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जिहादी उन्माद का समाधान क्या है?

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Sep 15, 2012, 12:00 am IST
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जिहादी उन्माद का समाधान क्या है?

दिंनाक: 15 Sep 2012 15:25:28

11 साल पहले 11 सितम्बर, 2001 को अमरीका की धरती पर जो भयंकर जिहादी हमला हुआ था, वह विश्व के इतिहास की एक अविस्मरणीय घटना है। उस हमले में भाग लेने वाले 19 मुस्लिम युवक अमरीका के मुक्त वातावरण में पले-बढ़े थे, अमरीका में ऊंचा वेतन पा रहे थे, पर मजहबी उन्माद ने उन पर हजारों निर्दोष नागरिकों की हत्या का नशा सवार करा दिया था। उस हमले में कुल कितने नागरिक मारे गये, इसका अब तक निर्णय नहीं हो पाया है। एक अनुमान के अनुसार यह संख्या 4579 बतायी जा रही है। इसे अमरीकी धैर्य का परिचायक ही कहना होगा कि उसने मृतकों और घायलों का टेलीविजन परदों पर प्रदर्शन करके छाती पीटने और हाहाकार मचाने का रास्ता नहीं अपनाया अपितु अपनी पीड़ा को अपने भीतर ही समेट कर इस अमानवीय उन्माद से लड़ने का लौह संकल्प ले लिया। अब ग्यारह वर्ष बाद उत्तरी अफ्रीका के लीबिया देश के बेनगाजी शहर में अमरीकी राजदूत क्रिस्टोफर स्टीवेंस की तीन अन्य अमरीकी राजनयिकों के साथ जिहादी उन्मादियों द्वारा हत्या ने विश्व को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि इस हिंसक उन्माद की जड़ें बहुत व्यापक और गहरी हैं। लीबिया और बेनगाजी को कर्नल गद्दाफी के अमानुषिक शिकंजे से मुक्त कराने में राजदूत स्टीवेंस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वे 2007 में बेनगाजी पहुंच गये थे, लीबिया के मुक्ति संघर्ष में उनका भारी योगदान था। पर शायद जिहादी विचारधारा कृतज्ञता की जिहादी विचारधारा में कोई जगह नहीं है, इसलिए इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद के अपमान से तिलमिलाये उन्मादियों ने अपने ही मुक्तिदाता के प्राण ले लिये। यह उन्माद केवल लीबिया तक सीमित नहीं है, अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों की आर्थिक, सैनिक और कूटनीतिक सहायता से हुस्नी मुबारक के बीसों वर्ष लम्बे एकछत्र शासन से मुक्त हुए मिस्र में एक दिन पहले ही उन्मादी प्रदर्शन शुरू हो गया था, और अब यमन की राजधानी सना में भी शुरू हो गया है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि धीरे-धीरे यह उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के सभी मुस्लिम देशों में यह उन्माद फैल जाएगा। कारण यह है कि अलकायदा के नये नेता अल जवाहिरी ने अमरीका को 'इस्लाम का शत्रु' घोषित कर रखा है और अमरीका को समूल नष्ट करने का आह्वान किया है। यद्यपि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा लगातार दोहरा रहे हैं कि अमरीका इस्लाम के नहीं बल्कि इस्लाम के राजनीतिकरण के विरुद्ध लड़ रहा है। लेकिन अलकायदा द्वारा 11 सितम्बर की 'बरसी' पर जारी किया गया वीडियो दावा करता है कि अमरीका अपने सभी मुस्लिम नागरिकों के उन्मूलन की योजना बना चुका है और अमरीकी मुसलमानों की जान खतरे में है।

उग्र विरोध का हथियार

जिहादी प्रचार तंत्र के इस चेहरे को देखकर अमरीका और अन्य पश्चिमी देश यह सोचने पर मजबूर हो गये हैं कि मध्य पूर्व के जिन अरब देशों में 'लोकतंत्र का अरब वसंत' खिलाया था, वह उनके लिए कालरात्रि बनकर दौड़ रहा है। उन्होंने इतिहास के इस अनुभव से कुछ नहीं सीखा कि इस्लाम की मजहबी निष्ठाएं केवल कुरान और पैगम्बर हजरत मुहम्मद की अन्धभक्ति में केन्द्रित हो गयी है। कुरान या मुहम्मद साहब के अपमान का नारा लगाते ही दुनिया भर के मुसलमान गुस्से से पागल होकर सड़कों पर उतर आते हैं। डेन्मार्क के एक पत्र में हजरत मुहम्मद के कुछ कार्टून प्रकाशित होने पर सीरिया, अफगानिस्तान, ईरान और लेबनान स्थित डेनमार्क के दूतावासों पर हमले किये गये थे, जिनमें दर्जनों लोग मारे गये थे। 2004 में डच फिल्म निर्माता थियो वान गोग ने मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा पर एक फिल्म बनायी जिसके लिए हालैण्ड की  राजधानी अमस्टर्डम में उन्हें जान से मार दिया गया। 2010 में फ्लोेरिडा के एक पादरी टेरी जोन्स द्वारा 9/11 की बरसी पर कुरान को जलाने का आह्वान देने मात्र से पूरे विश्व में उग्र प्रदर्शन किये गये। 2012 में अफगानिस्तान में अमरीकी सैनिकों द्वारा कुरान के पन्ने जलाने की अफवाह मात्र से 30 अफगानों और 6 अमरीकियों को अपने प्राण गंवाने पड़े… ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। विशेष बात यह है कि यह अंधश्रद्धा और हिंसक उन्माद किसी एकाध देश तक सीमित नहीं है बल्कि पूरे विश्व के मुसलमानों में व्याप्त है। डेनिश कार्टूनों को लेकर भारत में भी कश्मीर से लेकर केरल तक उग्र प्रदर्शन हुए थे। मेरठ के एक मुस्लिम विधायक ने उस कार्टूनिस्ट की हत्या करने वाले को 50 करोड़ रु.का इनाम देने की की घोषणा की थी।

