दामाद की खातिर
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दामाद की खातिर

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Oct 13, 2012, 12:00 am IST
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दामाद की खातिर

दिंनाक: 13 Oct 2012 14:51:29

खासकर उत्तर भारत में दामाद की खातिरदारी की खातिर कुछ भी कर गुजरने की परम्परा है। भले ही गैर कानूनी हो, पर दामाद को खुश करने का यह सिलसिला विवाह के समय दहेज से शुरू हो कर आगे तक चलता ही रहता है। फिर आंचलिक परंपरा तो किसी एक घर के दामाद को गांव भर का दामाद मान कर उसकी खातिरदारी करने की भी रही है। हालांकि उत्तर भारत, खासकर ग्रामीण क्षेत्रांे से कांग्रेस का तंबू तेजी से उखड़ रहा है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व यानी सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाढरा की खातिरदारी में कांग्रेस की सरकारें उसी परंपरा का पालन करती नजर आ रही हैं। अपनी नेता के दामाद को पूरी कांग्रेस का ही दामाद मान कर उसकी खातिरदारी में कांग्रेस सरकारें सारे नियम-कानूनों को ही ताक पर रख कर जिस तरह जुट गयी हैं, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों द्वारा वाढरा की खातिरदारी का खुलासा तो 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' के अरविंद केजरीवाल कर चुके हैं, पर खुद कांग्रेसी राजनीतिक गलियारों की चर्चाओं पर विश्वास करें तो यह तो शुरुआत भर है, क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले में तो पूरा भारत एक है। कांग्रेसी दामाद ने जो खेल चुना, उससे फिर साबित हो गया कि क्यों कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार के आगे अन्य राजनीतिक दलों-नेताओं का भ्रष्टाचार बौना नजर आता है। देश की अग्रणी रियल एस्टेट कंपनी मानी जाने वाली डीएलएफ ने अपनी ही महंगी संपत्तियां कौड़ियों के मोल खरीदने के लिए वाढरा को बिना गारंटी ब्याजमुक्त ऋण दिया। अब वाढरा दामाद तो कांग्रेस के हैं, इसलिए डीएलएफ या अन्य कंपनियों ने भी उन पर जो मेहरबानी की होगी, उसकी एवज में कांग्रेस सरकारों से उन्हें कहां-कहां क्या-क्या मिला, यह अब देशव्यापी जांच का विषय है। क्या सरकार के दामाद की जांच होगी?  और होगी तो करेगा कौन?

सोनिया का हाथ हुड्डा के साथ

  अपराधों के मामले में बदनाम उत्तर प्रदेश और बिहार को मात दे कर तेजी से नंबर एक बनते हरियाणा में दबंगों के बलात्कार की शिकार वंचित किशोरी द्वारा आत्महत्या के बाद  कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी प्रभावित परिजनों को सांत्वना देने पहंुचीं तो लोग हैरत में पड़ गए। आखिर अपनी ही सरकार के विरुद्ध वह कहेंगी भी तो क्या, क्योंकि 'युवराज' को अक्सर गैर कांग्रेस शासित राज्यों में ही वंचित उत्पीड़न और अपराध नजर आते हैं। फिर याद आया कि हरियाणा के ही मिर्चपुर में दबंगों द्वारा एक वंचित और उसकी अपंग पुत्री को जिंदा जला दिये जाने पर 'युवराज' भी औचक दौरे पर पहुंचे थे। अब यह अलग बात है कि उन्हें न्याय और सुरक्षा आज तक नहीं मिल पायी। इसलिए सोनिया की जींद यात्रा पर सभी की निगाहें टिकी थीं, मीडिया से लेकर राजनेताओं तक की, पर परिणाम आशातीत ही आया। पीड़ित परिजनों को सांत्वना देने के बाद मादाम बोलीं, 'बलात्कार सिर्फ हरियाणा में नहीं हो रहे, अन्य राज्यों में भी हो रहे हैं।' लोग हैरत में पड़ गए कि अगर यही बोलना था, तो जाने की भी क्या जरूरत थी। पर सवाल है कि जिस राज्य की कांग्रेस सरकार ने दामाद की सबसे ज्यादा खातिरदारी की, वह उसके विरुद्ध बोल भी कैसे सकती थीं? नतीजतन, उधर सोनिया अपना हाथ हुड्डा के साथ दिखा कर वापस दिल्ली लौटी ही थीं कि हरियाणा में दो और बलात्कार हो गये।

न विजय, न सिंह

एक हैं मेजर विजय सिंह मनकोटिया। कांग्रेस टिकट पर पांच बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं। वीरभद्र सिंह सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। अचानक आत्मा जागी तो कांग्रेस से बगावत कर उन्होंने एक सीडी जारी कर वीरभद्र सिंह और उनकी पत्नी के कथित भ्रष्टाचार का खुलासा भी किया। पिछले चुनाव मेंे बसपा के हाथी पर सवार हुए तो मायावती ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया था। पर पार्टी तो छोड़िए, श्रीमान खुद चुनाव हार गये। सीडी ने जबरदस्त सनसनी फैलायी और जब पिछले दिनों शिमला की एक अदालत ने वीरभद्र सिंह के विरुद्ध भ्रष्टाचार और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप तय कर दिये तो वीरभद्र को मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल से इस्तीफा भी देना पड़ा, लेकिन वही मेजर विजय सिंह मनकोटिया अब कांग्रेस में लौट आये हैं। कांग्रेस के टिकट पर हिमाचल प्रदेश विधानसभा का चुनाव भी लड़ रहे हैं। दो कट्टर राजनीतिक दुश्मनों को एक साथ लाने का करिश्मा सोनिया भक्त कांग्रेस महासचिव बीरेंद्र सिंह ने कर दिखाया है। पर सीडी प्रकरण पर अब न वीरभद्र बोलने को तैयार हैं और न ही मनकोटिया। इसलिए सौदेबाजी को ले कर राजनीतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। पर अब चुनाव में जनता तो जवाब मांगेगी ही-और दोनों से मांगेगी।

हाथ–हाथी–सीबीआई

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के दोनों बड़े दलों, सपा और बसपा की राजनीति भी अजब है। सड़क पर कांग्रेस और उसकी सरकार को कोसने में कसर नहीं छोड़ते, पर संसद के अंदर उसकी बैसाखी बनने का कोई मौका नहीं चूकते। डीजल मूल्य वृद्धि, रसोई गैस की राशनिंग और फिर बहुब्रांड खुदरा कारोबार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सरीखे जन विरोधी फैसलों के विरोध में तृणमूल कांग्रेस के सरकार और संप्रग से बाहर चले जाने के बाद भी इन दलों का यही चरित्र उजागर हुआ। सपा भारत बंद के आह्वान में शामिल हुई, पर सरकार को समर्थन भी जारी रखा। बसपा ने लंबे अंतराल के बाद 9 अक्तूबर को विरोध में लखनऊ में रैली की। रैली में केंद्र की कांग्रेस सरकार और उत्तर प्रदेश की सपा सरकार को जम कर कोसा भी, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी पर फैसला टाल दिया। राजनीतिक गलियारों में इस दोहरे चरित्र को सीबीआई और सौदेबाजी, दोनों से जोड़ कर देखा जा रहा है। समदर्शी

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