखा है-
'यहां चिर शांति में लीन हैं भगिनी निवेदिता, जिन्होंने भारत के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।'
भारत मां की सेवा करते-करते 13 अक्तूबर 1911 वह अशुभ दिन आ गया जब उनके इर्दगिर्द रह रहे लोगों को विश्वास हो गया कि अपना सर्वस्व भारत मां को न्योछावर करने वाली उनकी दत्तक पुत्री अब उनसे विदा ले रही है। परन्तु उस दिव्यात्मा का मन अपने गुरु स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस में अटका हुआ था। उसी समय बेलूर मठ से एक टोकरा फल आए। मानो निवेदिता को प्रसाद मिल गया। उन्होंने जगदीश चन्द्र बसु को निर्देश देते हुए कहा- 'मेरा कालखंड समाप्त हो रहा है। मेरे दिवंगत हो जाने पर मेरा दाह संस्कार ऐसे पर्वतीय स्थल पर किया जाए जहां से पवन देवता के प्रवाह में बहकर मेरी भस्म का कण-कण चारों ओर बिखर कर अपने देश की माटी में सदा सर्वदा के लिए मिल जाए, जिससे कि मैं जगत जननी भारत मां की गोद में पहुंच कर बैठी रहूं।'
भारत मां के प्रति यह आदर भाव और उत्कट भावना थी एक आयरिश लड़की मारग्रेट एलिजाबेथ नोबुल की, जो स्वामी विवेकानंद द्वारा चयनित थी। भारत आने की अपनी उत्कंठा पर स्वामी जी की आज्ञा पाकर भारत आकर भारत मां की दत्तक पुत्री बन अपने गुरु स्वामी विवेकानंद द्वारा दिए गए नाम- 'निवेदिता' से ही प्रसिद्ध हुई। भारत मां की मिट्टी, पानी, हवा और अन्न में वह कौन सा आकर्षण और प्रभाव था कि मारग्रेट, भगिनी निवेदिता के रूप में भारत मां की दत्तक पुत्री बनकर यहीं रह गई। दीन-दुखियों की सेवा, स्त्री-शिक्षा का प्रसार-प्रचार तथा भारत मां की गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए क्या-क्या न किया उसने। कितना कठिन परिश्रम। जीवन ही भारत मां के लिए समर्पित कर दिया। दरअसल 'दत्तक' देने और लेने में शिशु के माता-पिता और उसे दत्तक लेने वाले पति-पत्नी की भूमिका होती है। पर भारत मां की दत्तक पुत्री बनी इस निवेदिता ने तो लंदन में स्वामी विवेकानंद द्वारा भारतीय धार्मिक और अध्यात्मिक बातें सुनकर स्वयं भारत आने का निर्णय लिया था। यानी स्वेच्छा से भारत मां की दत्तक पुत्री बनी थी।
प्रसव पीड़ा से व्यथित उसकी मां मेरी ने अपने पति पादरी सैम्यूल रियमाण्ड के साथ चर्च में जाकर प्रार्थना की थी- 'यदि मेरे गर्भ में पल रही संतान का जन्म सकुशल हो गया तो मैं इसे भगवान के चरणों की सेवा में भेंट कर दूंगी।' 28 अक्तूबर 1867 को मेरी ने एक परम सुंदरी कन्या को जन्म दिया। मारग्रेट अपने पिता की विश्वासपात्र बेटी थी। चर्च की प्रार्थना, पूजन तथा दीन-दुखियों के प्रत्येक सहायता कार्य में वे अपनी बेटी को अपने साथ रखते थे। आगे चलकर उसके पिता बीमार हो गए। मृत्यु का वरण करने से पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी मेरी से कहा- 'मारग्रेट के जीवन में एक बार आह्वान आएगा। जब भगवान की ओर से ऐसी पुकार आए तो उसे रोकना मत। उसके पंख खुल जाएंगे। उसके द्वारा महान कार्य संपन्न होगा।'
जिज्ञासु मन की उड़ान
उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए मारग्रेट का नाम कांग्रीगेशनलिस्ट चर्च द्वारा संचालित हाली फैक्स कालेज में लिखवाया गया। उस कालेज की प्रधानाचार्या कु. लैरेही कर्म-कठोर मत प्रचारिका थीं। मारग्रेट ने कुछ ही काल में साहित्य, कला, विज्ञान और दर्शन शास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन कर डाला। उसके प्रश्न होते थे- 'क्या मृत्यु जीवन का अंत कर सकती है? इस सृष्टि का जन्म कैसे हुआ?'
