मिस्र से खाड़ी देशों की ओर सरकता आतंकवाद
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इस्रायल और अमरीका को चुनौती
मुजफ्फर हुसैन
पिछले दिनों ईरान और सऊदी अरब में दो विश्व स्तरीय सम्मेलन सम्पन्न हुए। सऊदी अरब में 'आर्गेनाइजेन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज' का और ईरान में निर्गुट देशों का। दोनों ही सम्मेलनों में मुस्लिम देशों की संख्या सबसे अधिक थी। इन दोनों सम्मेलनों में ईरान को भारी प्रतिष्ठा मिली जिसके कारण उसका स्वर अधिक मुखर हुआ। वह चाहता है कि इस्रायल और अमरीका के नाम पर समस्त मुस्लिम राष्ट्रों को गोलबंद किया जाए और उसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक और सामरिक लाभ उठाया जाए। ईरान इसी बहाने से इस्रायल और अमरीका दोनों पर निशाना साध रहा है। वह अपने आस-पास के देशों में जहां कहीं अमरीका और इस्रायल का तनिक भी वर्चस्व है उसे समाप्त कर देना चाहता है। ईरान ने सऊदी अरब को मना लिया है या नहीं यह तो कुछ समय पश्चात ही पता लग सकेगा। लेकिन एक बात स्पष्ट है ईरान ने मनोवैज्ञानिक आधार पर यह प्रचारित करना प्रारम्भ कर दिया है कि जहां तक इस्रायल और मुस्लिम राष्ट्रों के टकराव का मामला है उसमें उसने कुछ हद तक सऊदी अरब को अपना पक्षधर बना लिया है। सऊदी की इस मामले में अब क्या नीति रहेगी और वह अमरीका और इस्रायल के विरुद्ध किस हद तक साथ देगा इसका अभी आकलन नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस बहाने ईरान ने खाड़ी के देशों में अपने पांव फैलाने शुरू कर दिए हैं। इन देशों को भयभीत करने के लिए आतंकवादियों का सहारा लिया जा सकता है। खाड़ी के देश अब तक आतंकवाद की चपेट से बचे हुए हैं, उन्हें प्रभावित करने के लिए अब यह खेल खेला जा रहा है। खाड़ी के देश यह महसूस करने लगे हैं कि मिस्र, लीबिया और सीरिया जैसा आतंकवाद यहां भी कायम किया जा सकता है। खाड़ी के छोटे-छोटे देश यदि भयभीत हो जाते हैं तो अमरीका को धक्का लग सकता है और ईरान का कद ऊंचा हो सकता है। ईरान और रियाद के सम्मेलन के पश्चात खाड़ी के देशों में जो परिवर्तन आ रहा है उसमें विदेशी ताकतों का हाथ स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। खाड़ी के देश अपने आपको इस संकट से परे रखना चाहते हैं।
शांति भंग करने का प्रयास
इस सम्बंध में अलअरबिया टीवी निरंतर समाचार प्रसारित कर रहा है। इन देशों के संगठन 'गल्फ काउन्सिल' ने इस मामले में कड़ा रुख धारण किया है। खाड़ी के अनेक नगरों में हो रही उथल-पुथल को देखते हुए वहां के शासक हैरान भी हैं और परेशान भी। इसलिए पिछले दिनों जाही खलफान, जो दुबई के सबसे बड़े सुरक्षा दल के अधिकारी हैं, ने अपना वक्तव्य जारी करते हुए कहा कि यदि ईरान ने खाड़ी के देशों को प्रभावित करने और इस क्षेत्र की सुरक्षा को खतरे में डालने की कोशिश की तो उसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। ईरान को समझ लेना चाहिए कि वह इस्लामी राष्ट्रों में फैले आतंकवाद को खाड़ी में नहीं धकेल सकता है। अपने आतंकवादियों के बलबूते पर खाड़ी की शांति को भंग किया तो इसे 'गल्फ काउन्सिल' पर हमला माना जाएगा। ईरान ने इन दोनों सम्मेलनों का भरपूर लाभ उठाने की रणनीति बनाई है। ईरान ने अपने शत्रु देश अमरीका को इस सम्मेलन के माध्यम से अनेक धमकियां दे डालीं। दुनिया जानती है कि अमरीका परमाणु शक्ति के मामले में ईरान के पर कतरना चाहता है। दूसरी ओर इस्रायल नहीं चाहता है कि ईरान परमाणु बम बनाकर उसकी सुरक्षा को चुनौती दे। अमरीका ने सऊदी अरब में होने वाले निर्गुट देशों के सम्मेलन का लाभ लेकर ईरान को सऊदी अरब के माध्यम से दबाने, डराने और समझाने का काम किया है। सऊदी राजा, जो जन्म से ही ईरान के विरोधी रहे हैं, इस बार ईरान के लिए पलक पांवड़े बिछाते हुए दिखाई पड़े। दुनिया जानती है कि सऊदी अरब कट्टर सुन्नी विचारधारा वाला देश है और ईरान शिया पंथी। भूतकाल में यह दोनों देश कभी आमने-सामने नहीं बैठे। लेकिन इस बार अमरीका के इशारे पर सऊदी ने ईरान के अहमदी नेजाद का भावभीना स्वागत किया। यहां तक कि उन्हें अपने पास