|
नर्मदा पापनाशिनी देव-नदी है। यूं नदियां तो सभी पवित्र हैं। उनमें भी जो सीधी समुद्र में जाकर मिलती हैं वे नदियों में श्रेष्ठ हैं। समुद्र में मिलने वाली नदियों में भी जो चार नदियां सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं वे गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा हैं। गंगा को ऋग्वेद स्वरूपा, यमुना यजुर्वेदस्वरूपा, नर्मदा सामवेदस्वरूपा और सरस्वती अथर्ववेदस्वरूपा मानी जाती हैं। नर्मदा को भगवान शिव के स्वेद से उत्पन्न माना गया है। पुराणों में ऐसी कथा आती है।
मत्स्यपुराण के अनुसार नर्मदा ने अपनी निष्ठा तथा योग्यता से तीन और नदियों में सर्वोच्च स्थान तो अर्जित कर लिया। किन्तु वह चाहती थी कि उसे शिखर-स्थान प्राप्त हो जाए। वह संचेतन नदी थी। उसे अहसास था कि यह बिना तपस्या किए प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए उसने तपस्या की, जिससे ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए। उन्होंने वर मांगने को कहा। बस, क्या था उसने तपाक से कहा, 'मुझे गंगा के समान सर्वोत्तम स्थान चाहिए'। ब्रह्माजी उसे समझाकर बोले, 'भगवान पुरुषोत्तम के समान कोई दूसरा पुरुष नहीं हो सकता,सती पार्वती के समान कोई और नारी नहीं हो सकती, काशी जैसी परमपावन कोई अन्य पुरी नहीं हो सकती, तब तुम कैसे कहती हो कि मैं गंगा-समान सर्वोत्तम बन जाऊं।'
अब नर्मदा अपने पिता शिवजी के पांव पड़ी। तपस्या जो कर ली थी, आशुतोष प्रसन्न क्यों न होते। पूछा, 'क्या चाहती हो?' नर्मदा बोली, 'मैं चाहती हूं कि आपके चरण-कमलों में मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।' शिवजी ने उसकी प्रार्थना सुनकर कहा, 'बेटी, देखो, मैं यह वरदान तो तुम्हें दे ही रहा हूं और भी देना चाहूंगा। भक्ति के अतिरिक्त एक वर तो यह देता हूं कि गंगा, यमुना, सरस्वती और तुम, चार सर्वोत्तम नदियां मानी जाती हैं, तुम इन चारों में श्रेष्ठतम मानी जाओगी।' फिर आगे बोले, 'सुन पुत्री, गंगा में स्नान करने से तुरंत निष्पाप हो जाओगे। यमुना के तट पर सात दिन तक रहो, स्नान-पूजन करो तब निष्पाप होंगे। सरस्वती के तट पर तीन दिनों तक रहने पर निष्पाप हो जाते हैं। परंतु पुत्री रेवा, तुम्हारे तो केवल दर्शन मात्र से ही प्राणी पापरहित हो जाएंगे।'
नर्मदाजी इन वरदानों के पाने के बाद काशी से अपने विंध्य प्रदेश (अब मध्य प्रदेश) के स्वस्थान की ओर चली गईं। शिवजी के प्रताप से नर्मदा सर्वोत्तम बन गई। इसका प्रत्येक कंकर शंकर है और किसी भी नदी के जयकार में उसके पिता का नाम नहीं लिया जाता। इसके पिता ने इसे सर्वश्रेष्ठ बना दिया। इसलिए इसके साथ ही इसके पिता का नाम लिया जाता है- 'नर्मदे- हर'।
इसकी एक और विशेषता यह है कि अनादिकाल से इसकी जैसी विधिवत् परिक्रमा होती है वैसी किसी भी नदी की नहीं की जाती। इन्हीं सब कारणों से नर्मदा का महत्व सबसे अधिक है। वैसे तो लगभग सभी पुराणों में नर्मदा का महत्व बताया गया है, किन्तु वायुपुराण और स्कंद पुराण में रेवा खंड अलग से है। पूरे भारत के शिव मंदिरों में नर्मदा से लाए हुए शिवलिंग ही स्थापित होते हैं। नर्मदेश्वर का दर्शन नर्मदा के दर्शन के समान ही है। नर्मदा का महात्म्य विस्तार से जानने के लिए श्रीमद्भागवत पढ़नी चाहिए।
नर्मदा के किनारे आकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लोकपाल,देवता, राक्षस, बानर, भालू, अप्सरा, यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि सभी ने तप करके सिद्धिप्राप्त की। तभी तो कहा है, रेवातीर्थे तप: कुर्यात् मरणं जाह्नवी तटे– नर्मदा के तट पर तपस्या करें और मृत्यु के समय गंगा के तट पर आ जाएं। नर्मदा का उद्गम अमरकंटक से होता है। यहां से छोटी-छोटी धाराएं निकलती हैं जो आगे चलकर विशाल आकार ले लेती हैं। एक बड़ा कुंड है जहां से नर्मदा बांस की पिंडी से निकली थी। इसके चारों ओर नर्मदा, अमरनाथ, नर्मदेश्वर और अमरकंटकेश्वर के मंदिर बने हैं। नर्मदा के तट पर सैकड़ों तीर्थ हैं- ओंकरेश्वर, गोपालपुर त्रिशूल घाट, तिलवाड़ा घाट, नंदिकेश्वर तीर्थ, सहस्रधारा तीर्थ, कपिलधारा, माई का बगीचा, करमंडल, लुकेश्वरतीर्थ, रामघाट, हुसंगाबाद, हंडिया, बलकेश्वर घाट, काबेरी संगम, स्वर्णदीप तीर्थ, मांडव्याश्रम, सिद्धेश्वर तीर्थ, रेवासंगम तीर्थ, भड़ौच आदि आदि। कमाल यह है कि प्रत्येक तीर्थ का वर्णन किसी-न किसी पुराण में अवश्य मिलेगा।
इन तीर्थों में ओंकारेश्वर का सर्वाधिक धार्मिक महत्व है। यह बारह शिवलिंगों में से एक है। एक ओंकारेश्वर तो मध्य नर्मदा में है और अमलेश्वर इस पार है। ओंकारेश्वर के हिस्से हैं- एक तो विष्णुपुरी ओंकारेश्वर और दूसरे शिवपुरी ओंकारेश्वर। नर्मदा- क्षेत्र में नर्मदा के तीन स्थानों का विशेष महात्म्य है-
सर्वत्र सुलभा रेवा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा:।
ओंकारे।़थ भृगुक्षेत्रे तथा रेवोरिसंगमे।।
नर्मदा वैसे तो सभी स्थानों पर सुलभ है, परंतु तीन स्थानों पर दुर्लभ है। एक तो ओंकारेश्वर में, जहां नर्मदा-कावेरी संगम है, दूसरे जहां नर्मदा का समुद्र में संगम है- भड़ौच और तीसरा कर्नाली रेवोरि नदी जहां नर्मदा में मिली है- चांदोद ¨Éå* (º´É. ममगाईं जी की पाञ्चजन्य को भेजी गई अंतिम रचना)
टिप्पणियाँ