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लम्बे कालखण्ड से इस विषय पर चर्चा चलती रहती और विवाद होता रहता है कि देश में कितने ईसाई हैं, कितने चर्च हैं, उन्हें विदेशों से कितना अनुदान प्राप्त होता है, वे कैसे मतान्तरण करते हैं, 'सेवा कार्य' करते हैं तो उसका क्या लाभ लेते हैं आदि-आदि। पर ईसाई संस्थाएं इतनी 'सफाई' या कहें कि चालाकी से 'विदेशी धन' से मतान्तरण का खेल खेलती हैं कि आपस में उनके तार जोड़ना बहुत कठिन होता है। इस दृष्टि से अभिनंदन के पात्र हैं श्री मिलिन्द ओक जिन्होंने चर्च केन्द्रित ईसाई संस्थाओं की संरचना, उद्देश्य, गतिविधियों, विदेश स्थित उनके मातृ संगठन के उद्देश्य, आर्थिक स्रोत व मिलने वाले चंदे का गहन व गंभीर अध्ययन व विश्लेषण किया है। उनकी 'क्रास पर्पेजेस्' नामक शोध पुस्तक का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है भारत नीति प्रतिष्ठान ने। इस पुस्तक की पठनीयता और उपयोगिता को इससे ही आंका जा सकता है कि प्रकाशन के तुरन्त बाद सन् 2012 में ही इसके तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
यह विषय इतना गंभीर है कि इसके 'प्राक्कथन' में प्रतिष्ठान के मानद निदेशक लिखते हैं- 'कुछ बुनियादी प्रश्न हैं-चंदा देने वाली संस्थाओं की प्रवृत्ति क्या है? चंदा प्राप्त करने वाली संस्थाओं की पृष्ठभूमि क्या है? क्या वे संस्थाएं चंदे से प्राप्त धन का अपने घोषित उद्देश्यों के लिए ईमानदारीपूर्वक उपयोग करती हैं?… यह बात सही है कि गरीब लोगों, शहरी झुग्गी बस्तियों में रहने वालों को गैरसरकारी सहायता समूहों से मदद मिल रही है, पर ऐसी संस्थाओं की भी कमी नहीं है जो अपने घोषित उद्देश्यों से अलग हटकर विदेशी धन का दुरुपयोग कर रही हैं।' अपने शोध से इसका उत्तर खोजा है श्री मिलिन्द ओक ने। उन्होंने पाया, 'भारत जैसे देश में ईसाइयों की कुल जनसंख्या की तुलना में ईसाई संस्थानों की संख्या ज्यादा है, और भारत के ईसाई संस्थानों को अमरीकी व यूरोप से मिलने वाली सहायता और उसका प्रभाव इसका प्रमुख कारक है।' भारत में ईसाइयों के अस्पष्ट जन सांख्यकीय आंकड़े के अध्ययन के दौरान लेखक ने पाया कि भारत में कुल 2 करोड़ 41 लाख ईसाई हैं यानी कुल जनसंख्या का 2.3 प्रतिशत। और इतनी ही बड़ी संख्या में 'क्रिप्टो क्रिश्चियन' हैं, अर्थात वे जो मतान्तरित ईसाई तो हैं, पर अनुसूचित जाति-जनजाति को मिलने वाली सरकारी सहायता का लाभ प्राप्त करने के लिए जनगणना में स्वयं को ईसाई नहीं दर्शाते। 'वर्ल्ड क्रिश्चियन इनसाइक्लोपीडिया' के अनुसार भारत में 1327 ईसाई सम्प्रदायों को मिलाकर 4.5 करोड़ ईसाई है तथा 2.15 करोड़ क्रिप्टो क्रिश्चियन हैं।
ये 'क्रिप्टो किश्चियन' कैसे बन रहे हैं, यह जानना है तो इन आंकड़ों को देखिए-भारत में 1134 ईसाई संस्थाओं को सन् 2006 से 2011 के बीच घोषित तौर पर (सरकारी आंकड़ों के अनुसार) 1 खरब, 62 अरब, 14 करोड़, 96 लाख, 01 हजार, 508 रुपए की विदेशी सहायता प्राप्त हुई है। इनमें से 368 ईसाई संस्थाएं ऐसी हैं जिन्हें प्रतिवर्ष 1 करोड़ रुपए से अधिक का विदेशी अनुदान प्राप्त होता है। दिल्ली की 'कैरीटेस इंडिया' को इन पांच वर्षों के दौरान 318 करोड़ रुपए की सहायता मिली तो तमिलनाडु की 'वर्ल्ड विजन इंडिया' को 1102 करोड़ रुपए की। 'वर्ल्ड विजन इंटरनेशनल' और 'एक्शन एड' नामक दो प्रमुख चर्च प्रेरित संगठनों की कार्य प्रणाली का विश्लेषण करते हुए श्री ओक ने यह रहस्योद्घाटन किया है कि चर्च के लिए सक्रिय सभी लोग वैतनिक हैं और विदेशों से प्राप्त होने वाली सहायता के बल पर अपने घोषित उद्देश्य से अलग हटकर बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं जिससे मतान्तरण के कार्य में सुगमता हो। इस दृष्टि से भारत नीति प्रतिष्ठान की 'हस्तक्षेप' श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित 'भ्रामक उद्देश्य' पुस्तक आंकड़ों के आलोक में ईसाई मिशनरियों, चर्च और उसे जुड़े गैरसरकारी संगठनों के 'उद्देश्यों' के 'भ्रम' को दूर करने का सफल प्रयास करती प्रतीत होती है।
पुस्तक का नाम – भ्रामक उद्देश्य
लेखक – मिलिन्द ओक
अनुवादक – ज्ञानेन्द्र पाण्डेय
प्रकाशक – भारत नीति प्रतिष्ठान