वह स्वयं अध्ययन कार्य में लग गई। परन्तु उसका जिज्ञासु मन धर्म, सत्य और सृष्टि आदि से जुड़े प्रश्नों पर ही अटका रहता। चर्च की संकीर्णता से वह ऊब गई थी। वह बेचैन रहती। चर्च की ओर भागती। घंटों बैठती। पर उसे राहत नहीं मिलती। उसने बौद्ध धर्म का अध्ययन करना शुरू किया। वह एक ऐसे जीवन दर्शन की खोज में थी जो सर्वव्यापी, विभिन्न मतमतांतरों को आत्मसात करने वाला हो, जिसमें विश्व बंधुत्व का भाव हो, जो मानव मात्र में बंधु भाव जाग्रत करने वाला हो।
इसी खोज की अवधि में स्वामी विवेकानंद से उसका साक्षात्कार 1895 में लंदन में हुआ। और मानो उसकी बेचैनी और खोज को राहत मिल गई। 16 नवम्बर को एक गोष्ठी में स्वामी जी ने कहा- 'जो अनंत है, असीम है वही अभूत है। वही शाश्वत है। उसे छोड़कर संसार की समस्त विषयवस्तु नाशवान है, अस्थायी है, दु:खप्रद है। इस बात को भली प्रकार से समझ लेने के कारण भारत के लोग सांसारिक सुख-भोग को विष की भांति त्याज्य समझकर उसे छोड़ देते हैं तथा परमानंद की खोज में दौड़ते हैं। केवल भारत ही ऐसा देश है, जिसके मानव दर्शन ने इन उदात्त भावनाओं से अनंत होकर पशु-पक्षी आदि सभी में परब्रह्म का दर्शन कर उन्हें गले लगाया है।'
मारग्रेट को अपने मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर मिलने लगे। वह आसानी से किसी से प्रभावित होने वाली युवती नहीं थी। स्वामी जी की विभिन्न गोष्ठियों में उन्हें सुनती, अपने मन में उपजे प्रश्नों के समाधान ढूंढती रही। उसके मन में भारत जाकर भारतभूमि और भारतवासियों को देखने की उत्कंठा जागृत हुई। परन्तु स्वामी जी ने उसे उत्साहित नहीं किया। वे भारत लौट आए। मारग्रेट उन्हें पत्र लिखती रही। भारत बुलाने का आग्रह करती रही। मारग्रेट ने स्वामी जी को लिखा – '……..मुझे स्पष्ट बताने का कष्ट करें कि मेरा जीवन क्या भारत के किसी उपयोग में आ सकता है? मैं जानना चाहती हूं। मेरी इच्छा है कि भारत मुझे जीवन की पूर्णता की शिक्षा प्रदान करे….'।
स्वामी जी का बुलावा
उचित समय और उसके लिए काम की व्यवस्था करके स्वामी जी ने उसे आने का निमंत्रण भेज दिया। 28 जनवरी, 1898 को मारग्रेट भारत मां की गोद में आ गई थी। स्वामी जी ने अपने निमंत्रण पत्र में लिखा था-' '…नि:संकोच भाव से तुम्हें बता रहा हूं कि अब मैं निश्चित इस मत का हूं कि भारत में कार्य की दृष्टि से तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। आवश्यकता एक मनुष्य की नहीं वरन् महिला की है जो सिंहनी के समान हो….कठिनाइयां अनेक हैं। यहां फैली हुई निर्धनता, अंधविश्वास तथा दासता के भाव की तुम कल्पना भी नहीं कर सकती हो। तुम्हें उन अर्द्धनग्न महिलाओं व पुरुषों के बीच में रहना होगा, जिनकी एकान्तिक जीवन व जातिवाद सम्बन्धी धारणायें विचित्र हैं। ….जलवायु भयानक रूप से गर्म है। …..नगरों के बाहर अन्य किसी भी प्रकार की यूरोपीय सुविधाएं प्राप्त न हो सकेंगी। उसके बाद भी यदि तुम कार्य करने का साहस रखती हो तो तुम्हारा स्वागत है। शत बार स्वागत है। ….तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए न कि ….अथवा किसी के आश्रय में …..'।
