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आज से लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान दिया था। किन्तु वह ज्ञान आज भी उतना ही उपयोगी और कल्याणकारी है। व्यक्ति से लेकर समाज, राष्ट्र तक सारी समस्याओं का निदान गीता में है। सत्य-असत्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, लौकिक-अलौकिक द्वंद्व से छुटकारा दिलाने की अद्भुत शक्ति है। जब गीता है साथ तो कोई अकेला नहीं है। आधुनिक भारत के कर्णधार राजा राम मोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी सभी ने गीता को अपने आचार-विचार का मानदण्ड बनाया। औरंगजेब का भाई दारा शिकोह तो इस ग्रंथ पर इतना मुग्ध था कि उसने फारसी में इसका रूपान्तरण करके अपने बन्धु-बांधवों में प्रचार किया। अनुवाद की वह मूल प्रति 'इंडिया ऑफिस' लंदन में आज भी सुरक्षित है। गांधी जी कहते थे, 'जब कभी मैं संशयों से घिर जाता हूं, जब निराशायें मेरी ओर घूमने लगती हैं और मुझे प्रकाश की एक किरण भी नहीं दिखाई देती, तब मैं गीता का आश्रय लेता हूं। इसका कोई न कोई श्लोक प्रेरणा देने वाला मिल जाता है। तब मैं तत्काल शोक विभूत दशा में मुस्कराने लगता हूं।'
वास्तव में गीता मानव जीवन के लिए कालजयी रचनात्मक कार्यक्रम है। यह महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित योगेश्वर कृष्ण की वंशी का वह गीत है जिसकी गूंज मानव को उत्साह, आनन्द और कर्म प्रेरणा से भर देती है। सत्य को सुंदर बनाकर व्यवहार में लाना और जीवन भोगते हुए भी परम तत्व से दूर न जाना यही गीता की विशेषता है।
गीता की चर्चा करने से पूर्व इस बात का निर्णय करना जरूरी है कि महाभारत युद्ध क्या था और क्यों लड़ा गया। महाभारत काल में व्यक्तिगत अहंकार और स्वार्थपरता चरमोत्कर्ष पर थी। भौतिक सुख समृद्धि के कारण आध्यात्मिक भाव लुप्त हो गये थे। ऐसे विकट समय में श्रीकृष्ण ने देश काल की मर्यादा सुरक्षित रखते हुए आधारभूत समन्वयवादी दृष्टि विकसित की और उसे अपने आचरण द्वारा क्रियात्मक रूप दिया। उन्होंने युधिष्ठिर को न केवल अपने साम्राज्य की प्राप्ति के लिए वरन् दुर्योधन द्वारा शोषित जनता के पक्ष में युद्ध करने का आदेश दिया। जो युद्ध स्वाधिकार की प्राप्ति के लिए केवल भाइयों का संग्राम हो सकता था वह आर्य और अनार्य संस्कृति के उन पक्षों के निर्णय का युद्ध हो गया जो कम से तीन हजार वर्ष तक भारतीय परम्पराओं का निर्णायक बना। उन्होंने समझाया कि दुष्ट को प्रसन्न करने की नीति न जनता का उपकार कर सकती है न राष्ट्र और धर्म का। त्रेता युग में जो काम महर्षियों ने राम-रावण युद्ध के माध्यम से किया, वही द्वापर युग में पाण्डव-कौरव युद्ध के द्वारा प्रस्तुत किया गया।
गीता का पहला सोपान
इस प्रकार गीता की दृष्टि उस बिन्दु से शुरू होती है जहां व्यक्ति संघर्ष, समष्टि, कल्याण से जुड़कर आदर्श संघर्ष के रूप में बदल जाता है। शंका उठती है कि अर्जुन का प्रश्न व्यवहार संबंधी था। कृष्ण कह देते तू युद्ध कर, युद्ध भूमि में जबकि दोनों सेनाएं आमने-सामने हों, इस दार्शनिक संवाद की क्या जरूरत थी? महामानव कृष्ण केवल अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त नहीं कराते, वे तो उस मोह को भंग करते हैं जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सामाजिक मर्यादा को दांव पर लगा देता है। अर्जुन 'नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा' कह कर उसी ओर संकेत करते हैं। अपने अधिकार को न छोड़ना एवं दूसरे के अधिकार पर अपना अधिकार न जमाना दोनों ही मर्यादा की रीढ़ है।
