हालांकि कसाब को चुपचाप फांसी दिए जाने पर भी देश में सवाल उठ रहे हैं और जनता इसमें भी सरकार की सत्ता राजनीति के दांव-पेंच देख रही है, क्योंकि कसाब के प्रति देशवासियों का गुस्सा किस कदर था, इसका अनुमान अनेक देशवासियों की इस बात से लगता है कि कसाब को चुपके से फांसी दिए जाने के बजाए सरेआम फांसी दी जाती तो ज्यादा अच्छा होता। कल्याण निवासी नारायण पाटिल तो मुम्बई हमले के बाद चार साल से स्थानीय तहसीलदार को रोजाना प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नाम कसाब और अफजल को फांसी दिए जाने की मांग करते हुए पत्र भेज रहे हैं। वह अब तक 1432 पत्र लिख चुके हैं। उनका यह कथन, कि उन्हें दुगुनी खुशी तो तब मिलेगी जब अफजल को भी फांसी दी जाएगी, से जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध देश की जनभावनाओं को समझा जा सकता है। लेकिन सरकार इस लड़ाई को वोट की राजनीति और मुस्लिम तुष्टीकरण के तराजू में तोलती रही है। अन्यथा क्या कारण है कि संसद पर हमले का मुख्य आरोपी अफजल 2005 में सर्वोच्च न्यायालय से फांसी की सजा पाने के बाद भी जेल में सरकार की मेहमाननवाजी का लुत्फ उठा रहा है। उसकी राष्ट्रपति के नाम दया याचिका को लेकर राजनीति की जा रही है। केन्द्रीय गृहमंत्रालय और दिल्ली की राज्य सरकार सालों तक उसकी फाइल दबाए बैठी रही और देश के सामने इस सरकार द्वारा खड़ी कर दी गई लाचारी पर अफजल और उसके आका अट्टहास करते रहे। देश सत्ता से बड़ा है, देश के स्वाभिमान के लिए, मातृभूमि का गौरव बनाए रखने के लिए, देश के दुश्मनों का सिर कुचलने के लिए ऐसी असंख्य सत्ताओं की बलि चढ़ाई जा सकती है, लेकिन कांग्रेस और उसके कर्त्ताधर्त्ता अपनी सत्ता के लिए राष्ट्रहित की बलि चढ़ाने में जरा भी संकोच नहीं कर रहे और अफजल को फांसी दिए जाने पर कानून-व्यवस्था बिगड़ने का डर दिखाकर देश को छल रहे हैं। वस्तुत: जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में पूर्णाहुति तो तब मानी जाएगी जब न केवल हमारी लचर व्यवस्था का उपहास उड़ाने वाले अफजल को सूली पर लटका दिया जाए, बल्कि पाकिस्तान के सामने घुटने टेकने की बजाए हर मोर्चे पर उसे मुंहतोड़ जवाब दिया जाए, उसकी आस्तीन में पल रहे सांपों के सिर कुचले जाएं। लेकिन इसके लिए सत्ता के जोड़-तोड़ से परे दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए, जिसका संप्रग सरकार में पूरी तरह अभाव है। संप्रग सरकार इस सच्चाई को समझ ले कि देश को अब अफजल की फांसी का इंतजार है।
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