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घर दही, तो बाहर दही 

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Oct 20, 2012, 12:00 am IST
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घर दही, तो बाहर दही

दिंनाक: 20 Oct 2012 13:19:29

दादी अपने आंगन की छ: सात बहुओं, सेवक-सेविकाओं को काम फरमाती हुई अकसर कहती सुनी जाती थीं-'तुम्हारे हाथ में दही जमा है क्या।' बिना अर्थ समझे हम भी बड़े होकर उस मुहावरे का प्रयोग करने लगे। कथन की गहराई में जाने पर सच्चाई हाथ लगी कि दही जमाना बड़ा कठिन काम है। प्रथम तो दूध को कितने हद तक औटाना, आंच कितनी धीमी रखना, पतीले की पेंदी में दूध को लगने से बचाना, दूध को ठंडा करना, उस तासीर में लाना जब जामन डाला जाए, जामन की मात्रा, जामन को दूध में अच्छी तरह मिलाना, बर्तन को ढंकना, समय पर खोलना, न जाने कितने उपाय। कितनी सावधानियां। गृष्म ऋतु में दही जमने में समय कम लगता है। उसके जमते ही ऐसी जगह में रखना जिससे खट्टा न हो। सर्द ऋतु में दही  जल्दी जमता नहीं, इसलिए बर्तन को कंबल या बोरे में लपेट कर धूप में रखना। दही जमाने से पहले दूध के ऊपर से मलाई निकालना भी एक कला ही है। मलाई से मक्खन और मक्खन से घी निकालना विशेष कला है।

सबसे बड़ी बात कि दही जमाने के माध्यम से ही दादी अपनी बहुओं को कुशलता या फूहड़ता का प्रमाण पत्र दे देती थीं। यूं तो घर चलाने का हर कार्य कला ही है, पर दही जमाना एक विशिष्टि कला। कई औरतें तो अपनी फूहड़ता के कारण दही जमाने के लिए जिन्दगी भर डांट सुनती रह जातीं। कइयों ने कभी जामन डाला ही नहीं।

एक दही के साथ न जाने कितने विशेष कार्य जुड़े हुए थे। दादी एक कहानी सुनाती थीं। एक बुढ़िया अपनी बहू की फूहड़ता के कारण घर की बर्बादी देख-देख ऊब गई। उसने एक दिन गुस्से में निर्णय लिया कि वह घर छोड़कर ही चली जाएगी। आंखों के सामने बर्बादी न देखेगी, न उसे परेशानी होगी। बहू से बोली-'अब मैं जा रही हूं। जैसे मन में आए रहो।' उसने अपनी दो साड़ियां थैले में रख ली। हुक्का और चिलम भी। बाहर निकलते समय उसे स्मरण हो आया लोटा। बिना लोटा के भला बाहर कैसे निकल सकती थी। वह रसोई घर में गई। वहां चूल्हे पर दूध उबल रहा था। उसे देखकर बुदबुदाई-' मैं अभी नहीं आती तो आधा दूध उफनकर पतीले से बाहर हो जाता। मेरे घर की महारानी तो बतकही कर रही हैं।' बहू को कोसती वह दूध उबालने लगी। उसे निश्चित प्रमाण में गाढ़ा किया। फिर ठंडाने बैठ गई। जामन डाला। खट्टा होने से बचाने के लिए पतीले को पानी में रखा। बेटे के भोजन करने का समय हो गया। बुढ़िया ने सोचा- 'बेटे को दही परोस दूं फिर बाहर निकलूं। दही खाते हुए बेटा बोला-' मां, आज तू ने दही जमाया क्या? तभी तो इतना अच्छा दही है। दीवार पर फेंको तो भी नहीं टूटे।'

मां खुश हो गई। उसने सोचा-'कल सुबह इकट्ठी की हुई मलाई का घी निकाल दूंगी।' उसने वैसा ही किया। इस बीच घर से बाहर जाना तो वह भूल ही गई।

दादी यह कहानी सुनाती हुई स्वयं हंसती थीं। अंत में कहतीं-'वह बुढ़िया मैं ही हूं। कहावत है- 'गृह कारज नाना जंजाला।' मैं समझती हूं कि गृह कारज में दूध-दही-मक्खन की व्यवस्था सबसे कठिन काम है। कुशलता का काम भी। दूध में जामन डालकर पात्र को बार-बार हिलाया नहीं जाता। इसीलिए किसी महिला में कहे हुए काम के लिए तत्परता न देखकर बड़ी-बूढ़ी कह उठती थीं-'हाथ में दही जमाया है क्या?' दही जमाना है तो हिलडुल नहीं सकती। उसे कहीं रखकर दूसरा काम नहीं कर सकती। 

दादी किसी साधु संन्यासी को देखकर कहतीं-'क्यों जप तप करने जंगल जाते हो। दही जमा कर दिखा दो तो जानूं। दही जमाना भी जप-तप के समान ही साधना है।'

दही जमाने में दक्ष थी दादी।  शादी-ब्याह के भोज के लिए एक-एक क्विंटल दही जमाया जाता था। अपने पड़ोस में हो रहे ऐसे अवसरों पर दही के लिए दूध की तासीर मांपतीं। जामन डालतीं। दूध-दही का देश रहा है भारत। हमारे देवता भी माखन चोर कहलाए। पर उसका रख-रखाव महिलाएं ही करती आई हैं। उन्हें ही दक्षता प्राप्त थी।

