आर्थिक गुलामीका शिकंजा
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खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
का शिकंजा
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
संसद का शीतकालीन सत्र एक बार फिर प्रारंभ से ही बाधित हो रहा है। उसकी कार्यवाही में व्यवधान हुआ और सत्ता पक्ष और विपक्ष इस मुद्दे पर अड़ गए कि खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या न हो, और इस पर सदन में बहस किसी नियम के तहत हो। अंतत: यह गतिरोध टूटा और साकार जिद छोड़कर चर्चा के बाद मत विभाजन पर राजी हुई। पिछले दो महीनों से 'एफ.डी.आई.' नामक शब्द ने देश की राजनीति और आम आदमी को उद्वेलित-उत्तेजित कर रखा है। दरअसल 20 सितम्बर, 2012 को संप्रग-2 सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफ.डी.आई.) की अनुमति की घोषणा की। इसमें बताया गया कि खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत तक विदेशी भागीदारी होगी। वित्त मंत्री चिदम्बरम ने यह भी बताया कि शीघ्र ही खुदरा बाजार में बीमा विधेयक (इन्श्योरेंस बिल) तथा भविष्यनिधि विधेयक (पेंशन बिल) भी पारित होंगे, जिसमें विदेशी भागीदारी क्रमश: 49 प्रतिशत तथा 26 प्रतिशत तक होगी। संसद के वर्षाकीलान अधिवेशन की समाप्ति के तुरंत बाद अचानक खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की यह घोषणा आश्चर्य में डालने वाली तथा संसद का विश्वास खो चुकी कांग्रेस सरकार की विवशता लगी। सरकार के इस निर्णय से भारतीय किसान, छोटे दुकानदार तथा लाखों बेरोजगार युवक अवाक रह गए। लोकतांत्रिक ढांचे में भी यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। न संसद में कोई प्रस्ताव चर्चा के लिए आया, न विधेयक पारित हुआ और न ही कोई राष्ट्रीय बहस हुई। सरकार ने इस कानून पर विपक्षी नेताओं को संज्ञान तक नहीं लेने दिया। जबकि सन् 2002 में स्वयं मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता के रूप में इस प्रकार के निवेश का जबरदस्त विरोध किया था। इतना ही नहीं 7 दिसम्बर, 2011 को तत्कालीन वित्तमंत्री (वर्तमान में राष्ट्रपति) डा. प्रणव मुखर्जी ने संसद की पूरी तरह आश्वस्त किया था कि विदेशी पूंजी निवेश का कोई भी निर्णय सबकी राय लिए बिना नहीं होगा।
विदेशी दबाव
कुछ विद्वानों ने इसे भारत सरकार पर विदेशी दबाव का प्रभाव अथवा नित्य होने वाले घोटालों, भ्रष्टाचार के मामलों, सरकारी फिजूलखर्ची, काला धन आदि पर पर्दा डालने, अथवा सरकार की नाकामी और महंगाई पर से देश का ध्यान हटाने का प्रयास भी बताया है। महंगाई, डीजल तथा रसोई गैस की बढ़ती कीमतों ने सरकार पर से लोगों की विश्वनीयता घटाई है। ऐसे में संसद में बिना चर्चा के, राष्ट्रीय स्तर पर बहस के बिना ही, खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देकर सरकार में संसद के साथ ही देश को भी धोखे में रखा और अपने इस निर्णय से देश को आर्थिक गुलामी के मार्ग पर धकेल दिया है।
सरकार ने खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के समर्थन में चार तर्क दिए हैं। पहला- इससे भारतीय किसानों को सीधे लाभ होगा। उन्हें न तो खाद्य के भण्डारण की चिन्ता करनी होगी, न विचौलियों का डर, न कम बिक्री का भय। दूसरे-देश के युवकों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। प्रधानमंत्री के अनुसार एक करोड़ बेरोजगारों को रोजागर मिलेगा। तीसरे-छोटे दुकानदारों को कोई नुकसान नहीं होगा। चौथे, यह सुधार देश के उपभोक्ताओं के सस्ते दामों पर वस्तुएं उपलब्ध कराएगा। इसके अलावा यह भी घोषणा की गई कि जो राज्य इसे लागू न करना चाहें, उन्हें पूरी छूट होगी। यह प्रावधान भी बताया गया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मल्टी ब्रांड रिटेल स्टोर्स वहां नहीं खुलेंगे जहां की जनसंख्या 10 लाख से ऊपर होगी। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के अनुसार इससे विदेशी धन भी भारत आएगा तथा तकनीकी विकास भी होगा। साथ ही यह भी कहा कि विदेशी धन से किसानों को प्राणवायु मिलेगी, उद्योगों में गतिशीलता आएगी तथा रोजागार क अवसर बढ़ेंगे।
