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चुनावी राजनीति से कैसे होगा विकास?

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Dec 29, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 Dec 2012 14:38:44

राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक सरकार की लक्ष्य विहीनता और इच्छाशक्ति के अभाव का ही पिटारा साबित हुई। बैठक में केवल 12वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को मंजूर करा लेना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि देश को यह आश्वस्तिपरक संदेश दिया जाना भी आवश्यक है कि देश की आर्थिक खुशहाली के लिए सरकार की दिशा और नीतियां सटीक हैं। लेकिन प्रधानमंत्री ऐसा कोई संकेत देने में पूरी तरह नाकाम रहे। उन्होंने यह संकेत जरूर दिया कि पहले ही महंगाई की लगातार मार झेल रही जनता पर डीजल, केरोसिन में मूल्य वृद्धि का बोझ और बढ़ेगा। घरेलू गैस सिलिंडरों में जबर्दस्त कटौती की घोषणा सरकार पहले ही कर चुकी है, जिसे लेकर पूरे देश में व्याप्त असंतोष सामने आ चुका है। लगता है सरकार आम जन के मुंह का निवाला भी छीनने को आतुर है। हालांकि नकद सब्सिडी की घोषणा करके सरकार ने गरीब हितैषी होने का दिखावा करने की पूरी कोशिश की, लेकिन पहले तो चुनाव आयोग ने ही आचार संहिता के उल्लंघन पर उसे फटकार लगा दी, अब परिषद की बैठक में भी कई मुख्यमंत्रियों ने उस पर सवाल खड़े कर दिए कि सरकार की मंशा वास्तव में गरीबों को लाभ पहुंचाने की नहीं, बल्कि यह योजना आगामी लोकसभा चुनाव जीतने के लिए 'रामबाण नुस्खे' के रूप में सामने लाई गई है। सही भी है, क्योंकि सरकार एक तो हितग्राहियों के बैंक खातों में सीधे सब्सिडी की राशि स्थानांतरित करेगी और दूसरे, वह भी आधार कार्ड धारकों के लिए। क्या सरकार नहीं जानती कि  देश में अभी भी आधे से ज्यादा लोगों के पास आधार कार्ड नहीं हैं, और न ही ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोगों के बैंक खाते हैं? तब प्रथम दृष्ट्या ही यह योजना लोगों को बहकाने का उपक्रम लगती है। इसलिए कुछ राज्य सरकारें यदि इस पर आपत्ति जता रही हैं तो गलत क्या है? उन्हें तो केन्द्र सरकार की नीयत पर ही संदेह है।

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का बैठक छोड़कर चले जाना भी एक अप्रिय प्रसंग रहा कि सरकार गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की न तो बात सुनना चाहती है और न उनकी शंकाओं का समाधान करना चाहती है। प्रधानमंत्री अब बोलने की समय सीमा की बात कह रहे हैं, तो एजेंडा तय करते समय ही मुख्यमंत्रियों को पूर्व में यह जानकारी दी जानी चाहिए थी ताकि वह उसी मन:स्थिति के साथ बैठक में आएं। वैसे भी संप्रग सरकार राज्य सरकारों को भेजी जाने वाली राशि को लेकर जनता में यह संदेश देने का प्रयास करती रही है कि राज्य की विकास योजनाएं केन्द्र सरकार के दम पर राज्य में चल रही हैं, राज्य सरकार का उसमें कोई योगदान नहीं है और इस आधार पर चुनावी लाभ उठाने की कोशिश भी कांग्रेस करती है, जैसा कि हाल में संपन्न गुजरात विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री और कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अपनी सभाओं में कहा और राज्य की विकास योजनाओं का श्रेय लेने की कोशिश की मानो केन्द्र के दान से वे योजनाएं चल रही हों या संपन्न हुई हों। इस तरह विकास को चुनावी राजनीति का हथियार बनाना उचित नहीं कहा जा सकता। गरीबों को विकास की मुख्यधारा में लाने के प्रति कांग्रेस या उसके नेतृत्व वाली संप्रग सरकार कितनी संजीदा है, इसका अनुमान गरीबी के प्रति उसकी अवधारणा से ही लग जाता है, जब योजना आयोग के उपाध्यक्ष के द्वारा गांवों में 28 रु. प्रतिदिन और शहरों में 32 रु. प्रतिदिन खर्च करने की हैसियत वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के ऊपर मान लिया गया। दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने तो और भी हास्यास्पद सीमा तय कर दी- 5 सदस्यों वाले परिवार के लिए 600 रु. मात्र, यानी एक व्यक्ति के लिए 4 रु. प्रतिदिन। यह सरकार की आम जन के प्रति संवेदनहीनता को ही दर्शाता है कि उसमें आम देशवासी का जीवन स्तर ऊंचा उठाने व खुशहाल बनाने के लिए न तो राजनीतिक इच्छाशक्ति है और न ही वैसा कोई लक्ष्य, बस लोकलुभावन नारे उछालकर या घोषणाएं करके चुनावी लाभ उठाकर एक बार फिर सत्ता प्राप्त करना ही उसकी मंशा है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि 'इस सरकार के पास न नेता है और न नीति। केवल 8 प्रतिशत तक विकास दर ले जाने के लिए पूरे देश को इकट्ठा कर लिया, जबकि गुजरात की विकास दर 11 प्रतिशत है।' सरकार विकास दर के गिरते लक्ष्य और देश के बिगड़ते आर्थिक हालात के लिए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक स्थितियों को दोष देती है, जबकि वास्तव में इसके लिए उसकी गलत आर्थिक नीतियां दोषी हैं, जिनका खामियाजा देश की जनता को गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के रूप में झेलना पड़ रहा है। राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में यदि इन मुद्दों पर कोई समाधान खोजने का प्रयास नहीं होता तो ऐसी बैठक का अर्थ क्या है?

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