May 20, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम Archive

 

by
Jan 19, 2013, 12:00 am IST
in Archive
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

वे विश्व गुरु थे

दिंनाक: 19 Jan 2013 10:07:25

 

नरेन्द्र कोहली

स्वामी विवेकानन्द अथवा बालक नरेन्द्रनाथ दत्त को, उनके माता-  पिता ने काशी-स्थित वीरेश्वर महादेव की पूजा कर प्राप्त किया था। नरेन्द्र के शैशव का दृश्य है कि तीन वर्ष की अवस्था में, वे खेल ही खेल में हाथ में चाकू ले कर, अपने घर के आंगन में उत्पात मचा रहे थे। इसको मार दूं। उसको मार दूं। दो-दो नौकरानियां उनको पकड़ने का प्रयत्न कर रही थीं। और पकड़ नहीं पा रही थीं। अंतत: माता भुवनेश्वरी देवी ने नौकरानियों को असमर्थ मान कर परे हटाया और पुत्र को बांह से पकड़ लिया। स्नानागार में ले जाकर उसके सिर पर लोटे से जल उड़ेला और उच्चारण किया, शिव- शिव। बालक शांत हो गया। उत्पात का शमन हो गया। उस समय तक वे विचारक नहीं थे, साधक नहीं थे, संत नहीं थे, किंतु वे वीरेश्वर महादेव के भेजे हुए थे। उस समय ही नहीं, आजीवन ही वे जब-तब आकाश की ओर देखते थे और उनके मुख से उच्चरित होता था- शिव- शिव। परिणामत: उनका मन शांत हो जाता था। पेरिस की सड़कों पर घूमते हुए भीड़ और पाश्चात्य संस्कृति की भयावहता से परेशान हो जाते थे, तो जेब से शीशी निकाल कर गंगा जल की कुछ बूंदें पी लेते थे। उससे वे हिमालय की शांति और हहराती गंगा के प्रवाह का अनुभव करते थे। स्वामी विवेकानन्द की मान्यता थी कि ज्ञान बाहर से नहीं आता। ज्ञान हमारे भीतर ही होता है। आजीवन उसी सुप्त ज्ञान का विकास होता है। इस प्रकार जन्म के समय नवजात शिशु के भीतर जो संस्कार होते हैं, वे ही उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।

कौन सा भूत ?    

किंतु यह तो उनके शैशव की घटना है। बालक के शांत हो जाने पर मां भुवनेश्री देवी ने मंदिर में जाकर महादेव शिव के सम्मुख माथा टेक दिया, 'हे प्रभु तुम से एक पुत्र मांगा था। तुमने अपना यह कौन सा भूत भेज दिया है।' नरेन्द्र, धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते ही चले गए। सोने से पहले ध्यान करते थे और उन्हें ज्योति-दर्शन होता था। वह उनके लिए इतना स्वाभाविक था कि जिस समय रामकृष्ण परमहंस ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें ज्योति-दर्शन होता है? तो नरेन्द्र ने चकित होकर पूछा था, क्या अन्य लोगों को नहीं होता? तब तक वे यही मानते आ रहे थे कि सोने से पहले सबको ही ज्योति-दर्शन होता है। वह मनुष्य के जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।