स्वामी जी ने स्त्री शिक्षा को विस्तार देने का काम उनको सौंप रखा था। कलकत्ता की चौरंगी वाली गली में उनके ठहरने की व्यवस्था की। वहीं उन्हें बंगला सिखाने वाला कोई आने लगा। उनके जहाज से उतरते समय वहां अबोध, निर्धन बालक-बालिकाएं पुष्प लिए मारग्रेट का स्वागत कर रहे थे। आंखों ही आंखों में बातें हुईं। उस दिन मारग्रेट ने अपनी बेलूर डायरी में लिखा- '28 जनवरी 1898 विजयी हो। आज मैंने भारतभूमि का दर्शन किया है।' भागीरथी के किनारे मठ में तीन महिलाओं के साथ मारग्रेट रहने लगीं। 17 मार्च को मारग्रेट की भेंट मां शारदा से हुई। वे सर्वपूज्या थीं। थोड़ी देर दोनों की भेंट-वार्ता हुई। चलते समय मां शारदा ने कहा- 'बेटी! तुम्हें पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई।'
कर्म पथ की ओर
25 मार्च 1898 का दिन मारग्रेट के जीवन का महत्वपूर्ण दिन था। स्वामी जी के संकेत पर उसने पूजा गृह में प्रवेश किया। भगवान शिव की पूजा-अर्चना की। स्वामी जी ने उसके ललाट पर भस्म का टीका लगाया और दीक्षा के उपरांत 'निवेदिता' नाम दिया। आयरिश युवती 'निवेदिता' नाम से भारत मां की दत्तक पुत्री बन गई थी। भगवान शिव की अराधना एवं बुद्ध भगवान के श्री चरणों में मारग्रेट द्वारा पुष्पाञ्जलि चढ़ाये जाने पर रुंधे कण्ठ से स्वामी जी ने उसके भावी जीवन की ओर संकेत करते हुए कहा था- '…..जाओ और उस दिव्यात्मा का अनुसरण करो जिसने दूसरों के कल्याणार्थ बोध प्राप्त करने से पूर्व बार-बार जन्म लेकर पांच सौ बार स्वयं का समर्पण किया…'। भस्म तिलक से विभूषित मारग्रेट ने आगे बढ़कर अपने गुरुदेव के चरणों में पुष्पाञ्जलि समर्पित की तथा मठ 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय……' के मधुर उच्चारण से गूंजने लगा।
उसे भारत के कण-कण से परिचित होना था। इसलिए स्वामी जी उसे पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण और मध्य भारत के दर्शन के लिए अपने साथ ले गए। निवेदिता ने अपने प्रवास में भारत के वैभव-गरीबी, शिक्षा-अशिक्षा, नदी-पहाड़ और सांस्कृतिक धरोहरों के दर्शन किए। वह दीन-दुखियों की सेवा भी करने लगी। कलकत्ता में प्लेग महामारी के प्रथम प्रकोप के दिनों में जब लोग अज्ञात मृत्यु के भय से आतंकित होकर घर छोड़कर भाग रहे थे, सफाई करने वाले उपलब्ध न होते थे, उन दिनों में निवेदिता ने हाथ में फावड़े लेकर बाग बाजार की उपेक्षित गलियों की सफाई की थी। उनके उदाहरण ने अनेक तरुणों को लज्जित करके उनकी सहायता करने के लिए विवश कर दिया था।
जिस देश और समाज के लिए उन्हें काम करना था, उन्हें अपनी आंखों से देखना जरूरी था। स्वामी जी का मत था कि निवेदिता व्यक्तिनिष्ठ नहीं वरन् तत्वनिष्ठ बने। वे उन्हें भारत की वन्दनीय सेवा में लगाना चाहते थे। इसके लिए जरूरी था भारतीय जीवनादर्शों का साक्षात्कार, उनकी अनुभूति तथा उनके प्रति एकात्म भाव एवं गौरव भाव। निवेदिता देश यात्रा पर निकल गईं। उत्तरी भारत की यात्रा प्रारंभ हुई। वे बिहार, उत्तर प्रदेश की धरती को पार करती हुईं हिमालय की गोद में पहुंच गईं। राह में स्वामी जी इतिहास के पन्ने पलटते रहे। निवेदिता सुनती और गुनती रहीं।
सेवा का प्रशिक्षण क्षण–क्षण