कुरुक्षेत्र के मैदान में अपने सगे-संबंधियों को देखकर अर्जुन शोकग्रस्त हो उठा, क्या स्वजन बांधवों को मार कर राज्य सुख भोगना मेरे लिए श्रेयस्कर है? सच पूछिये तो कुरुक्षेत्र का युद्ध स्थल प्रत्येक व्यक्ति का मन है जहां हर पल सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, न्याय-अन्याय, कर्तव्य-अकर्तव्य के मध्य युद्ध छिड़ा रहता है। प्रतिकूल और अनुकूल भावों का द्वंद्व, विचारों को झकझोरता रहता है।
कर्मों के उद्देश्य को ठीक करना एवं उद्देश्य के अनुकूल कर्म करना यह गीता का पहला सोपान है। कृष्ण एक ऐसे सहज जीवन के पक्षधर थे, जो न भोगों से परतंत्र था और न पदार्थ त्याग से। स्वयं उनके जीवन में, वृन्दावन में ग्वाले बने हुये और द्वारिका में स्वर्ण नगर की स्थापना करते हुए एक जैसी उदासीनता दिखाई देती है। राजसूय यज्ञ में सारे राजा उनका प्रथम पूजन करते हैं जबकि वे उसी महायज्ञ में सबकी जूठी पत्तल उठाते हैं।
हमारा सारा मोह तब शुरू होता है जब परिस्थितियों को, उनके असली रूप में न देखकर, उनके साथ हम अपना रागात्मक संबंधा जोड़ देते हैं, उससे दृष्टिकोण निरपेक्ष नहीं रह पाता और अनायास, भूल हो जाया करती है। तब हमारा संतुलन अर्जुन के समान बिगड़ जाता है। जांच के सारे मापदण्ड बदल जाते हैं। गीता इसी असंतोष को ठीक करने की शिक्षा देती है।
महाभारत युद्ध के आरम्भ में अर्जुन युद्ध करना नहीं चाहते। वे सोचते हैं कि स्वजनों और गुरुजनों की हत्या से महापाप लगेगा। इसके साथ ही उनके मन में कौरवों से हार जाने का डर भी है। हम भी ऐसा ही करते हैं जहां हमारी आसक्ति होती है वहां हम कमजोर हो जाते हैं और उस पर एक सुन्दर सा आवरण डालने की कोशिश करते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन की इस कमजोरी को पकड़ लेते हैं। अपने तीखे वचनों द्वारा उसे जगाते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं 'प्रज्ञावादाश्च भाषसे' तू पंडितों जैसे वचन कहता है अर्थात् तू व्यवहार में पंडितों सा आचरण नहीं करता पर कथनी में ज्ञानी बन रहा है। हमारी समस्या भी यही है। हमारे मन और मुख में, करने और कहने में भेद है। यह भेद ही द्वंद्वों और तनावों को पैदा करता है। इतना ही नहीं, लोग अपनी असफलता का दोष परिस्थितियों, परिचितों के सिर मढ़ दिया करते हैं। जबकि हम ही अपने उत्थान और पतन के कारण होते हैं।
जीवन प्रवाहमान नदी है, जिसके न पहले का भाग दिखाई देता है न बाद का। अतएव वर्तमान जीवन के नाश से शोक कैसा… जो नाशवान है उनका नाश आज नहीं तो कल होगा पर आत्मा का किसी काल में नाश नहीं।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्, नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतो।़यं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
हम केवल शरीर नहीं, अजर अमर अविनाशी आत्मा तत्व हैं। शरीर की सोच कमजोरी को जन्म देती है। आत्मा का विचार अनन्त शक्ति का संचार करता है। जो शरीर को तुच्छ मानते हैं वे ही त्याग कर सकते हैं। वे ही समाज और राष्ट्र के लिए जीवन न्योछावर कर सकते हैं। शरीर को सर्वस्व मानने वाले कभी महान नहीं बनते। शरीर ही स्वार्थ का कारण है। वही हमें इन्द्रियों की सीमा में बांधता है। इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के तंग दायरों से निकल कर हम सत्य की ओर आनन्द की ओर बढ़ सकते हैं। गीता कहती है यह सम्पूर्ण विश्व ही तुम्हारा शरीर है। यह हवा जो बाहर चल रही है और जो हमारे भीतर सांस चल रही है, वह दोनों एक हैं।
आत्मबल बढ़ाओ