 वे ब्राह्म-समाज में जाते थे। भजन-कीर्तन करते थे। ब्राह्म-समाज के नियमों के ही अनुसार, मूर्ति-पूजा में उनका विश्वास नहीं था। संसार के सारे ही माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतानें धार्मिक और ईश्वर-भीरु हों। वे सद्गुरु हों, मंदिर जाएं, पूजा-पाठ करें और सद्गृहस्थ बनें। किंतु नरेन्द्र निरंतर धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते जा रहे थे। सद्गृहस्थ बनने के स्थान पर संन्यासी बनने की दिशा में बढ़ रहे थे। माता-पिता को लगा कि ऐसे तो पुत्र हाथ से ही निकल जाएगा। हाथ में रखने का एक ही उपाय था कि उसका विवाह कर दिया जाए किंतु नरेन्द्र विवाह के लिए तैयार नहीं थे। बहुत प्रयत्न के पश्चात् भी जब माता-पिता सफल नहीं हुए तो उन्होंने रामचंद्र दत्त नाम के, नरेन्द्र के एक मामा से कहा, तुम्हारी बात शायद मान जाए। उसे जरा समझा दो। रामचंद्र दत्त ने नरेन्द्र को पकड़ लिया, क्यों रे, विवाह क्यों नहीं करना चाहता? क्योंकि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं, पत्नी को नहीं। नरेन्द्र का उत्तर था। नरेन्द्र सचमुच ईश्वर को खोज रहे थे। यह खोज इतनी प्रबल थी कि उसके सम्मुख संसार कुछ भी नहीं था।

रामचंद्र दत्त ने विवाह का आग्रह छोड़ दिया। वे नरेन्द्र से सहमत हो गए। बोले, ईश्वर को खोजना है तो फिर इधर-उधर कहां भटक रहा है। … जाकर ठाकुर के चरण पकड़ ले।

नरेन्द्र बहुत सारे संशयों में घिरे, ठाकुर के पास आए और उनके निकट जाकर पूछा, आपने ईश्वर को देखा है? हां। उत्तर मिला, देखा है और तुम्हें भी दिखाऊंगा।

… तो कष्ट पाएगा ही

 नरेन्द्र मानते थे कि यदि ईश्वर है तो उसे देखा भी जा सकता है। यदि ईश्वर है, तो उससे बातें भी की जा सकती हैं। यदि ईश्वर है, तो उसके साथ वैसे ही व्यवहार भी किया जा सकता है, जैसे सामान्य लोगों के साथ किया जाता है। केवल यह मान लेना कि ईश्वर है और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न न करना, सर्वथा अनुचित है।

वे अभी अपने गुरु के पास पहुंचे ही हैं। वहां पहुंच गए हैं किंतु अभी न तो मूर्तिपूजा करते हैं, न मां काली को प्रणाम करते हैं। उनके गुरु-भाई ब्रह्मानन्द, मां काली को प्रणाम करते हैं तो नरेन्द्र उन्हें डांटते हैं। उन दोनों ने एक साथ ही ब्राह्म-समाज के शपथ पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। विचित्र स्थिति है, जिन्हें गुरु मान रहे हैं, उनका विरोध भी कर रहे हैं। उनकी आराध्या के सम्मुख झुकते नहीं। उन्हें प्रणाम नहीं करते। एक दिन रुष्ट होकर गुरु डांट देते हैं, जब तुझे मेरी बात नहीं माननी तो मेरे पास क्या करने आता है ? नरेन्द्र का उत्तर था, आपसे प्रेम करता हूं, इसलिए आता हूं। क्या आवश्यक है कि आपकी बात भी मानूं? अर्थात् प्रेम आवश्यक है, आज्ञापालन नहीं। किंतु प्रेम ही आज्ञा पालन भी सिखा देता है। वह समय भी आया।

