कठोर दण्ड का प्रावधान जरूरी, पर सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण से ही खत्म होगा व्यभिचार-डा.सतीश चन्द्र मित्तल
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कठोर दण्ड का प्रावधान जरूरी, पर सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण से ही खत्म होगा व्यभिचार-डा.सतीश चन्द्र मित्तल

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Jan 12, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Jan 2013 15:03:34

 

गत 16 दिसम्बर को देश की राजधानी दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की वीभत्स, दिल दहलाने वाली तथा अत्यंत नीचतापूर्ण घटना पर जनता विशेषकर युवाओं का आक्रोश स्वाभाविक है। यह जहां जनभावनाओं के प्रकटीकरण तथा भविष्य के लिए चिंता है, वहीं पुलिस की निष्क्रियता तथा उत्तरदायित्व के प्रति लापरवाही तथा देश की सत्ता में पर बैठे नेताओं की संवेदनहीनता, उदासीनता तथा उपेक्षा का भी परिचायक है। हजारों की संख्या में युवक-युवतियों का नि:स्वार्थ आक्रोश प्रदर्शन भारत की सांस्कृतिक भावना के अनुकूल है। स्वामी विवेकानंद ने भारत की मातृशक्ति को विदेशों के विपरीत श्रेष्ठतम स्थान दिया है। उन्होंने भारतीय मातृशक्ति को समाज का मूल आधार, संस्कारों का सर्वोत्तम स्थल, संस्कृति का संरक्षक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की अनुक्रमणिका तथा राष्ट्र का सर्वोत्कृष्ट मापक यंत्र माना है। अत: देश में बढ़ती बलात्कार की घटनाओं से अपमानजनक तथा शर्मिंदगी से भरी स्थिति क्या और कोई हो सकती है?

देश के नेतृत्व के लिए यह और भी शर्म की बात है कि जब देश के युवा भारत की महिलाओं की रक्षा के लिए आगे आते हैं तो उनका स्वागत अश्रू गैस के गोलों, पानी की बौछारों, लाठियों के प्रहारों तथा युवतियों के साथ धक्का-मुक्की से किया जाता है। सात दिनों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद देश के प्रधानमंत्री अपना मौन तोड़ते हैं। देश के गृहमंत्री प्रदर्शनकारियों की तुलना माओवादियों से करते हैं। कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने बारह दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ी। देश का न कोई नेता इन नेतृत्वहीन युवकों को समझाने का प्रयास करता है, न कोई उस अनैतिक घटना के फलस्वरूप अपनी गद्दी छोड़ने को तैयार हुआ। संभवत: वे इस झूठे अहंकार से वशीभूत है कि उन्हें तो 'संसद का बहुमत प्राप्त है।'

पाश्चात्य का प्रभाव, भारतीयता का अभाव

भारत के जनता की बलात्कारियों को फांसी देने की मांग उचित है, परंतु इसे भारत के ऐतिहासिक तथा संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। भारतीय संविधान का सम्मान करते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि वह पूर्णत: पाश्चात्य विचारों की नकल है तथा इसमें भारतीय संस्कृति का पूर्णत: अभाव है। स्वतंत्रता के पश्चात जहां देश में राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ा, वहीं सांस्कृतिक जागृति तथा सामाजिक प्रेरणा की गति धीमी हो गई। पाश्चात्य अंधानुकरण तथा उसकी भौंडी नकल को प्रोत्साहन मिला। आशा के विपरीत देश की संस्कृति राष्ट्र की स्वामिनी बनने की बजाय राजनीतिक तंत्र की चेरी (गुलाम) बन गई। धर्म का विचार 'सेकुलर' के मायाजाल में फंस गया। देश के संविधान को धता बताकर पंथनिरपेक्ष का अर्थ स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने धर्मनिरपेक्ष के रूप में प्रचारित किया। आधुनिकीकरण के नाम पर पाश्चात्य अंधानुकरण को बढ़ावा दिया गया।

भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन रचना में संस्कारों बहुत महत्व दिया गया है। व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में पारिवारिक संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका स्वीकार की गई है। व्यक्ति की रचना में पांच 'प' कारों अर्थात पालना, पाकशाला, पाठशाला, पुस्तकें तथा पावन स्थलों के भ्रमण को महत्वपूर्ण माना गया है। अत: भारत में परिवार तथा कुटुम्ब का व्यक्ति की जीवन रचना में अत्यधिक योगदान रहा है। जीवन के हर कदम पर त्याग, आत्मसंयम, ब्रह्मचर्य पालन, अनुशासन आदि का स्मरण कराया जाता रहा है। असंतुलित पाश्चात्यकरण की दौड़ में ये व्यवस्थाएं पिछले तीस-चालीस वर्षों से तेजी से विकृत होती जा रही हैं। इतना ही नहीं तो समलैंगिकता तथा 'लिव इन रिलेशनशिप' आदि अनेक अनैतिक धारणाओं का पोषण भी मिल रहा है। विचारणीय है कि यह दिशा क्या व्यभिचार अथवा बलात्कार को प्रोत्साहन नहीं देगी? इसलिए आवश्यक है कि परिवार संस्कार का पुन: केन्द्र बने।

शिक्षा और विरोधाभास

सांस्कृतिक संस्कारों का दूसरा प्रमुख स्वरूप हमारे विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय हैं। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति निर्माण, चरित्र निर्माण तथा राष्ट्र निर्माण बताया गया है। शिक्षा के माध्यम से मनोवैज्ञानिक स्तर पर सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन का बोध आवश्यक है। डा.राधाकृष्णन जैसे महान शिक्षाविद् ने विश्वविद्यालयों का उद्देश्य देश के युवकों को राष्ट्र का नेतृत्व करने हेतु तैयार करना बताया है। क्या हमारे विश्वविद्यालय राष्ट्र को सांस्कृतिक तथा नैतिक क्षेत्रों में नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम हैं? इन 30-40 वर्षों में भारत में सांस्कृतिक तथा नैतिक जीवन मूल्यों का अवमूल्यन तीव्र गति से हुआ है। इसमें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, भौंडे तथा शर्मनाक विज्ञापनों, एक ही दिन में करोड़ों का व्यापार करने वाली फिल्मों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम नग्न प्रदर्शनों की भूमिका बढ़ी है। क्या यह एक बड़ी विडम्बना नहीं है कि विद्यालयों में एक तरफ नारी के प्रति मातृवत सम्मान तथा श्रद्धा का पाठ पढ़ाया जाता है वहीं दूसरी तरफ चलचित्रों तथा टीवी में कला के नाम पर नारी की देह को अश्लील रूप में प्रस्तुत किया जाता है? नई पीढ़ी और युवा होते तरुण भ्रमित हैं कि किसे ठीक मानें? क्या इनमें एकरूपता नहीं होनी चाहिए?