एक कहावत है-'भात दाल दही, तब भोजन कही।' अर्थात दही के बिना भोजन की पूर्णता नहीं होती। कई क्षेत्रों में भोजन के अंत में ही दही परोसा जाता है। भोज खिलाते हुए पत्तल में दही परोस देने का अर्थ है भोजन की समाप्ति। दही के बाद दूसरा कोई पदार्थ नहीं परोसा जाएगा। मिथिलांचल में दस-दस सेर दही एक व्यक्ति को खाते देखा जाता रहा है। भोज में इस बात की चर्चा होती थी-'दही का स्वाद कैसा था, खट्टा या मीठा।' दही खाने में बाजी लगती थी। दही समृद्धि का प्रतीक है। एक कहावत है-'घर दही तो बाहर दही।' यानी घर में दही खाने वालों को ही बाहर दही मिलता है। दही शुभ यात्रा के लिए भी सहायक होता है। किसी भी शुभ कार्य के लिए बाहर निकलते समय दही खाकर निकलने की परंपरा है। पिछले दिनों मेरी बेटी (अमेरिका में पढ़ती है) की परीक्षा चल रही थी। वह घर से निकलने ही वाली थी कि फोन की घंटी बजी। मेरा फोन उठाकर उसने कहा-' मां! मैंने दही खा लिया। अब जा रही हूं परीक्षा देने।'

मुझे प्रसन्नता इस बात की हुई कि उसने अमेरिका जाकर भी बचपन में सिखाई बातें याद रखी है। घर से यात्रा पर बाहर निकलने वक्त रास्ते में दही बेचने वाली मिल जाए तो शुभ माना जाता है। दुल्हन के दरवाजे पर आने पर उसे दही से भरी हांडी दिखाई जाती है। बेटे को दुल्हा बनाकर विवाह के लिए विदा करते समय दही का छोटा पात्र (मिट्टी का) हाथ में रखकर दुल्हे को चंदन टीका लगाया जाता है।

दही जमाने के लिए मिट्टी का पात्र ही उपयुक्त होता है। उस पात्र की सफाई भी एक कला होती थी। दही समाप्त होने पर उसे धोना, उसे धूप में या चूल्हे पर सुखाना। तभी दही अच्छा और स्वादिष्ट बनता था। रिश्तेदारों के बीच शादी-ब्याह या किसी भी यज्ञ में दही का आदान-प्रदान होना आवश्यक होता था। एक रिश्तेदार ने दो या चार हांडी दही (एक में 15 किलो) भेजा तो उसके घर यज्ञ होने पर दूसरे को उतनी ही हांडी भेजनी होगी। बाजार वालों ने महिलाओं के घर के कठिन काम हल्के कर दिए। कागज या प्लास्टिक के डब्बों में जमाया दही खरीद कर लाओ और खाओ। घर-घर नहीं रहा। स्त्री की सुघड़ता और फूहड़पन का पैमाना दही जमाना नहीं रहा। यह खुशी की बात नहीं है। दही जमाने के लिए दूध को उपयुक्त तासीर में लाने के लिए दादी और मां को जो मशक्कत करनी पड़ती थी, वह उनके व्यक्तित्व के गुणों को बढ़ाती थी।

गांवों में अधिक मात्रा में दही खाने वालों में किसी-किसी ने रेकार्ड बनाया होता है। पांच कि., दस कि., पन्द्रह कि. तक। उस रेकार्ड को तोड़ने के प्रयास होते रहते थे। सबकुछ बदल गया। अब न वैसे दही खब्बैया (खाने वाले) बचे न खिलाने वाले। बाजार से खरीद कर कौन खाए दही, कौन खिलाए।

कई स्थितियों में दही जमाने के उदाहरण समाज में दिए जाते रहे हैं। दिल्ली में शिकायत ले कर आई एक बेटी की मां की सुनवाई (महिला आयोग द्वारा) करती हुई, मुझे आश्चर्य हुआ कि उसे बेटी के ससुराल में हर पल घटती घटनाओं की जानकारी थी। अपने बेटी के विवाह के समय ही उसने मोबाइल सेट खरीदा था। ताकि बेटी के ससुराल पहुंचते ही हर पल की खबर ले सके। सुनवाई करते हुए मुझे लगा कि उसकी बेटी के ससुराल में उसका संबंध खराब होने का प्रमुख कारण मां के हाथ का मोबाइल ही था। मैंने पूछा-'बहन जी! आप घर में दही जमाती हो।'

वह विदक गई। भला बेटी का रिश्ता ससुराल में खराब होने से उसकी मां का दही जमाने से क्या रिश्ता? मैंने फिर पूछा-'दूध में जामन देकर उसे बार-बार डुलाती या उंगली डालकर देखती हो?'

'इतनी भी मैं मूर्ख नहीं हूं। ऐसा करने से दही नहीं जमेगा।' वह खीझ कर बोली।

मैंने शांत भाव से कहा-'बेटी को ससुराल भेजकर बार-बार मत टोको। उसे वहां जाने दो। ससुराल के लिए उसे दही (शुभ) बनने दो।'

उसके अंदर मेरी बात कुछ-कुछ जमने लगी थी। मेरी दादी ने ही ऐसा कहा था- 'बेटी, दूध के समान है, ससुराल का प्रेम जामन। ससुराल भेजकर उसे ज्यादा टोको (हिलाओ) मत। वहां की तासीर में जमने दो। दही बनने दो। काश! आज मेरी दादी होती। वे तो आज की लड़कियों की पढ़ाई को सीधे खारिज कर देतीं। जो दही जमायगी ही नहीं, वह कैसे समझ पाएगी दही की उपयोगिता।

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