पिता का देहांत हो गया। घर में निर्धनता आ गई। नरेन्द्र अपनी माता और दो छोटे भाइयों के भरण-पोषण के लिए चिंतित हैं। कोई आजीविका ढूंढ़ रहे हैं। गुरु से भी चर्चा करते हैं। गुरु कहते हैं, तू सब को छोड़ कर मेरे पास आ जा। किंतु नरेन्द्र कैसे आ जाएं। गुरु से कहते हैं, अपनी मां से कहिए कि वे मेरी मां और भाइयों के भरण-पोषण का प्रबंध कर दें। गुरु का उत्तर है, तू जिसके राज्य में रहता है, अर्थात् मां काली की सृष्टि में, उस मां को ही स्वीकार नहीं करता, तो कष्ट तो पाएगा ही। अत: तुझे भी शेष लोगों के समान ही व्यवहार करना पड़ेगा। मां के मंदिर में जा। मैं तुझे वचन देता हूं कि वहां जो कुछ मांगेगा, वह तुझे मिलेगा। नरेन्द्र पहली बार मां के मंदिर में गए। उस समय के उनके अनुभव के विषय में जो वर्णन हमें मिलता है, उसके अनुसार वहां उन्हें मां की जीवन्त उपस्थिति का अनुभव हुआ। मां ने कहा, मांग, क्या चाहिए तुझे। नरेन्द्र ने कहा, मां, भक्ति दो, विवेक दो, वैराग्य दो। लौट कर गुरु के पास आए तो गुरु ने पूछा, क्यों रे, मां से मांग आया अपने परिवार के लिए रोटी, कपड़ा और मकान? नरेन्द्र ने सत्य बता दिया। गुरु ने डपट दिया, यदि तू ही नहीं मांगेगा, तो फिर तेरे लिए कौन मांगेगा? इस प्रक्रिया की तीन बार आवृत्ति की गई और नरेन्द्र ने हर बार भक्ति, विवेक और वैराग्य की ही मांग की। अंत में गुरु के डांटने पर वे भी बिफर गए  समुद्र के सम्मुख जाकर कोई कटोरा भर पानी मांगता है क्या? संसार की स्रष्टा के सम्मुख जा कर मैं कद्दू-कोंहड़ा मांगूंगा? अंतत: गुरु ने ही वचन दिया कि उनके परिवार को मोटे कपड़े और मोटे अन्न का अभाव नहीं रहेगा।

अद्वैत का अनुभव

अब वे मूर्तिपूजा का विरोध नहीं करते। अलवर में राजा मंगलसिंह के सामने मूर्तिपूजा के पक्ष में तर्क भी देते हैं। किंतु लाहौर में लोगों के बहुत आग्रह पर भी वे सनातन धर्म और आर्य समाज के झमेले में नहीं पड़ते, क्योंकि वे समाज को विभाजित करना नहीं चाहते। यह ध्यातव्य है कि आरंभ में मूर्तिपूजक गुरु को स्वीकार कर भी वे मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं। और जब वही गुरु उन्हें अष्टावक्र संहिता के माध्यम से अद्वैत की शिक्षा देते हैं तो अपनी ब्राह्म-समाजी मान्यताओं के कारण उसका भी उपहास करते हैं। गुरु को ज्ञात हो जाता है तो वे अर्द्ध समाधि की अवस्था में नरेन्द्र को छू देते हैं और नरेन्द्र देखते हैं कि सड़क पर चलने वाले तांगे में जुते घोड़े और स्वयं उनमें कोई अंतर नहीं है। थाली में परोसे गए भात और स्वयं उनमें कोई अंतर नहीं है। गुरु ने उन्हें अद्वैत का साक्षात् अनुभव दे दिया था। यह भी कहा था, जिसे तू ब्रह्म कहता है, उसे ही मैं मां कहता हूं। वह निष्क्रियता की स्थिति में ब्रह्म है और सक्रिय होते ही वह मां काली, जगदंबा अथवा प्रकृति का रूप धारण कर लेता है।

गुरु के देहांत के पश्चात् उनके सारे गुरुभाई बिखर गए। वे लोग अपने-अपने घरों को लौट गए। आखिर तो वे स्कूल-कालेजों के छात्र ही थे। नरेन्द्र को गुरु का आदेश था कि वे अपने गुरु भाइयों को संभाल कर रखें। नरेन्द्र उन लोगों को समझाने के लिए उनके घरों में जाते थे, जहां उनका तिरस्कार ही होता था। कहीं कपाट बंद हो जाते थे। कहीं मिलने से इंकार कर दिया जाता था। कहीं अपशब्द कहे गए। वे विभिन्न प्रकार के अपमानजनक व्यवहारों का सामना कर रहे थे। माता भुवनेश्वरी देवी, पुत्र के निरंतर अपमान की पीड़ा से रो पड़ीं, नरेन्द्र, तू इस तिरस्कार और अपमान को क्यों सहन कर रहा है? क्यों जाता है तू उनके घर? नरेन्द्र हंस पड़े, मां, मेरी माया मर चुकी है। व्यक्ति का मान क्या और अपमान क्या? मानापमान होता है देश का, संस्कृति का, धर्म का। यह उन्होंने कहा ही नहीं, अपने जीवन में कर के भी दिखाया। जहां अपने लिए बड़े से बड़े अपमान को चुपचाप पी गए, वहीं अपने देश और धर्म की अवमानना से बिफर उठे और कठोर से कठोर कदम उठाने को तत्पर दिखाई दिए। अमरीका में उन्होंने कहा था, हिंद महासागर के तल में जितना कीचड़ है, यदि वह सारा का सारा भी अंग्रेजों के मुंह पर मल दिया जाए तो ज्यादती नहीं होगी, क्योंकि उन्होंने उससे भी अधिक मेरी मां को कलंकित किया है।