13 मई, 1898 को यात्री दल काठगोदाम पहुंच गया। नैनीताल, नैना देवी का दर्शन। फिर अल्मोड़ा पहुंचे। इस यात्रा का वर्णन करते हुए निवेदिता ने 'नोट्स ऑफ सम वॉन्डरिंग विद स्वामी विवेकानंद' में लिखा है- 'अल्मोड़ा से मुझे अनुभव होने लगा मानो मेरा स्कूल जाना प्रारंभ हो गया है। ठीक उसी भांति जैसे किसी छात्र को विद्यालय जाना अटपटा लगता है, यहां भी मुझे कष्ट की अनुभूति हुई, परन्तु दृष्टि का अन्धापन तो नष्ट होना ही चाहिए। मस्तिष्क के गुरुत्वाकर्षण केन्द्र का परिवर्तन आवश्यक है।' अल्मोड़ा के प्रवास में भगिनी निवेदिता का अच्छा प्रशिक्षण हुआ। स्वामी जी उसके अंदर अपने को स्वामी जी की सर्वश्रेष्ठ शिष्या होने के अहंकार को कुचलने की कोशिश करते रहे। निवेदिता को दु:ख होता, पर वह पीछे लौटना नहीं चाहती थी। कश्मीर, अमरनाथ के दर्शन के उपरांत भवानी का दर्शन किया। उसके बाद स्वामी जी अद्भुत साधनालोक में आत्मविभोर रहते थे। यात्री दल कलकत्ता लौटा। निवेदिता को वह सीख, दृष्टि और शक्ति मिल गई थी, जिसे लेकर उन्हें सेवा कार्य में जुटना था। वह कलकत्ता पहुंचकर जुट गईं अपने काम में।
स्वामी जी का स्पष्ट मत था – 'महिलाओं का उत्थान तथा जनमानस की जागृति पहले होनी चाहिए तभी देश का भला होगा।'
भगिनी निवेदिता ने बेलूर पहुंच कर नारी शिक्षा का कार्य हाथ में ले लिया। काली पूजा के दिन कार्य प्रारंभ तो हुआ, पर लड़कियों को इकट्ठा करना बड़ा चुनौती भरा कार्य था। उन दिनों एक विदेशी महिला को कोई अपने घर में प्रवेश नहीं करने देता था। अंतत: अपने मधुर स्वभाव के कारण वे कट्टरवादियों को भी अपने पक्ष में ले आईं। स्त्री शिक्षा का उदेश्य भी निर्धारित करना था। वे भारतीय स्त्री के इतिहास से बहुत प्रभावित थीं। उनके अनुसार एक भारतीय नारी की चारित्रिक दृढ़ता और शारीरिक, मानसिक बल के आगे पश्चिम की नारी कहीं नहीं ठहरती थी।
थोड़े ही दिनों बाद धनाभाव के कारण विद्यालय बंद करना पड़ा। धन संग्रह के लिए उन्होंने पश्चिम के देशों का भ्रमण किया। उन्हें कठिन समय में भी अहसास रहता कि 'विजय हमारी होगी, मैं तो भारत मां की संतान हूं।'
भारत लौटने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। उन्होंने सेवा कार्य के लिए भाषण दिया। कहा- 'भारतीय नारी अशिक्षित एवं अत्याचारित है, यह अभियोग किसी भी रूप में सत्य नहीं है। भारतीय नारी का महत्व, चारित्र्य, उसके जातीय जीवन की श्रेष्ठ संपदा है। आडम्बरहीनता ही भारतीय जीवन का वैशिष्ट्य है तथा सभ्यता का श्रेष्ठ लक्षण है।'
सर्वस्व अर्पण
उन्होंने विद्यालय की स्थापना कर दी। स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े विशिष्ट लोग भी उनके आवास पर आकर भावी योजनाओं की चर्चा करने लगे। 4 जुलाई 1902 की रात स्वामी विवेकानंद ने देह त्याग दी। निवेदिता को मानो काठ मार गया। स्वामी जी के मृत शरीर को एक भगवा वस्त्र से ढका। भक्तगण उसी पर फूल चढ़ा रहे थे। उन्हें मुखाग्नि दी गई। निवेदिता ने आंखें बंद कर ली थीं। अचानक एक चिंगारी सी उड़कर उनके पांव पर आई। आंखें खुलीं तो देखा उनके सामने वही भगवा वस्त्र पड़ा था। उसे उठाकर अपने शरीर को लपेट लिया। आंखों से अविरल धार बह चली। उनके अंतर्मन की अभिलाषा पूर्ण हुई थी। भगवा रंग भारत के त्याग-तपस्या और समर्पण की पहचान थी। 'उत्सर्ग' ही स्वामी जी का निर्देश था। निवेदिता ने मां के चरणों में अपने आपको समर्पित कर दिया।
आज जब स्त्री सुरक्षा के उपायों की खोज जोरों पर है, भगिनी निवेदिता के विचारों और कार्यों का मंथन होना चाहिए। उसमें से निकले अमृत का पान समाज को करना चाहिए। यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है कि भारतीय नारी के इतिहास में से ही उसके सुरक्षित और सम्मानित जीवन के लिए उपाय निकलेंगे।
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