आम आदमी की कैसे दीवाली हो?
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दीवाली हो?
घमण्डीलाल अग्रवाल
चीनी, डीजल, गैस सभी कुछ महंगे हैं–
आम आदमी की कैसे दीवाली हो?
रोटी का ही चक्कर बस भरमाता है,
सुबह,दोपहर, शाम चैन कब आता है।
लिखीं पसलियों पर भूखों की गाथाएं,
प्यासों की गिनतियां अधर को भरमाएं।
व्याकुल सूरजमुखी, चमेली, गुलमोहर–
आखिर दुखी न क्यों बगिया का माली हो!
दीप नहीं दिल जलते हैं झोपड़ियों में,
दर्दों की फुलझड़ी चले खोपड़ियों में।
भय के एटम बम जिंदगी में छूटें,
उग्रवाद के अब अनार सौ–सौ फूटें।
हों उपाय ऐसे कि पूरी वसुधा पर–
छोटा बड़ा न कोई कहीं सवाली हो!
सच्चाई से हर दलील जब हारेगी,
न्यायालय की छड़ी झूठ को मारेगी।
असली में नकली में भेद रहेगा जब,
सही मायनों में दीवाली होगी तब।
गीत राम की जय के गूंजें दिशा दिशा–
सोच रहा हूं ऐसी कब खुशहाली हो।
दीवाली का अर्थ मेल से बनता है,
दीवाली का रूप प्रेम से सजता है।
कटुता सारी दूर कहीं पर भग जाए,
सद्भावों की लौ प्राणों में जल जाए।
हाथ उठाकर, शीश नवाकर बोलें सब–
घर का कोना-कोना तम से खाली हो!
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