उनकी भाषा नीति

आज भी बहुत सारे लोग पूछ सकते हैं और मेरे मन में भी यह प्रश्न था कि स्वामी विवेकानन्द ने इतना कुछ सोचा, कहा और किया, किंतु देश की स्वतंत्रता के विषय में उन्होंने क्या किया?

स्वामी जी कहते थे जिस दिन तुम अपने चरित्र को उस ऊंचाई पर ले जाओगे, जहां वह था, जब स्वस्थ हो जाओगे, स्वयं में स्थित हो जाओगे, आध्यात्मिक रूप से उतने ही सात्विक हो जाओगे, जितने कभी तुम थे, तो फिर किसी का साहस नहीं होगा कि बाहर से आकर इस देश पर शासन कर सके।

यह जो विश्वास है कि यदि हम अपने चरित्र को सुधार लेंगे, तो कोई विदेशी हमारे देश में शासक के रूप में घुस नहीं पाएगा, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। हम अपने चरित्र को सुधारें, उसको निर्मल करें। ईश्वर को प्राप्त करने का एक ही मार्ग है और वही देश की स्वतंत्रता का मार्ग है। वह है सात्विकता का मार्ग। हम देख रहे हैं कि स्वतंत्र होकर भी हम स्वतंत्र नहीं हो पाए, क्योंकि हम अपने चरित्र को स्वच्छ नहीं कर पाए।

नरेन्द्र सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे कि विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ने के लिए उन्हें चुना गया। वे रो पड़े, जब उनसे पूछा गया कि भई, तुम अंग्रेजी क्यों नहीं पढ़ना चाहते, तो उनका उत्तर था कि क्या मैंने बंगला पढ़ ली, क्या मैंने संस्कृत पढ़ ली कि मैं अंग्रेजी पढ़ने लगूं?

1902 ई. में जब कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में हुआ, तो बंगाल के बाहर के कुछ प्रतिनिधि स्वामी जी से मिलने के लिए गए। उन्होंने अपना वार्तालाप अंग्रेजी में आरंभ किया तो स्वामी जी ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने कहा कि यदि बंगला नहीं बोल सकते, तो हिंदी बोलो। भारत की भाषा हिंदी है। स्वामी विवेकानन्द की भाषा-नीति कुछ इस प्रकार की थी कि पहले मातृभाषा, फिर हिंदी, हिंदी नहीं आती तो संस्कृत और यदि संस्कृत भी नहीं आती तो अंग्रेजी। अंग्रेजी का स्थान, भारत की तीन भाषाओं के पश्चात् है। विद्यालय में पढ़ने वाले बालक के मन में राष्ट्रीयता का यह भाव था। उसकी ओर ध्यान दिया जाए तो समझ में आता है कि उनका चरित्र क्या था।