डी-51, हौजखास, नई दिल्ली 16
मूल्य – 80 रु. पृष्ठ – 96
सम्पर्क – (011) 26522016
ईमेल– Indiapolicy@gmail.com
भारत की पावन धरा पर हमेशा से ही दिव्य आत्माओं का अवतरण होता रहा है। इन ऋषियों-महर्षियों ने अपनी गहन वैचारिकता और विलक्षण दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति को वैश्विक पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह गौरवान्वित होने की बात है कि विगत दो सदियों में भी कई ऐसे दिव्य महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया, जिनका व्यक्तित्व और जीवन-दर्शन आज भी हम सभी के लिए प्रेरणापुञ्ज बना हुआ है। ऐसे ही पांच महापुरुषों के गहन दर्शन को संक्षिप्त रूप में सामने लाती है पुस्तक 'इंटेग्रल विजन: बेसिस फॉर ए न्यू स्मृति'। इस पुस्तक के संपादक (स्वर्गीय) कंदर्प रामचंद्र राव ने अपने विलक्षण संपादकीय कौशल का परिचय देते हुए इसे संग्रहणीय बना दिया है।
पांच खण्डों में विभाजित इस पुस्तक में स्वामी विवेदानंद, महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, मा.स. गोलवलकर (श्री गुरुजी) और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को संकलित किया गया है। प्रथम खण्ड 'वेदांतिक विजन' के अंतर्गत स्वामी विवेकानंद की विचारधारा और उनके आत्मजागरण को प्रेरित करने वाले दर्शन को प्रभावी ढंग से रखा गया है। धर्म, समाज, मनुजता, आत्मा और परमात्मा जैसी संकल्पनाओं की विल्कुल नए ढंग से परिभाषित करने के साथ ही स्वामी विवेकानंद के द्वारा वेदों-पुराणों और उपनिषदों में संकलित ज्ञान के भण्डार को भी सीधे-सरल शब्दों में व्याख्यायित किया गया है। प्रेम और शक्ति की महत्ता के साथ ही धर्म और मानव सेवा के संबंध में स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रस्तुत की गई संकल्पनाओं को भी इस पुस्तक में परिभाषित किया गया है।
पुस्तक के दूसरे खण्ड 'स्प्रिचुअल विजन' में महर्षि अरविन्द के दार्शनिक विचारों को संकलित किया गया है। आर्यों की संस्कृति और जीवन दर्शन में व्याप्त विशेषताओं को उल्लखित करते हुए उसे अपने जीवन में अपनाने को लेकर प्रदान किए गए योगी अरविन्द के विचार पुस्तक में भले ही संक्षिप्त रूप में दिए गए हों, लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण ऐसा प्रभावी और प्रवाहमय है कि सहजता से आत्मसात किया जा सकता है।
पुस्तक के तीसरे खंड 'सर्वोदय विजन' के अन्तर्गत महात्मा गांधी द्वारा परिभाषित 'सनातनी हिन्दू' की संकल्पना और आत्मानुशासन की महत्ता का विवरण बेहद विचारणीय और प्रेरक है। स्वराज, सत्याग्रह और आत्मिक अर्थशास्त्र के संबंध में गांधी जी द्वारा व्यक्त किए गए विचारों को भी संक्षिप्त रूप से पुस्तक में संकलित किया गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी के मूल्यवान विचारों को 'विजन ऑफ नेशनल स्वधर्म' में संकलित किया गया है। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के साथ ही हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूल स्वरूप की गहन व्याख्या, जो श्री गुरूजी ने की थी, उसे भी सार रूप में प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक के पांचवें खंड में विलक्षण विचारक और मानवतावादी विद्वान पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को 'विजन ऑफ इंटेग्रल मैन' खण्ड में संजोया गया है। इन विद्वानों के अलावा पुस्तक के अगले दो खंडों में भी 'इंटेग्रल विजन' को सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक आयामों में परिभाषित किया गया है। साथ ही सामूहिकता और समरसता की अवधारणा और उसके महत्व को रेखांकित किया गया है। स्पष्ट है कि यह पुस्तक गहन दार्शनिक विचारों का ऐसी किरण पुंज है जिससे हम जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण कर सकते हैं। ऐसा कृतियों का हिन्दी अनुवाद भी आना चाहिए।
पुस्तक का नाम –इंटेग्रल विजन, बेसिस फॉर ए न्यू स्मृति
संपादक – (स्व.) कंदर्प रामचंद्र राव
प्राप्ति स्थान – साहित्य निकेतन
3-4-252, केशव निलयम बरकतपुरा, हैदराबाद, 27
(040) 27563236
मूल्य – 400 रु. पृष्ठ – 454
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