इस समय भी 14 मिनट की एक वीडियो फिल्म को लेकर यह उन्माद फैलाया जा रहा है। इस्रायली मूल के एक अमरीकी नागरिक साम बसिल ने इस्लाम की उत्पत्ति को लेकर एक फिल्म बनायी, जिसे शीर्षक दिया 'इन्नोसेंस आफ दि मुस्लिम'। इस फिल्म में बताया गया है कि इस्लाम के जन्म का कोई समकालीन साक्षी लिखित रूप में प्राप्त नहीं है, यह केवल मौखिक परम्परा पर आधारित है। इस वीडियो फिल्म को 'यू ट्यूब वेबसाइट' पर प्रसारित किया गया। इससे मुस्लिमों ने अर्थ निकाला कि हजरत पैगम्बर मुहम्मद को 'जालसाजी' बताया गया है। क्या इस लांछन का खंडन करने के लिए मुस्लिम परम्परा से साक्ष्य नहीं जुटाये जा सकते थे? जब सलमान रुश्दी ने अपनी पुस्तक 'सैटेनिक वर्सेज' में कुरान की उन आयतों को छाप दिया था जिन्हें छापने का निषेध किया गया है, तो उन आयतों की प्रामाणिकता को चुनौती देने एवं उन पर बहस करने के बजाय ईरान के नेता अयातुल्लाह खुमैनी ने उनकी हत्या करने का फतवा जारी कर दिया। अभी हाल में रुश्दी ने एक नयी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसमें बतया गया है कि उस फतवे के विरुद्ध अपने प्राण बचाने के लिए उन्हें कैसे 20-22 स्थानों पर छिपकर रहना पड़ा। अगर आज वे सशरीर विद्यमान हैं तो इसका एकमेव कारण यह है कि ब्रिटिश और पश्चिमी देशों ने उन्हें शरण व सुरक्षा प्रदान की। इसी प्रकार बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन यदि मुहम्मद साहब के अपमान का लांछन लगने पर भी जिंदा हैं तो इसलिए कि भारत उनकी यथासंभव रक्षा कर रहा है।

कुरान और हदीस पर बहस क्यों नहीं?

वस्तुत: हजरत मुहम्मद की छह-सात प्रामाणिक जीवनियां तत्कालीन अथवा तुरंत बाद के अरब लेखकों ने लिपिबद्ध की थीं। उसमें उनके जीवन की एक-एक घटना शीशे की तरह स्पष्ट है। उन्हीं जीवनियों के आधार पर यदि कोई आधुनिक लेखक कुछ लिखता है या चित्र बनाता है तो उसे हजरत मुहम्मद के लिए अपमानजनक क्यों माना जाता है? अन्य पंथ प्रवर्तकों के साथ ऐसा क्यों नहीं होता? मुस्लिम समाज में एक मुहावरा प्रचलित है कि 'अल्लाह की शान में गुस्ताखी कर सकते हो मगर पैगम्बर की शान में गुस्ताखी की, तो खैर नहीं।' इस्लाम के दो ही अन्तिम स्रोत माने जाते हैं-एक कुरान और दूसरा हदीस, यानी पैगम्बर का जीवन। क्या इस्लाम को समझने के लिए इन दोनों स्रोतों का वैज्ञानिकों व ऐतिहासिक अध्ययन आवश्यक नहीं है? ऐसे किसी भी अध्ययन को कुफ्र की श्रेणी में क्यों रखा गया है और उसके लिए हत्या की सजा क्यों तय की गयी है? यही कारण है कि 9/11 के बाद अमरीका और पश्चिमी देशों की सैनिक शक्ति के भय से जब तथाकथित उदार मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने जिहादी आतंकवाद की निंदा करना आवश्यक समझा, तब वे भी कुरान और पैगम्बर पर जाकर रुक गये। उनके परे जाने का साहस उन्होंने नहीं दिखाया-चाहे वे मलेशिया के महाथिर मुहम्मद हों या भारत के (स्व.)रफीक जकारिया। इन दोनों स्रोतों के आधार पर आमने-सामने बैठकर खुली बहस करने का साहस वे नहीं बटोर पाये। इस संबंध में एकऔर बहुत महत्वपूर्ण प्रकरण है। जब मुल्ला मुहम्मद उमर के नेतृत्व में अफगानिस्तान के तालिबानों ने बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं का ध्वंस आरंभ किया तब अंग्रेजी पढ़े-लिखे उदार मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य को गैरइस्लामी घोषित किया और हजरत मुहम्मद व कुरान की दुहाई दी। तब मुल्ला उमर ने उन्हें ललकार कर कहा कि मेज पर आमने-सामने बैठकर बात करो तब दिखायेंगे कि कुरान और पैगम्बर का इस्लाम हम जानते हैं या तुम? मुल्ला उमर की इस चुनौती को स्वीकार करने का साहस किसी उदार मुस्लिम बुद्धिजीवी में नहीं हुआ।