कन्याकुमारी की घटना उनके जीवन की एक प्रसिद्ध घटना है, जो उनकी जीवनी में बहुत महत्वपूर्ण ढंग से आती है। वे समुद्र में तैर कर श्रीपाद शिला तक पहुंचे थे। उन्होंने वहां तीन दिन और तीन रातें व्यतीत कीं। कहा जाता है कि वहां उनका अधिकांश समय समाधि में बीता। समाधि की अवस्था में उन्होंने जो कुछ देखा और अनुभव किया, वह या तो वे जानते हैं या फिर ईश्वर। हम तो वह ही जानते हैं, जो कुछ उन्होंने हमें बताया। उन्होंने बताया कि उन्होंने देखा कि जगदंबा और भारतमाता में कोई अंतर नहीं है। जगदंबा की पूजा और भारतमाता की पूजा में कोई अंतर नहीं है। भारत माता की सेवा ही जगदंबा की सेवा है। इससे हम उनकी राष्ट्रीय भावना को समझ सकते हैं। उनकी भाषा नीति भी उसी का अंग है।

ये पैसा लौटा दीजिए

विदेश जाने से पूर्व स्वामी जी एक अज्ञात परिव्राजक के रूप में सारे देश में घूम रहे थे और लोगों से विभिन्न प्रकार की चर्चा कर रहे थे।  स्वामी जी के शिष्यों ने उन्हें अमरीका जाने को प्रेरित किया, किंतु उनमें से किसी के पास भी धर्म-संसद में भाग लेने का निमंत्रण नहीं था। यह सूचना भी किसी को नहीं थी कि उसकी तिथि क्या है, उसमें प्रवेश की शर्ते क्या हैं, विधि क्या है, उसका आयोजन कौन कर रहा है, कहां जाना है, किससे संपर्क करना है, किसी को कुछ भी पता नहीं था। लोगों ने उनके अमरीका जाने के लिए कुछ धन भी एकत्रित कर लिया था। किंतु स्वामी जी का मन नहीं माना। उन्होंने कहा कि इस देश के ये धनी-मानी लोग, राजा-महाराजा, इनमें से किसी के भी मन में निर्धन असहायों के लिए करुणा नहीं है। यह धन भी धर्म का नहीं, अधर्म का है। ये पैसे लौटा दीजिए। मैं इस पैसे से अमरीका जाना नहीं चाहता। अधर्म के पैसे से धर्म कमाने के लिए नहीं जाऊंगा। किंतु राजा अजितसिंह के लिए उनकी मान्यता कुछ और ही थी। स्वामी ने स्वयं कहा था कि अजितसिंह और मैं एक आत्मा और दो शरीर हैं। यदि अजितसिंह न होते तो जितना काम मैंने किया है, उसका आधा भी नहीं कर पाता। एक अजितसिंह ही हैं, जिनका धन मैं मांग सकता हूं, उसका उपयोग कर सकता हूं। परिणामत: उन्होंने राजा अजितसिंह के धन से ही अमरीका की यात्रा की। वे आवश्यक सूचनाओं के बिना ही अमरीका जा पहुंचे थे।

धर्म संसद में तीन बार नाम पुकारे जाने पर स्वामी जी बोलने के लिए उठे। पहले दिन उन्होंने केवल अपना परिचय दिया। कहा, मैं उस देश से आया हूं, जहां यह माना जाता है कि जैसे किसी भी उद्गम से आरंभ होकर और किसी भी मार्ग से चल कर संसार की सारी नदियां समुद्र में ही समाती हैं, वैसे ही  हे प्रभु, कोई किसी भी प्रकार के उलटे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े मार्ग से उपासना करे, अंतत: वह तेरे ही चरणों में पहुंचता है। मैं उस धर्म का प्रतिनिधि हूं, बौद्ध धर्म जिसका एक अंग मात्र है। मैं उस देश से आया हूं, जिसने यहूदियों को उनके संकट में आश्रय दिया। हमने पारसियों को नष्ट होने से बचा ही नहीं लिया, उनका पोषण भी किया। मैं उस देश का नागरिक होने पर गर्व करता हूं।