कटु अनुभव
इससे पूर्व कि खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) की भारत में सफलताओं तथा संभावनाओं पर चर्चा करें, जिन देशों में यह पहले से प्रचलित है उन देशों की अवस्था जानना प्रासंगिक होगा। अमरीका में इस क्षेत्र की वालमार्ट जैसी बड़ी कम्पनी लगभग पिछले 50 वर्षों से कार्यरत है, परन्तु यह भी सत्य है कि अनेक अमरीकियों ने वालमार्ट को दुत्कार दिया है। इस कम्पनी को अमरीका के अनेक बड़े शहरों में विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा है। अमरीका के धनी शहर लास एंजिल्स में 10,000 लोगों ने इसके विरुद्ध प्रदर्शन किया। अपने नारों में प्रदर्शनकारियों ने 'वालमार्ट मीन्स पावर्टी' अर्थात 'वालमार्ट का अर्थ गरीबी' बतलाया। वाशिंगटन में सैकड़ों लोगों ने नारा लगाया 'से नो टू वालमार्ट' अर्थात् 'वालमार्ट को ना कहो'। न्यूयार्क शहर में स्थानीय समुदाय की रजामंदी न मिलने पर इसे अस्वीकार कर दिया गया। हिल रोड में कहा गया, 'नो वालमार्ट, सेव अवर कमोडिटी' अर्थात 'वालमार्ट की नहीं, हमारी वस्तुओं की रक्षा करो।' इतना ही नहीं, वालमार्ट में काम करने वाली अनेक महिलाओं ने कम्पनी में भेदभाव तथा लिंग भेद के आधार पर कम वेतन, अधिक समय तक काम लेने आदि के खिलाफ न्यायालयों में अनेक मुकदमे दर्ज करा रखे हैं। इसी भांति मैक्सिको में भी इसका प्रतिरोध हुआ। स्पेन तथा ग्रीस इसकी मार से अभी भी बेरोजगारी तथा भुखमरी के शिकार हैं। कुछ विद्वानों ने चीन जैसे विस्तृत आबादी वाले देश में इसे सफल माना है, परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन ने किसी मजबूरी में नहीं बल्कि अपनी शर्तों पर खुदरा बाजार में एफ.डी.आई. को अपनाया है। चीन इसके माध्यम से दुनिया के बाजार पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता है।
भारत के लिए घातक
भारत के अनेक खाद्य तथा कृषि विशेषज्ञों तथा आर्थिक विश्लेषणकर्ताओं ने विदेशी खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को घातक तथा किसानों के लिए झूठा आश्वासन देने वाला बताया है। यूरोप के अनेक देशों में पिछले वर्षों में कृषि क्षेत्र की सब्सिडी निरन्तर बढ़ाई है, जबकि सामान्यत: यूरिया के अलावा भारत सरकार कृषि क्षेत्र में नाम मात्र की सहायता ही उपलब्ध कराती है। इतना ही नहीं खाद्य भण्डारण, जो कि सरकार का ही उत्तरदायित्व है, को भी भारत सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं मानती। इसी कारण किसानों का लाखों टन अनाज प्रतिवर्ष सड़ता है तथा दूसरी ओर भुखमरी से लोगों तथा कर्ज से किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती है।
अमरीका ने सन् 2008 से अगले पांच वर्षों के लिए कृषि क्षेत्र के लिए 307 अरब डालर अर्थात लगभग 15,50,000 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है। 30 धनी देशों ने सन् 2008 की तुलना में सन् 2009 में 22 प्रतिशत कृषि सब्सिडी बढ़ाई है। यहां तक कि यूरोप में प्रत्येक किसान को गाय रखने पर उनकी संख्या के हिसाब से सब्सिडी दी जाती है। प्रश्न यह है कि भारत सरकार क्या ऐसा करती है, या कर सकती है? जहां तक विचौलियों का प्रश्न है तो वालमार्ट जैसी कम्पनियां स्वयं ही एक बड़े विचौलिए का रूप हैं। ऐसे में आवश्यकता है भारत में बिचौलिया व्यवस्था को दुरुस्त करने की। यहां यह ध्यान देना आवश्यक है कि विदेशी कम्पनियां भारत के किसानों का 30 प्रतिशत माल ही लेंगी, शेष सत्तर प्रतिशत उपज किसान किसके माध्यम से बेचेगें, यदि विचौलिये ही नहीं रहे तो? सरकार यह भी आश्वस्त नहीं करती कि किसानों को उनका पूरा लाभ मिलेगा। इसलिए भारत जैसे कृषि प्रधान देश में इस प्रकार का कानून हड़बड़ी में लाया जाना बहुत घातक होगा। यह कहना सिर्फ झूठ है कि इससे छोटे दुकानदारों या मध्यम वर्ग को कोई हानि नहीं होगी।
एक प्रसिद्ध आर्थिक विश्लेषक देवेन्द्र शर्मा के अनुसार अकेले वालमार्ट का कुल व्यापार 450 अरब डालर का है तथा सम्पूर्ण भारत का कुल खुदरा व्यापार 420 अरब डालर से कुछ ही अधिक है। इतने बड़े तंत्र के लिए वालमार्ट ने कुल 21 लाख लोगों को रोजगार दिया है जबकि भारत के खुदरा व्यापार के क्षेत्र में 1.20 करोड़ दुकानों में 4.4 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। उनका मत है कि वालमार्ट के आने से रोजगार बढ़ेगें नहीं बल्कि घटेंगे। वस्तुत: वालमार्ट जहां भी है वहां छोटे व्यापारियों का सफाया कर रहा है। उन देशों में छोटे व्यापारी धीरे-धीरे अपना कारोबार समेटते दिख रहे हैं। वालमार्ट के कारण छोटी दुकानें बन्द होने की यह दर 35 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक है। उदाहरण के लिए-शिकागो में 2006 में वालमार्ट ने व्यापार प्रारम्भ किया। 2008 में उसके आस-पास के कुल 306 छोटे दुकानदारों में से 82 दुकानदारों को अपना प्रतिष्ठान बंद करना पड़ा। प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. आशीष बोस का निष्कर्ष है कि सरकार जिस तरह कठोर आर्थिक फैसलों की घोषणा कर रही है उससे तो देश का मध्यम वर्ग और सिकुड़ जाएगा तथा वह गरीबी की रेखा वाली सीमा में समाहित हो जाएगा।
झूठ का बाजार
उपरोक्त तथ्यों और विश्लेषण के आधार पर रोजगार बढ़ने की बात भी काल्पनिक और झूठ ही लगती है। यह तर्क आधारहीन है कि इससे एक करोड़ युवकों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। अनुभव बताता है कि प्रारम्भ के एक-दो वर्षों तक कुछ युवकों को भले ही रोजगार के अवसर मिलें, परन्तु वे अवसर शीघ्र ही समाप्त हो जाएंगे। विदेशी कम्पनियां भारत में रोजगार देने नहीं बल्कि कमाई करने आने वाली हैं। भारतीय नवयुवक तो पिछली ग्यारह पंचवर्षीय योजनाओं से 'रोजगार के अवसर' वाली छलावे की भाषा सुनता आया है। यह कथन कि इससे भारतीय उपभोक्ता को सस्ते दामों पर वस्तुएं उपलब्ध होंगी, एक धोखा है, झूठ है। विदेशों के अनुभव के अनुसार लैटिन अमरीका, अफ्रीका तथा एशिया में खुदरा व्यापार की बड़ी विदेशी कम्पनियां उपभोक्ता से 20 से 30 प्रतिशत तक धन कमाती हैं।
अनेक विचारकों का यह कथन भी गंभीर है कि भारत की केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यों में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कानून को मानने या न मानने की छूट दिया जाना न तो भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुकूल है और न ही संघीय ढांचे के। केन्द्र सरकार किन्हीं विशेष राज्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है और न ही किसी प्रांत में पार्टी विशेष की जीत जनभावना का प्रकटीकरण होता है। अत: भारत सरकार का यह उतावलापन या सोच कि खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश आने से देश में 'अलादीन का चिराग' जल जाएगा, एक मूर्खता है। भारत के अनेक श्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों तथा प्रख्यात खाद्य विश्लेषकों के विचारों को गंभीरता से लेना चाहिए। इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार श्री कुलदीप नैयर का यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है कि खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति जैसे फैसलों के लिए 'सुधार' शब्द न जोड़ें। जल्दबाजी में लिए गए निवेश दूरगामी परिणामों की दृष्टि से कहीं विनाशकारी न बन जाएं, तथाकथित आर्थिक सुधार देश में अन्य सामाजिक तथा नैतिक कानूनों को बाधित न करें, कहीं सोने के थाल में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के विदेशी धन का उपहार आर्थिक गुलामी का प्रवेश द्वार न बन जाए। इस बारे में बहुत सजग रहने की आवश्यकता है। इस सजगता का ध्यान रखेंगे तो खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को पूरी तरह नकारना ही पड़ेगा।
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