उतर गयी लोई…
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मनमोहन सिंह सरकार के एक के बाद एक घोटाले उजागर हो रहे हैं, पर उसके मंत्री हैं कि उन्हें सिरे से नकार कर ऐसी-ऐसी बातें सामते रखते हैं कि बेशर्म से बेशर्म इनसान भी शरमा जाये। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी 'कैग' सरकार की अपनी 'ऑडिटर' है और एक संवैधानिक संस्था है। उसी ने अपनी रपट में यह खुलासा किया है कि 2004 से 2009 के बीच बिना नीलामी कोयला खदानों की बंदरबांट से सरकार को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हुआ। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार के मंत्री दावा कर रहे हैं कि कोई नुकसान हुआ ही नहीं। सबसे पहले यह तर्क पुन: वित्त मंत्री बनाये गये पी. चिदंबरम ने दिया। उन्होंने कहा कि कोयला अभी भी धरती के अंदर है, जब खनन हो कर कोयला बिका ही नहीं तो नुकसान कैसे हो गया? कारण तो पता नहीं, पर तीन दिन बाद चिदंबरम ने अपने इस तर्क से मुकर कर ठीकरा मीडिया के सिर फोड़ दिया। उसके बाद आगे आये कपिल सिब्बल। उन्होंने भी कमोबेश इसी तर्क के सहारे कहा कि न तो कोयला निकला और न ही बिका तो फिर नुकसान कहां और कैसे? एक हिंदी फिल्म में गाना था- 'इट हैपंस ओनली इन इंडिया'। यह गाना मनमोहन सिंह सरकार पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। सरकार खुद ही संवैधानिक संस्थाओं की धज्जियां उड़ा रही है। 'कैग' को 'ऑडिट' में विशेषज्ञता भी हासिल है और यह उसका संवैधानिक दायित्व भी है, जबकि पेशे से वकील चिदंबरम और सिब्बल का इस क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं। फिर भी वे 'कैग' की काबिलियत पर सवाल उठा रहे हैं। पर जब प्रधानमंत्री ही इस रपट को तथ्यहीन और दोषपूर्ण करार दे रहे हैं, तो फिर मंत्रियों को क्या कहा जाये? बड़ी पुरानी कहावत है-उतर गयी लोई तो क्या करेगा कोई? बताते चलें कि लोई से यहां तात्पर्य लज्जा से है।
सरकार की रफ्तार
आवंटन के बजाय कोयला खदानें नीलाम करने की नीति पर अमल को आठ साल टाल कर 142 खदानों की बंदरबांट से चहेती निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने वाली मनमोहन सिंह की रफ्तार इस बंदरबांट में ही चौंकान वाली भी रही। अपनी ही नीति पर मनमोहन सिंह सरकार भले ही आठ साल से अमल नहीं कर पायी, पर चहेतों को कोयला खदान आवंटन में उसने एक दिन का समय भी नहीं लगाया। कांग्रेस की तानाशाही और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आजादी की दूसरी लड़ाई माने गये जेपी आंदोलन से निकल कर सत्ता की खातिर कांग्रेसी बन गये सुबोध कांत सहाय मनमोहन सिंह सरकार में खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हैं। उन्होंने 5 फरवरी, 2008 को एसकेएस इस्पात एंड पॉवर लिमिटेड को छत्तीसगढ़ और झारखंड में दो कोयला खदानें आवंटित करने के लिए प्रधानमंत्री, जो उस समय कोयला मंत्रालय भी संभाल रहे थे, को सिफारिशी पत्र लिखा, जो अगले ही दिन प्रधानमंत्री कार्यालय से कोयला मंत्रालय के सचिव को अग्रसारित ही नहीं कर दिया गया, बल्कि कोयला खदान भी आवंटित कर दी गयीं, मानो कोयला खदानों का आवंटन भी रेलवे के तत्काल टिकट की तरह हो रहा हो। इस खुलासे पर तो सरकार मौन है ही, इस सवाल से भी मुंह चुराया जा रहा है कि आखिर यह एसकेएस कंपनी है किसकी? वैसे सुबोध कांत सहाय के नाम का संक्षिप्त भी अंग्रेजी में 'एसकेएस' ही होता है।
साइकिल चढ़ गयी कारों पर
2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने नारा दिया था-चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर। मुलायम सिंह यादव के सपाई गुंडाराज से आजिज मतदाताओं ने हाथी पर मुहर लगा दी तो मायावती मुख्यमंत्री बन गयीं। पर गुंडाराज बरकरार रहा। हुआ यह कि सत्ता बदलते ही गुंडे भी हाथी पर चढ़ गये। इस पर भाजपा नेता अरुण जेटली ने एक नारा भी गढ़ डाला-गुंडे चढ़ गये हाथी पर, गोली मारें छाती पर। 2012 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने इस उम्मीद में वापस समाजवादी पार्टी पर दांव लगाया कि मुलायम ने कुछ तो सबक सीखा होगा। सपा को अकेलेदम बहुमत मिला तो मुलायम ने मुख्यमंत्री की कुर्सी बेटे अखिलेश को सौंप दी। अब जनता फिर गुंडाराज से आजिज है। दरअसल गुंडे वापस साइकिल पर चढ़ गये हैं और साइकिलवाला सपाई झंडा ही अब तमाम बाहुबलियों की कारों पर लग गया है। उत्तर प्रदेश में अपराधियों की यह दलबदल कितनी तेजी से होती है, इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा-मकानों पर कब्जे समेत तमाम तरह के आपराधिक मुकदमों में फंसे युवा कांग्रेस के एक फर्जी पदाधिकारी को जब साहिबाबाद विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस का टिकट नहीं मिला तो उसने जनता दल (यूनाइटेड) के टिकट का जुगाड़ कर लिया। नतीजा वही निकला जो निकलना था, सो जमानत जब्त करवा कर राज्य में सरकार बनते ही वह सपरिवार समाजवादी पार्टी में चला गया। आखिर अवैध खनन के धंधे के लिए सत्ता की सरपरस्ती तो चाहिए ही। समदर्शी
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