हमारी समस्त क्रियाओं का अन्तिम फल सुख ही है। किन्तु अनुभव बताता है कि संसार में सुख जब भी आता है दुख का ताज पहन कर। सुख के साथ दुख झेलना ही पड़ता है। एक वस्तु एक समय के लिए सुख होती है तो दूसरे समय के लिए दुख रूप। जैसे धूप गर्मी में दुख देती है तो सर्दी में सुख देती है। इन्द्रियों द्वारा उपजे इस द्वंद्व के प्रति सतर्क रहने की जरूरत है। न तो इन्द्रियों में स्वयं विषय भोगने की योग्यता है और न विषयों में अपना निज का रस है। मन की अनुकूलता ही सुख-दुख का रूप दे, उन्हें अच्छा-बुरा बनाती है। सुख का संस्कार कभी न पूरी होने वाली तृष्णा है, जो कामनाओं के रूप में निरन्तर प्रकट हो चित्त को अशान्त करती रहती है। हमारा वर्तमान समाज उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। आज विज्ञान ने मनुष्य के चरणों पर जो शक्ति रख दी है उससे बाह्य भौतिक जीवन तो पुष्ट हुआ पर आन्तरिक विकास थम गया। फलस्वरूप सारा जीवन इच्छाओं की बेचैनी और विचारों के कोलाहल से पूर्ण हो उठा। सर्वत्र व्यक्ति समाज, राष्ट्र के सुख और संतोष को लेकर टकराहट बढ़ रही है। तरह-तरह के नारे सुनाई पड़ रहे हैं। सभी अपने को विकसित, शक्तिशाली दिखाने की होड़ कर रहे हैं, किसी को अपने अगले कदम का भरोसा नहीं। सारी की सारी बौद्धिक संस्कृति डांवाडोल है। आज जीवन जिन उपकरणों के बीच हांपता-हांपता सा आगे बढ़ रहा है उनके प्रति पुन: विचार करने की जरूरत है।
सच पूछिये तो दोष विज्ञान अथवा भौतिक साधनों का नहीं उस दृष्टिकोण का है जिसकी अधीनता में आकर हम शरीर के सुख को अपना सर्वस्व मान बैठे। दोष उस विचारधारा का है जिसने हमें अपनी आत्मा की भूमि से उखाड़ कर अलग कर दिया। उन मूल्यों को पुन: पकड़ने की जरूरत है जिनका प्रतीक गीता है। धर्महीन, मूल्यहीन बुद्धि की आराधना का स्वाद हम ले चुके हैं यदि कुछ देर और लगे रहे तो सर्वनाश निश्चय है। हमें पशुभाव से ऊपर उठना है। पशु न तो अपने मन का नियंत्रण कर सकता है, न मन की क्रियाओं को समझ सकता है। वह तो बस अपनी सहज प्रवृत्तियों द्वारा चलायमान है। पर हमारा मन इतना विकसित है कि हम अपनी क्रियाओं को समझ सकते हैं, पकड़ सकते हैं और उन्हें देख सकते हैं। गीता कहती है प्रवाह में बहना उचित नहीं। बहता तो तिनका है, लेकिन मनुष्य तैर सकता है। तैरने की ताकत आत्मबल पर आधारित है। आत्मबल शारीरिक बल से हमेशा श्रेष्ठ है। इस सत्य को भारत जानता है आज भी भूला नहीं है।
गीता सभी कर्मों को छोड़ कर जंगल में जाने का उपदेश नहीं देती। संसार में रहो पर संसार हम में न रहे। नाव जल में रहे यह तो ठीक, पर जल नाव में आते ही समझो नाव डूबी। बाहरी कारणों के परिवर्तन से शांति नहीं मिलती। परिवर्तन भीतर करना है, मन को बदलना है, हम जहां जायेंगे मन साथ जायेगा। यह परिवर्तन ज्ञान और कर्म के समन्वय द्वारा ही संभव है। यही गीता का कर्मयोग है।
दरअसल, हम न धर्म समझते हैं न अधर्म, सुख जानते हैं न दुख। यदि पूछें सुख क्या है, तब हम धन, मकान, कार आदि भोगों का नाम ले लेते हैं। सुख चाहते तो सब हैं परन्तु पहचानता कोई नहीं। दुख से परहेज है, दुख को भी पहचानते नहीं। इन्द्रियों की तृप्ति में फंसे हैं, अपने मन की चाकरी में लगे हैं। गीता कहती है इन्द्रियों को रोक कर इनको चलाने वाले सत्य को समझा जाय तो मन की चंचलता, दुविधा और द्वंद्व मिट सकता है। कहीं आना-जाना नहीं, कुछ करना-धरना नहीं। जहां हैं वहीं पर पैर जमाने हैं। केवल स्वयं को जानना है। यही दृष्टि हमें संसार से अलग बना सकती है। अत: घड़ी की सुई की तरह चलते रहिये फंसिये नहीं, अटकिये नहीं।
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