इतिहास का सामना करने से मुस्लिम मजहबी नेतृत्व कितना घबराता है इसी का ताजा उदाहरण है कि अमरीकी वीडियो से भड़के उन्माद से भयभीत होकर फिर ब्रिटिश चैनल 4 ने एक स्थापित इतिहासकार टोनी हालैंड की फिल्म 'इस्लाम दि अनटोल्ड स्टोरी' (इस्लाम एक अनकही कहानी) का पूर्व घोषित प्रसारण रोक दिया। ऐसी घटनाओं से प्रगट होता है कि इस्लाम आतंक और भय के सहारे अपने को जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। जो उसमें प्रवेश कर गये हैं वे उससे बाहर नहीं आ सकते-प्राणों के भय से।

उदार और संकुचित विचारधारा

यह स्थिति संसार के किसी भी दूसरे उपासना पंथ में नहीं है। पश्चिम के ईसाई बौद्धिकों ने ईसाई पंथ के प्रवर्त्तक ईसा मसीह के बारे में चर्च द्वारा निर्मित अनेक मिथकों को अनैतिहासिक सिद्ध कर दिया है। ईसा मसीह के वैवाहिक जीवन, उनकी फांसी व पुनरुज्जीवन को लेकर जो अनेक मिथक प्रचलित हैं, उन्हें धराशायी कर दिया है। ईसा मसीह को लेकर ऐसी फिल्मों का निर्माण किया गया है जो उनकी अब तक की छवि को ध्वस्त करती हैं, किन्तु ऐसे लेखकों व शोधकर्त्ताओं के विरुद्ध कभी कोई उन्माद प्रदर्शन नहीं हुआ। कोई तोड़ फोड़ नहीं हुई, कोई हिंसा नहीं हुई। ईसाई शोधकर्त्ताओं ने बाइबिल के वर्तमान संस्करण की प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं।

जहां तक भारत का सवाल है, भारत में तो बड़े प्राचीन काल से वेदों के ऋषियों को धूर्त्त तक कह दिया गया। राम और कृष्ण की ऐतिहासिकता को अस्वीकार किया गया। आज इस देश में महात्मा गांधी से अधिक डा.अम्बेडकर की प्रतिमाएंे हैं। पर इससे न तो परम्परा का प्रवाह खंडित हुआ है और न ही समाज जीवन में कटुता पैदा हुई है। इसका सबसे ताजा उदाहरण तो एक युवा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी है। अपरिपक्व असीम ने आक्रोश में भरकर अपने कार्टूनों के माध्यम से भारत के वर्तमान श्रद्धाकेन्द्रों को लेकर ऐसे कार्टून बनाये जो अश्लील और अशोभनीय होने के साथ-साथ उन श्रद्धाकेन्द्रों का अपमान भी करते हैं। एक कार्टून में उसने मुम्बई कांड के एकमात्र जीवित अपराधी अब्दुल कसाब को भारतीय संविधान पर मूत्र विसर्जित करते हुए दिखाया है। एक अन्य कार्टून में उसने भारत माता के साथ सामूहिक बलात्कार का चित्रण किया है। एक कार्टून में उसने राष्ट्र ध्वज की होली जलाते दिखाया है। उनके मन का भाव चाहे जो रहा हो किन्तु ऐसे कार्टूनों से जन आस्थाओं को जो चोट लगती है, उसकी सब ओर से निंदा होने पर भी सभी ने उन पर राजद्रोह के आरोप की भी निंदा की है। उसे जेल में बंद करने के महाराष्ट्र सरकार के कदम को 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला' बताया है। कितना अंतर है भारत की प्रकृति और जिहादी विचारधारा के पुरोधाओं की सोच में, क्या ये इस्लामी पुरोधा तर्क और तथ्य की भाषा समझ सकते हैं?

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