रानी गणेशदेई की भक्ति

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स्त्री रत्न

दिंनाक: 15 Sep 2012 15:33:17

स्त्री रत्न

मधुकर शाह ओरछा के नरेश थे। इनकी पत्नी का नाम गणेशदेई था। ये परम भगवद्भक्त थीं। भगवद्भक्तों का आदर-सत्कार ये खूब प्रेम से किया करती थीं।

रानी गणेशदेई एक बार अयोध्या दर्शन के लिये आयीं। आयोध्या की मनोहर शोभा तथा सरयू के पुलिन में इनका मन अटक गया। ये वहीं रहने लगीं। इनके पतिदेव ने इन्हें लौट आने के लिए कई पत्र दिये, पर ये आजकल-आजकल करके टालती ही गयीं। अन्त में इन्हें अपने पतिदेव का एक और पत्र प्राप्त हुआ। उसमें लिखा था कि 'अब तुम कौसल्याकुमार को साथ लेकर ही लौटना।'

रानी अपने पति के इस भाव पर मुग्ध हो गयीं। वे बार-बार मन्दिर में जाकर प्रार्थना करने लगीं कि 'हे प्रभो! आप मेरे साथ ही ओरछा चलें। पर उन्हें कभी किसी ओर से कोई आज्ञा नहीं मिली। सर्वथा निराश होकर शरीर त्याग कर देने के विचार से वे सरयूजी के गहरे जल में कूद पड़ीं। कहा जाता है कि जल के भीतर ही इन्हें कौसल्याकुमार के दर्शन हो गये। साथ ही भगवान श्रीराम की एक प्रतिमा इनके अंक में आ गयी और ये सरयूजी के तट से आ लगीं।

रानी बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने सारा समाचार मधुकर शाह को लिख भेजा। मधुकर शाह ससैन्य अवध आये और भगवान के दर्शन कर कृतार्थ हुए। अयोध्या में पति-पत्नी ने खूब उत्सव मनाया और बहुत सा धन भी दान में दिया। प्रभु प्रेरणा से रानी ने पुष्यनक्षत्र में अयोध्या से ओरछा के लिये प्रस्थान किया। वे छब्बीस दिन तक एक ही स्थान पर रहतीं और फिर सत्ताईसवें दिन पुष्यनक्षत्र में चलतीं। इस प्रकार ये ओरछा आयीं। वहां पर अत्यन्त प्रेम से भगवान को स्थापित किया। बाद में श्रीजानकी जी तथा श्रीलक्ष्मण जी और अंजनी कुमार की मूर्तियां भी स्थापित की गयीं। गणेशदेई अत्यन्त श्रद्धा भक्ति और प्रेम से अपने ही हाथों पूजा करती थीं। इस कार्य में वे किसी का सहयोग पसंद नहीं करती थीं।

कुछ लोगों के मन में यह सन्देह था कि रानी को मूर्ति श्रीसरयूजी में नहीं मिली है, ये कहीं अन्यत्र से ले आयी हैं। घट घटव्यापी प्रभु ने लोगों का भ्रम निवारण करने के लिए एक दिन गणेशदेई से कहा- 'तुम बहुत समय से खड़ी हो, बैठ जाओ।' मूर्ति के सामने वे सदैव खड़ी ही रहती थीं। 'प्रभो! आप तो खड़े हैं, फिर मैं केसे बैठूं?' हाथ जोड़कर अत्यन्त विनीत शब्दों में रानी ने उत्तर दिया।

'मैं बैठूंगा तो फिर कभी नहीं उठूंगा'- भगवान बोले।

'आपकी जैसी इच्छा'- रानी ने उत्तर में नतमस्तक होकर कहा। भगवान् वीरासन से बैठ गये और अब तक उसी तरह बैठे हैं। श्रावण शुक्ल तृतीया को आप झूलन पर विराजते हैं। तब विशेष रूप से आनन्दोत्सव मनाया जाता है। कहा जाता है उसी मूर्ति की तरह अयोध्या में कनक भवन में श्रीरामचन्द्र जी अब विराजमान हैं। ये गोरे हैं और ओरछा के श्याम हैं।

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