यह उनका ढाई मिनट में दिया गया, आत्म-परिचय मात्र था। उनका मुख्य भाषण उस दिन नहीं था। वह हिंदू धर्म पर एक निबंध था, जिस में उन्होंने हिंदू धर्म का परिचय दिया था। हिंदू धर्म का स्वरूप क्या है, हिंदू होने का अर्थ क्या है। किसी एक ग्रंथ, किसी एक मूर्ति, अथवा किसी एक व्यक्ति पर ईमान ले आना हिंदू होना नहीं है। हिंदू यह नहीं कहता कि केवल उसी का उद्धार होगा, केवल वही ईश्वर को प्राप्त करेगा। हम मानते हैं कि कोई भी व्यक्ति जो अपने ढंग से उपासना करता हुआ, अपना विकास करता हुआ, मानवता की सेवा करता हुआ, सात्विक और निर्मल होता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता है, अंतत: ईश्वर को प्राप्त करता है। हिंदू होने का अर्थ है, निरंतर ईश्वर को जानने का प्रयत्न करना, उसके निकट जाने का प्रयत्न करना, उसके समान होने का प्रयत्न करना और अंतत: वही हो जाना। इस प्रकार का निरंतर संघर्ष हिंदू की उपासना है।

पहले ही दिन उस धर्म-संसद में जो कुछ हुआ, वह आप जानते हैं। स्वामी जी ने वहां संबोधन करते हुए कहा, 'माई अमेरिकन ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स' और श्रोताओं ने न केवल तालियां बजा कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की, वे एक प्रकार के आवेश में पागल हो कर तालियां बजाते ही चले गए।

व्यक्ति की साधना

अमरीकियों ने किसी वक्ता के मुख से कभी 'ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स' संबोधन नहीं सुना था, इसलिए उन्होंने इतनी तालियां बजाईं। मुझे नहीं लगता कि यह ठीक विश्लेषण है। वहां जो लोग उपस्थित थे, उन्होंने बताया है कि स्वामी जी के बोलते ही जैसे उनके शरीर में विद्युत की एक धारा प्रवाहित हो गई। शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। उसका कारण स्वामी जी के शब्द नहीं, उनकी साधना थी। शब्द तो साधारण ही होते हैं किंतु उनका प्रयोग करने वाले व्यक्ति की साधना उन्हें असाधारण बना देती है। यह तो स्वामी जी की साधना का प्रभाव था कि लोग उनका संबोधन सुनते ही इस प्रकार अपना आपा खो बैठे। पहली बार ऐसा हुआ कि ईसाई पादरी उनको जो कुछ पढ़ाया करते थे, उससे कुछ भिन्न घटना घटी। अध्यात्म का वास्तविक रूप उनके सामने आया। उस अनुभूति से ही लोग उत्फुल्ल हो उठे थे। अध्यात्म के इसी रूप को स्वामी जी ने निरंतर विकसित किया।

स्वामी विवेकानन्द के संदर्भ में शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। वे चरम कोटि के 'महत्वाकांक्षी' थे और अपने देश को तथा देश के युवाओं को भी 'महत्वाकांक्षी' बनाना चाहते थे। किंतु उनके संदर्भ में महत्वाकांक्षा का अर्थ अपने महत्व की आकांक्षा न होकर, 'महत् आकांक्षा' हो जाता है। अपने महत्व की आकांक्षा तो एक तुच्छ लक्ष्य है। वे चाहते थे कि देश के युवा, ऊंचे स्वप्न देखें, महान् कार्य करें, अपनी तुच्छताओं से ऊपर उठें, अपने बंधन तोड़ें। विराटता की ओर बढ़ें, अपनी दिव्यता को पहचानें। जिस व्यक्ति के रूप की प्रशंसा विश्व भर में होती रही और जिसको देख कर अमरीकी सुंदरियां पागलों के समान उसकी ओर उमड़ पड़ीं, उस व्यक्ति का कभी विवाह नहीं हुआ। हुआ नहीं, या किया नहीं? अपने मामा को तो उन्होंने कहा ही था कि वे ईश्वर को खोज रहे थे, पत्नी को नहीं।— एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा, मैंने जन्म इसलिए नहीं लिया कि विवाह कर बच्चे पैदा करूं और कोई छोटी-मोटी नौकरी कर, उनका पेट पालूं। मैं कुछ और करने के लिए आया हूं। जिस व्यक्ति के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ग्रीक भाषा के अध्यापक और पुरातत्ववेत्ता प्रो. जॉन हैनरी राइट ने लिख कर दिया कि मैं उस विद्वान को आपके पास भेज रहा हूं, जो अमरीका के सारे विद्वानों को मिला कर उनसे बड़ा विद्वान है, उसको एक साधारण-सी नौकरी नहीं मिली। मिली नहीं या की नहीं? जब हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने उनके लिए आजीवन प्राच्य दर्शन की पीठ का पद प्रस्तावित किया तो उन्होंने उसको यह कह कर तिरस्कृत कर दिया कि संन्यासी को संसार का कोई पद नहीं चाहिए। वे स्वभाव से जन्मजात शिक्षक थे, किंतु उस क्षमता का उपयोग किसी एक संस्था में नौकरी के लिए न कर, वे संसार को शिक्षा देने में कर रहे थे। वस्तुत: वे विश्व-गुरु थे।