बैठाया। ईरान इस आवभगत से परिचिति है। लेकिन किसी भी बहाने वह सऊदी अरब को अमरीका के कारण से अपना विरोधी नहीं बनाना चाहता। लेकिन इस सम्मेलन में मामला उस समय बिगड़ गया जब सीरिया के वर्तमान राष्ट्रपति बशरूल असद की निंदा की गई। जिस कारण सीरिया का प्रतिनिधिमंडल वहां से उठकर चला गया। यह पहला अवसर था कि मुस्लिम राष्ट्रों के इस सम्मेलन में मिस्र के राष्ट्रपति मुर्सी ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। मुर्सी ने पिछले दिनों चुनाव में अपने प्रतिस्पर्धी और हुसनी मुबारक के पूर्व प्रधानमंत्री अलशफीक को गिरफ्तार करने और देशद्रोह का अभियोग चलाने की जो बात कही है उससे अमरीका सहित अनेक पड़ोसी मुस्लिम राष्ट्र नाराज हैं। मुर्सी और फिलीस्तीन के राष्ट्रपति ने मिलकर अमरीका की कड़ी निंदा की और स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि वे इस्रायल को किसी भी कीमत पर माफ करने के लिए तैयार नहीं हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो मुस्लिम राष्ट्रों का यह सम्मेलन अमरीका और इस्रायल विरोधी बन गया।
इस्लामी राष्ट्रों में रोष
अमरीका हर उस देश का विरोध करता है, जो परमाणु शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। इसलिए ईरान का विरोध करना कोई नई बात नहीं है। ईरान जिस तरह से इस्रायल पर गुर्रा रहा है, उसे भी यह अधिकार नहीं हो सकता है कि वह उसे भयभीत करने का प्रयास करे। जब से इस्रायल का जन्म हुआ है अमरीका उसे पालता-पोसता है और हर तरह की रक्षा करता है। इसके बदले इस्रायल उसकी अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है। अमरीका में जो वैज्ञानिक प्रगति होती है इसका श्रेय भी यहूदी वैज्ञानिकों को ही है। विश्व में इस्रायल अकेला यहूदी देश है। ढाई हजार वर्ष के बाद यहूदियों को अपना देश पुन: मिला है इसलिए उसकी रक्षा करने में वे कोई कसर शेष नहीं रखते हैं। इस्रायल की स्थापना के पश्चात् तीन बार अरब-इस्रायल संघर्ष हो चुका है। हर बार मुस्लिम राष्ट्रों ने मात खाई है। समय के साथ फिलीस्तीन की सीमाएं सिकुड़ती चली गईं। इसका रोष अब भी इस्लामी राष्ट्रों में ज्यों का त्यों है। इस्रायल के मामले में अमरीका कोई समझौता नहीं करना चाहता है इसलिए इस्लामी देशों में उसके प्रति हर समय नाराजगी रही है। लेकिन अमरीका के साथ जिन मुस्लिम राष्ट्रों की सैनिक संधियां रही हैं वे कभी मुस्लिम राष्ट्रों के साथ मैदान में खुलकर नहीं आए हैं। जब भी आए हैं उन्हें हार का सामना करना पड़ा है। यहां तक कि तीसरी बार हार जाने के पश्चात तो हुसनी मुबारक ने केम्प डेविड में समझौता कर के इस्रायल की सारी शर्तें स्वीकार कर लीं। इसके बहाने उसे उसका सिनाई प्रदेश मिल गया। लेकिन सीरिया को गोलान की पहाड़ियां नहीं मिलीं और लेबनॉन को भी कोई लाभ नहीं मिला। इस यथार्थ को सामने रखते हुए इस्रायल के पड़ोसी देश उससे पंगा नहीं लेना चाहते हैं। मिस्र की शासक पार्टी इखवानुल मुसलिमीन अमरीका विरोधी है इसलिए अभी वह भले ही इस्रायल से दो-दो हाथ करने को तैयार हो जाए लेकिन मिस्र की अनुभवी सेना उसे यह करने से रोकने के लिए अपने प्रयास अंत तक करती रहेगी। ईरान अपनी ताकत पर इस्रायल से निपटने की बात करे तब भी उसे यह सौदा महंगा ही साबित होगा।
विष का प्याला
पिछले दिनों मुस्लिम राष्ट्रों में जो क्रांतियां हुईं वह वहां की स्थानीय सरकारों के विरुद्ध अवश्य हो सकती हैं लेकिन इस्रायल के विरोध में शत-प्रतिशत नहीं थीं। ईरान इस्लाम के नाम पर इस्रायल से अपना राजनीतिक वैर निकालना चाहता है। लेकिन इस मामले में हर देश अपनी सोच रखता है। यह आवश्यक नहीं कि ईरान यदि इस्रायल से युद्ध करना चाहता है तो अन्य देश भी उसमें शामिल हो जाएं। अमरीका ने मुस्लिम राष्ट्रों में इस समस्या को लेकर अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी है। यदि ईरान अमरीका से मुस्लिम राष्ट्रों को दूर करना चाहता है तो अमरीका भी ईरान को अलग-थलग पटकने में कोई कसर शेष नहीं रखेगा। ईरान की तुलना में अमरीका उनके लिए अधिक विश्वसनीय है।
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