अंग्रेज पुलिस और न्याय व्यवस्था

यद्यपि भारतीय संविधान में व्यभिचार अथवा बलात्कार जैसी दुष्ट प्रवृति तथा जघन्य अपराधों के लिए दण्ड के अनेक प्रावधान  हैं, परंतु यह कहने में जरा भी संदेह नहीं है कि भारत की व्यवस्था स्वतंत्रता के पश्चात भी पुराने घिसे-पिटे ब्रिटिश ढांचे पर आज भी खड़ी है। जबकि यह आज ब्रिटेन में भी असफल तथा कालबाह्य हो चुकी है। भारतीय पुलिस व्यवस्था 1829 में राबर्ट पील के ब्रिटेन में सुधारों के आधार पर खड़ी की गई थी। जलियांवाला हत्याकांड के दोषी तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ डायर ने भारत के पुलिस विभाग को भ्रष्ट तथा अयोग्य बताया था। इसे शेखी बघारने वाली और निर्दयी कहा। गैरकानूनी लाभ उठाना, निर्दोर्षों पर झूठे आरोप लगाकर फंसाना, आरोपियों को यातनाएं देना, क्रूरतापूर्वक व्यवहार इसकी विशेषताएं बताईं। भारत की आजादी के बाद अनेक बार पुलिस तथा जेल सुधारों के लिए आयोग बैठे पर व्यवस्था अभी भी वही है। 1838 में लार्ड मैकाले द्वारा तैयार 'इंडियन पीनल कोड', जो 1860 तक ब्रिटिश टावर हाउस के सरकारी गोदाम में सड़ता रहा, ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद सीधे 1861 में भारतीयों के दमन, दहशत तथा दबाव पैदा करने के लिए लागू किया गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि 1835 तक भारतीय न्यायालयों (पंचायतों) में विभिन्न विवादों के निपटारे में संस्कृत ग्रंथों को भी प्रस्तुत किया जाता था। मनु स्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र से लेकर शिवाजी तथा महाराजा रणजीत सिंह भी न्याय का आधार होते थे। परंतु आज अंग्रेजों की न्याय प्रणाली ही मामूली संशोधनों के साथ देश के कानून का मूल आधार बनी है। इसमें बलात्कारियों के लिए फांसी का प्रावधान भी नहीं है। स्वतंत्रता के बाद अब न्याय अत्यधिक महंगा, दुरूह तथा लम्बी प्रतीक्षा वाला है। इसलिए न केवल देश की राजधानी दिल्ली में बल्कि भारत के अन्य भागों में भी बलात्कार जैसे भयंकर अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। यदि केवल 2010 से 2012 के आंकड़े देखें तो राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान विभाग (नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो) के अनुसार अकेले दिल्ली में 2010 में 414, 2011 में 569 तथा अक्तूबर 2012 तक 600बलात्कार की घटनाएं हुई हैं, यानी 20 प्रतिशत की वृद्धि। जबकि सजा केवल एक चौथाई को हीे मिल पाई है। 1971 में देशभर में बलात्कार के 2487 मामले दर्ज कराये गये थे जो 2011 में बढ़कर 24,206 हो गए। इससे बड़ी राष्ट्रीय शर्मिंदगी और क्या हो सकती है?

बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को रोकने के लिए कुछ तात्कालिक कानून तथा व्यवस्थाएं आवश्यक हैं, परंतु इसके दूरगामी निराकरण के लिए राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न अंगों-परिवार, शिक्षा, मनोरंजन न्याय तथा शासकीय कानूनों में एकता, समग्रता तथा सामूहिक तालमेल अनिवार्य है। यह मुहिम सांस्कृतिक प्रेम, राष्ट्रीय चेतना तथा देशभक्ति के बिना पूरी तरह सफल नहीं न होगी। इसमें समाज के सभी वर्गों का योगदान चाहिए। बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के विरुद्ध देश के युवाओं-छात्र-छात्राओं ने भारतीय जनमानस को झकझोरा है तथा उनमें पुन: आत्मविश्वास और चेतना जगाई है। मातृशक्ति के सम्मान तथा सुरक्षा के लिए निश्चय ही भारत का समूचा जन समाज उनके साथ खड़ा है। भारत विश्व में अपना स्थान अपनी सांस्कृतिक तथा नैतिक विरासत से ही बना सकता है। आवश्यकता है भारतीय जन समाज में एक सांस्कृतिक क्रांति की, जो सकारात्मक, रचनात्मक, अहिंसात्मक तथा विवेकपूर्ण हो। आवश्यकता है एक इच्छाशक्ति से उसके लिए संघर्ष करने की। आवश्यकता है अपने राष्ट्र की वास्तविक पहचान की। आवश्यकता है भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के पुनर्चिंतन, पुनर्रचना तथा राष्ट्रोत्थान की, तभी भारत बलात्कार जैसे अपराध का स्थायी समाधान खोज पाएगा।

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