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

Army Organized mega medical camp

भारतीय सेना का मानवीय कदम: ऑपरेशन सिंदूर के बाद बारामुल्ला और राजौरी में निःशुल्क चिकित्सा शिविर

Nitasha Kaul OCI Card Canceled

कौन हैं निताशा कौल और क्यों हुआ उनका ओसीआई कार्ड निरस्त?

Indian Airforce on mission mode

‘विश्व की पुकार है ये भागवत का सार कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है’, भारतीय वायुसेना ने शेयर किया दमदार वीडियो, देखें

पर्यावरण संरक्षण गतिविधि की कार्यशाला

India Pakistan Border retreat ceremony started

भारत-पाकिस्तान के बीच सामान्य हो रहे हालात, आज से फिर शुरू होगी रिट्रीट सेरेमनी

Singapor Doctor punished for commenting on Islam

सिंगापुर: 85 वर्षीय डॉक्टर ने सोशल मीडिया पर इस्लाम को लेकर की पोस्ट, अदालत ने ठोंका S$10,000 का जुर्माना

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

Army Organized mega medical camp

भारतीय सेना का मानवीय कदम: ऑपरेशन सिंदूर के बाद बारामुल्ला और राजौरी में निःशुल्क चिकित्सा शिविर

Nitasha Kaul OCI Card Canceled

कौन हैं निताशा कौल और क्यों हुआ उनका ओसीआई कार्ड निरस्त?

Indian Airforce on mission mode

‘विश्व की पुकार है ये भागवत का सार कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है’, भारतीय वायुसेना ने शेयर किया दमदार वीडियो, देखें

पर्यावरण संरक्षण गतिविधि की कार्यशाला

India Pakistan Border retreat ceremony started

भारत-पाकिस्तान के बीच सामान्य हो रहे हालात, आज से फिर शुरू होगी रिट्रीट सेरेमनी

Singapor Doctor punished for commenting on Islam

सिंगापुर: 85 वर्षीय डॉक्टर ने सोशल मीडिया पर इस्लाम को लेकर की पोस्ट, अदालत ने ठोंका S$10,000 का जुर्माना

Administartion buldozed Illegal mosque

उत्तराखंड: मुरादाबाद-काशीपुर हाईवे पर बनी अवैध मस्जिद और मजारों पर प्रशासन ने चलाया बुल्डोजर

सुप्रीम कोर्ट

‘भारत कोई धर्मशाला नहीं’ सुप्रीम कोर्ट का फैसला और केंद्र की गाइड लाइन

Operation sindoor

‘ऑपरेशन सिंदूर रुका है, खत्म नहीं हुआ’, इजरायल में भारत के राजदूत बोले-लखवी, हाफिज सईद और साजिद मीर को सौंपे पाकिस्तान

‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद बलूच लड़ाकों ने पाकिस्तानी फौज पर हमले तेज कर दिए हैं

अत्याचार का प्रतिकार, हमले लगातार

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies