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भारतीय संस्कृति सदा से प्रकाश की उपासिका रही है। तमसो मा ज्योतिर्गमय– अंधकार से मुझे प्रकाश की ओर ले चलो, यह प्रार्थना निरंतर गुनगुनाते चलती रही है हमारी जीवन यात्रा। चिर प्राचीनकाल से हर रोज नित नवीन उषा अंधकार को चीरती प्राची में उपस्थित हो ज्योति पताका फहराती है। सूर्य तम विदीर्ण कर आलोक के आनंद से कण-कण आपूरित करता रहता है। यही नहीं, रात्रि में भी चंद्रमा और तारे हर रोज दीपावली सिरजते रहते हैं। ये सभी तो ‘ºÉiªÉÆ शिवं ºÉÖÆnù®ú¨ÉÂ’ की अनुभूति करवाते हैं। शेष अंधकार के लिए मानव निर्मित नन्हा सा दीप है जो उसमें स्नेह भर जीवन पथ को ज्योतित करने का संकल्प लेकर तूफानों में भी जलता रहता है।
सांस्कृतिक महत्व
प्रकाश का पावन पर्व दीपावली प्रतिवर्ष अनेक सांस्कृतिक संदर्भों में उभरकर आता है। यह कार्तिक मास की सुंदर ऋतु की पृष्ठभूमि में उपस्थित होता है जब वर्षा समाप्त हो जाती है। शांति और आनंद का दूत यह काल सबका अभिनंदन करते हुए आता है। रोग नाशक, आनंदवर्धक इस काल में पर्वराज दीपावली संपूर्ण सांस्कृतिक विशेषताओं को रेखांकित करता है। राम के अयोध्या लौटने का अर्थ भी द्विविध है-एक सत्यमेव जयते-सत्य की विजय तो दूसरा जन-जन में रमण करने वाला राम अर्थात् आनंद। दोनों ही सत्य रूप हैं। लक्ष्मी पूजन सर्वकल्याणहित है-राजा रंक छोटे-बड़े सबको तो चाहिए धनधान्यपूर्ण, ऐश्वर्य भरी लक्ष्मी। नहिं दरिद्र सम दुख जग मांही। दरिद्रता का अभिशाप नहीं, सम्पन्नता का वरदान चाहिए इसीलिए है लक्ष्मी साधना। पर पूंजीवाद का यहां कोई स्थान नहीं। वैदिक संस्कृति केवलोघो भवति केवलादी– अकेले खाने वाला पापमार्गी होता है अर्थात् लक्ष्मी की सुंदरतम सार्थकता सबके कल्याण, सबके स्वस्तिभाव में है।
भारतीय संस्कृति का त्रिवर्णी सूत्र 'सत्यं शिवं सुंदरम्' है, जिसकी सुंदरतम व्याख्या जगमगाती नन्हीं नन्हीं दीपावलियां अद्भुत रूप से करती हैं। इस व्याख्या के कारण ईर्ष्या, द्वेष या अभावादि की दरिद्रता का अंधकार तो दूर छिटकता ही है, सर्वत्र स्नेह क्षमा के भावों का औदार्य छलकता रहता है। तभी तो कुम्हार के बनाए गए मिट्टी के लक्ष्मी, गणेश व माटी के दीपों के बिना लक्ष्मीपूजन पूरा नहीं होता। भले ही सोने चांदी के सिक्कों या मूर्तियों की खनखनाहट या चमक आंखों को चौंधिया दे। इसी प्रकार राजमोहन, काजूबफर्ी का भोग हो पर 'खील बताशे' के बिना धान्य लक्ष्मी भला रीझती हैं! बिजली के दीपों की झालरों से घर का कोना कोना सज जाए पर पूजा की पावनता तो सरसों के तेल से भरे मिट्टी के दीप से ही होती है। इस सांस्कृतिक पर्व के मूल में है बाह्य आंतरिक दोनों प्रकार की शुद्धि। घर के कोने-कोने में से चुनकर कूड़ा-कबाड़ व्यर्थ का सामान निकाल फेंकना, नए सिरे से लीप- पोत कर सजाना संवारना होता है। पर आज की भोगवादी संस्कृति में संग्रह की वृत्ति प्रवृत्ति इतनी बढ़ गयी है कि घर में लोग तीन या चार और तरह-तरह के साज सामान हजार-हजार। कहां मुक्त हो पाते हैं हम इस तमाम आडम्बर से। इसलिए बस ऊपर की लीपापोती ही कर पाते हैं। आंतरिक शुद्धि तो जैसे भूल ही चुके हैं। भीतर तरह-तरह के नकारात्मक भाव लोभ-लालच, उठा-पटक, छीना-झपटी कर अपनी अंटी भरते चलना। पर्व पर खील बताशे का सात्विक प्रसाद देने-लेने का भाव नदारद। नामी दुकानों की मिठाई, मेवों के डिब्बों के साथ-साथ कीमती उपहारों का लेन-देन। उपभोक्तावाद की लहर ने इस सांस्कृतिक पर्व की पवित्रता का हनन कर डाला है। व्यापार में शुद्धता, पारदर्शिता या ईमानदारी की बात सोच ही कौन पा रहा है आज?
लक्ष्मी के विविध रूप
जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए अर्थ अर्थात् धन की अपेक्षा सदा रही है, सदा रहेगी। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चार पुरुषार्थों में अर्थ का क्रम धर्म के बाद है। इसीलिए धर्ममय अर्थ तथा धर्ममय काम ही श्रेष्ठ माने गए हैं। हमारी सांस्कृतिक चेतना के मूल ग्रंथ ऋग्वेद में या अन्य वेदों में भी वैदिक ऋषि देवों से अपने सांख्य के लिए सदैव धन सम्पत्ति की प्रार्थनाएं निस्संकोच करता रहा है। वैदिक कोष निघंटु में धनवाची शब्दों के 28 पर्याय मिलते हैं। लक्ष्मी शब्द भले ही वेद में कम प्रयुक्त हुआ हो पर अन्य पर्याय खूब मिलते हैं। अथर्ववेद में बहुधा लक्ष्मी का प्रयोग हुआ है। वैदिक लक्ष्मी बहुआयामी हैं। वह शक्ति रूपा, कीर्तिरूपा, प्रतिष्ठा रूपा, ऐश्वर्यरूपा तथा ज्ञानरूपा हैं।
लक्ष्मी के लिए एक और पर्याय ‘¸ÉÒ’ भी वेद में खूब मिलता हे। श्री शब्द श्रृञ् सेवायाम धातु से बना है। अर्थ होता है जिसकी सेवा करे, जिसके कारण किसी की सेवा करे अथवा जिसके द्वारा दूसरों की सेवा की जा सके, वह वस्तु, वह शक्ति, वह भावना ‘¸ÉÒ’ है। श्री शब्द भारतीय जनमानस में इस कदर प्रतिष्ठित हो चुका है कि हर पुरुष के नाम से पूर्व श्री, हर स्त्री श्रीमती, यहां तक कि महिलाओं के लिए सुश्री का प्रयोग भी प्रचलन में है। श्री हो, लक्ष्मी हो, सबमें ऐश्वर्य व सौंदर्य का भाव निहित है। आज श्री के मूलभाव सेवा को हम भुला चुके हैं।
प्र पतेत:पापि लक्ष्मि नश्येत:प्रामुत:पत
अर्थात् पापकारिणी लक्ष्मी अथवा अन्याय मार्ग से कमाया धन दूर हो जा। इसी प्रकार अथर्ववेद कहता है या मा लक्ष्मी पतयालूरजुष्ट–पतन की ओर ले जाने वाली लक्ष्मी का सेवन न करूं। इन्द्र से प्रार्थना है कि वह शुद्ध धन हमें दे।
लक्ष्मी का सूचक एक शब्द ‘®úixÉ’ वेद में है जिसका अर्थ होता है रमणीय धन। राम के मूल में भी रम धातु है। राम रमणीय धन दे-आनंदमय धन दे तथा सर्वत्र इस देश में पुण्यशीला लक्ष्मी ही वृद्धि पाए-पापशीला नहीं। यही आज के युग की दीपावली की प्रार्थना है, यही मंत्र है-
रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्या:पापीस्ता अनीनशम्
कल्याणकारी लक्ष्मियां हमारे घर में रमण करें। हमारे देश में रमण करें, पापकारिणी लक्ष्मियां दूर रहें।
पंथनिरपेक्ष दीपावली
दीपावली का पर्व एक समय वैश्य वर्ग से जोड़ा जाता था शायद इसलिए कि वे व्यापार, वाणिज्यादि से लक्ष्मी धन संपत्ति अर्जित करते थे। जाति प्रथा चाहे भारतीय समाज में आज भी किसी न किसी रूप में जड़ें जमाए रहे परंतु तब भी दीपावली के प्रसंग में जाति भेद और वर्णभेद बिल्कुल मिट चुके हैं। समाज का हर वर्ग, हर जाति, गरीब-अमीर तथा प्राय: हर मतावलंबी किसी न किसी रूप में दीपावली पर उत्सव मनाता ही है। कुछ पंथानुयायियों के महान पुरुषों से दीपावली जुड़ी हुई है। इसलिए वे भी अपने तरीके से ही सही, इस पर्व पर प्रकाशोत्सव करते हैं। सिख मत के अनुयायी स्वर्ण मंदिर की जयंती के रूप में इसे मनाते हैं। 1577 में इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था। जैन मतावलंबियों के जैन मत के 24वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का मोक्ष दिवस भी यही दीपावली का दिवस था। स्वामी रामतीर्थ का तो जन्मदिवस, संन्यास लेने का दिन तथा मृत्यु दिवस सभी दीपावली के दिन से जुड़े हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज में प्रकाश का यह पर्व अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। महर्षि दयानंद का निर्वाण दिवस दीपावली ही है। वे भी इसे अपने तरीके से मनाते हैं। मुगलकाल में अकबर, जहांगीर और बहादुरशाह जफर भी दीवाली मनाते थे तथा ऊंचे ‘+ÉEòÉ¶É nùÒ{É’ जलाते थे।
त्रेतायुग में रावण वध के बाद लौटे श्रीरामचंद्र के स्वागत व अभिनंदन में अयोध्या वासियों ने दीप जलाए तब से ही दीपावली का पर्व जन-जन में प्रतिष्ठित हो गया। आज 21वीं सदी तक नवरात्र पर्व पर अनेक स्थानों पर रामलीलाएं आयोजित की जाती हैं फिर विजयादशमी पर रावण दहन होता है और फिर कार्तिक अमावस्या को दीपोत्सव।
दीपमाला पर्वमाला
दीपावली का अर्थ होता है दीपों की पंक्ति अर्थात् दीपमाला। दीपावली में दीपमालाएं तो हर घर, हर भवन में सजाई ही जाती हैं पर्वमाला भी संपन्न होती है। भाव यह कि दीपावली पौराणिक काल से आज तक पांच पर्वों की माला के रूप में मनायी जाती है। यद्यपि आज नगरों, महानगरों में मुख्य पर्व लक्ष्मी पूजन तथा दीप प्रज्ज्वलन अमावस्या को ही संपन्न होता है। परंतु पारंपरिक जन विशेषत: गांवों, कस्बों में पांचों दिन कुछ न कुछ आयोजन करते हैं।
पर्व का आरंभ होता है ‘vÉxÉiÉä®úºÉ’, जो वास्तव में धन्वतंरि त्रयोदशी है। समुद्र मंथन में इसी दिन धन्वंतरि अवतरित हुए थे। वैद्यविद्या, चिकित्सा शास्त्र मनुष्य के तन मन के स्वास्थ्य से जुड़ा है। इसलिए उसका स्मरण करना जरूरी समझा गया। आज इस बात को लोग भूल गए हैं। पीतल के बर्तन खरीदने की परंपरा जरूर चल रही है जिसके मूल में स्वच्छता का भाव है। इसी स्वच्छता के कारण स्वास्थ्य ठीक रहता है। नरक चतुदर्शी या नरक चौदस को द्वापर में कृष्ण ने नरकासुर को मारकर 16000 स्त्रियों का उद्धार किया था। स्त्री सम्मान की रक्षा इतने बड़े पैमाने पर करके कृष्ण ने सच ही महान कार्य किया। अत: इस दिवस की स्मृति भी दीपावली के पूर्व दिवस से जुड़ गई।
कार्तिक अमावस्या जिसे बड़ी दीपावली कहते हैं या जो मुख्य पर्व है, इससे जुड़ गयी है लक्ष्मी पूजन की परंपरा। लक्ष्मी सौंदर्य व सौभाग्य की देवी रही है। वर्ष भर में यह सबसे सुंदरकाल है। शरद ऋतु में ही प्राचीन काल में नरेश दिग्विजय के लिए निकलते थे। कार्तिक मास में प्रतिदिन स्नान तथा इस माह का महात्म्य सुनने की परंपरा आज तक विद्यमान है। ऐसी सुंदर ऋतु के काल में अमावस के अंधकार को परास्त करने के लिए नन्हे नन्हे दीप सन्नद्ध हो जाते हैं मानो प्रमाणित कर रहे हों कि एकता में ही शक्ति है। लक्ष्मी पूजन के अगले दिन फिर द्वापर से जुड़ा है जब गोवर्धन पूजा होती है। भारतीय मानस में गो अत्यंत पूज्य रही है। कृष्ण ने स्वयं गोचरण, ग्वाल ग्वालियों के साथ मैत्री करके यह तथ्य जनमानस में अंकित कर दिया। इंद्र का गर्व चूर करके गोवर्धन पर्वत अंगुली पर उठाकर व्रजवासियों की रक्षा की। इसकी स्मृति भी आज के दिन सुरक्षित है। पारंपरिक रूप से ग्रामीण अंचल में विशेषकर गोबर से बना गोवर्धन बनाया जाता है तथा खील बताशों से पूजा जाता है। कहा जाता है कि इसी प्रतिपदा को वामनावतार के बाद बालि ने पाताल में अपना राज्य स्थापित किया था।
इस माला का पांचवां पर्व है भैयादूज जो वास्तव में यम द्वितीया है। मृत्यु के देवता को स्मरण रखें, परिवार में अकाल मृत्यु न हो यह भाव इस पर्व में अनुस्यूत है। साथ ही यम देव ने इस दिन बहिन यमुना का आतिथ्य स्वीकार किया यह तथ्य भी इससे जुड़ा है। आज केवल भाई बहिन के पावन स्नेह के प्रतीक के रूप में यह मनाया जाता है।
लक्ष्मी पूजन की प्रतीकात्मकता
दीपावली को लक्ष्मी पूजा से आशय है उस दिन लोग अपने-अपने घरों में दरिद्रता को निकाल फेंकते हैं। लक्ष्मी को स्थापित करते हैं। लक्ष्मी समृद्धि, सौंदर्य, स्निग्धता, वैभव की देवी है। अष्टदल कमल पर विराजमान देवी का ध्यान निम्न प्रकार से किया जाता है-
पद्मासनां पद्महस्तां पद्मां पद्मदलैर्युताम्
दिग्गजै:सेव्यमानां च कांचनै:कलशोत्तमै:।
अमृत सिंच्यमानां च श्वेच्छत्रविराजिताम्
सर्वालंकारसंयुक्तां महालक्ष्मीं विचिन्तये।।
अर्थात कमल पर बैठी लक्ष्मी के हाथ में कमल है कमल दलों से घिरी है। दिशाओं के स्वामी बड़े-बड़े हाथी स्वर्ण कलशों के अमृत से अभिसिंचित कर रहे हैं। एक सफेद छत्र उसके सिर पर छाया कर रहा है। शरीर गहनों से दमक रहा है-ऐसी लक्ष्मी का हम ध्यान करते हैं तथा प्रार्थना करते हैं-
त्रिभूवनमूति करे प्रसीद महयम्।
तीनों लोकों को भूति विभूति प्रदान करने वाली, मुझ पर कृपा करो।
'कमल' सुंदरता एवं स्निग्धता का प्रतीक है। लक्ष्मी जी के चित्रों और मूर्तियों में यह कमल प्रचुरता से व्यक्त हुआ है। कमल जल में रहकर जल से विलग रहता है। धनसंपत्ति अर्जित करें पर साथ ही उसके मोह से बचे रहें। क्योंकि मोहरहित रहकर ही दान दिया जा सकता है। लक्ष्मीवान बनने का भाव स्वयं को समृद्ध करना तो है ही, अन्य वंचित जनों को भी दान द्वारा समृद्ध करना है।
लक्ष्मी का पूरा श्रृंगार वस्त्र आभूषण सब सफेद हैं जो सात्विकता का प्रतीक है। अर्थात् लक्ष्मी को पुण्य कृत्यों से पाने का प्रयत्न करें तथा पापकृत्यों से विरत रहें। विष्णु सृष्टि के पालक हैं तो वह पालन अपनी शक्तिरूपा लक्ष्मी के माध्यम से ही करते हैं।
लक्ष्मी के वाहन उलूक (उल्लू) का भी महत्व है। उल्लू विभिन्न विचारधाराओं का प्रतीक है। ग्रीस में उलूक दार्शनिक भाव को दर्शाता है। फारस में उजाड़पन तथा खंडहरों का प्रतीक है। भारत में कुछ लोग उल्लू को नकारात्मकता से जोड़ते रहे हैं। दिन के प्रकाश में अंधे उल्लू को कहीं अज्ञान से तो कहीं मूर्खता से जोड़ा जाता है। अक्सर ‘=±±ÉÚ’ या उसके ‘{É]Âõ`äö’ को लेकर गाली-गलौज की जाती है। पर वास्तव में उल्लू गीता में वर्णित वह संयमी है जो रात में जागता है जब लोग भोग विलास में लीन रहते हैं।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।
आशय यही है कि लक्ष्मी उन्हीं का साथ देती हैं जो अपनी वासनाओं का दमन करना जानते हैं। लक्ष्मी का निवास वहां होता है जहां व्यक्ति नैतिकता के प्रति जागरूक रहकर अपने को दुर्भाग्य के अभिशाप से बचाते रहे हैं।
सामाजिक महत्व
पर्व- उत्सव समाज को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दीवाली पर्व आंतरिक शुद्धि के साथ बाह्य शुद्धि व पवित्रता पर जोर देता है। बाह्य शुद्धि के साथ आंतरिक शुद्धि की महत्ता बढ़ जाती है। देवता बनकर देवता की पूजा करे-यही मंत्र है-'देवो भूत्वा देवं यजेत'। दीपावली पर घर परिवार के सदस्यों को उपहार मिष्ठान्नादि देने की परंपरा तो है ही, मित्र बंधुजनों को भी यह उपहार प्रथा आपसी विनिमय से जोड़ती है। दीवाली मेले भी लोगों को एक दूसरे से जोड़ते हैं। बात यही है कि एकाकी-अकेले लक्ष्मी का भोग करने में आनंद नहीं। सबको खुशियां बांटते रहें-तभी दीवाली की सार्थकता है।
अंधविश्वास और कुरीतियां
इस पर्व से जुड़ा सबसे बड़ा अंधविश्वास है कि इस दिन जुआ खेलने से लक्ष्मी आती हैं। वास्तव में बात इसके विपरीत है। जुआ एक व्यसन है, बुरी लत है। लालच के वशीभूत होकर व्यक्ति एक-एक कर अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है और अंत में हार जाता है। तब पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहता। कुछ लोगों के अनुसार जुआ सदैव से निंदनीय रहा है। ऋग्वेद में कहा गया है अक्षै: मां दीन्य कृषिमित कृषस्व पासों से मत खेलो-खेती में ध्यान लगाओ। महाभारत काल में भी जुए के दुष्परिणाम दिखाए गए हैं जब पांडव जुए में राज्य के साथ-साथ द्रौपदी को भी हार जाते हैं। आज तो जुए के अनेक प्रकार प्रचलित हैं जो व्यक्ति व समाज दोनों का अहित करते हैं। इससे बचना चाहिए।
एक और बुराई जो दिन पर दिन भयावह रूप में उससे जुड़ती गई है वह है करोड़ों की आतिशबाजी जला डालना। संपत्ति नाश के साथ वातावरण अधिकाधिक प्रदूषित करती है यह दुष्प्रथा। फिर आतिशबाजी बनाने वाले कारखानों में हजारों बच्चों का बचपन तबाह हो जाता है।
इसी के साथ कई कई दिन तक हजारों हजारों बल्ब जलाकर रोशनी की जाती है जो ऊर्जा की खपत को बढ़ाती है। यह ऊर्जा यदि उत्पादक कार्यों में खर्च हो तो समाज कल्याण होगा। आपसी लेनदेन में भी पैसे का अनावश्यक प्रयोग। सामाजिक, व्यावसायिक तथा राजनीतिक लाभों के लिए लोग इस पवित्र अवसर पर महंगे-महंगे उपहार लेकर स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उपभोगवाद की वृद्धि ने इस पर्व की गरिमा को नष्ट किया है।
वैश्विकता
12 से अधिक देशों में दीपावली को सार्वजनिक अवकाश होता है। नेपाल, श्रीलंका, मारीशस, सिंगापुर, फिजी आदि में जोर-शोर से दीपावली मनाई जाती है। अन्यत्र भी विश्वभर में जहां भारतवंशी या अप्रवासीजन बसते हैं सर्वत्र यह पर्व मनाया जाने लगा है।
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