राष्ट्रबोध का अभाव सबसे बड़ी चुनौती-प्रेमभूषण महाराज, रामकथा मर्मज्ञ
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राष्ट्रबोध का अभाव सबसे बड़ी चुनौती-प्रेमभूषण महाराज, रामकथा मर्मज्ञ

by
Aug 16, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Aug 2012 19:42:39

 

 

सुप्रसिद्ध कथा वाचक प्रेमभूषण महाराज की रामकथा जनमानस में केवल भक्ति और आस्था पैदा करने का ही माध्यम नहीं रह गई है, उन्होंने कथा को प्रयत्नपूर्वक सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ा है। वे कहते हैं कि कोई भी कथा, चाहे वह किसी भी संत या महापुरुष द्वारा कही जा रही हो, अगर उसने सामाजिक सरोकारों को नहीं साधा तो उतनी सार्थक नहीं रह पाएगी जितनी होनी चाहिए। 1992 से निरन्तर संगीतमयी रामकथा के द्वारा समाज को जोड़ने वाले रामकथा मर्मज्ञ प्रेमभूषण महाराज हर साल देश के विभिन्न भागों में 20 कथाएं कहते हैं। प्रकांड विद्वान जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी उनके गुरु हैं। उन्हीं को आदर्श मानकर आगे बढ़े प्रेमभूषण महाराज ने रामकथा के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान हासिल किया है।

राम–राजनीति

राजनीति से दूर-दूर तक का रिश्ता न रखने वाले प्रेमभूषण महाराज रामकथा में ‘®úɨÉ-®úÉVÉxÉÒÊiÉ' के द्वारा राजनेताओं को नसीहत भी देते रहते हैं। वे कहते हैं, ‘®úÉVÉxÉÒÊiÉ न धर्म पर आधारित होनी चाहिए और न ही राजनीति आधारित धर्म। वस्तुत: राजनीति धर्मसम्मत होनी SÉÉʽþB*’ उन्होंने देश की चुनौतियों के बारे में कहा कि सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रबोध का अभाव है। जब तक में राजा से लेकर प्रजा तक व्यक्तिगत रूप से राष्ट्र के प्रति अखण्ड अपनत्व और कर्तव्यबोध की भावना प्रबल नहीं होगी, तब तक किसी भी संकट का सामना करना देश और समाज के लिए कठिन होगा। उन्होंने इसे राम-राजनीति की संज्ञा दी। कहा कि, ‘VÉèºÉä रामजी की राजसत्ता की ओर से प्रजा का हर प्रकार से ध्यान रखा जाता था और उसी परिमाण में प्रजा भी देश तथा राजसत्ता के प्रति व्यक्तिगत ईमानदारी रखते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करती थी, वैसा ही अब भी होना SÉÉʽþB*’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान राजनेताओं ने अपने कर्तव्यों का पालन नहीं किया।

नहीं चाहिए दिखावा

 प्रेमभूषण महाराज कहते हैं, ‘ªÉ½þ सरकार की ही तो कमी है कि आज हम ओलम्पिक में कांस्य और रजत पदक पाकर फूले नहीं समा रहे हैं। स्वर्ण की तो हम सोच भी नहीं पा रहे हैं। आखिर खेल मंत्रालय क्या कर रहा है? इतना बड़ा बजट कहां जा रहा ½èþ?’ फिर वे कहते हैं कि व्यक्तिगत ईमानदारी और कर्तव्य की भावना ऊपर से नीचे की ओर आती है। ऐसा कैसे हो सकता है कि परिवार का मुखिया बेईमान हो और अन्य सदस्य ईमानदार हों? सत्ता में रहने वाले कानून बनाएंगे और यह भी चाहेंगे कि गलत काम की सजा उन्हें न मिले, तो घोटाला होगा ही। स्वराष्ट्रभाव, स्वभाषा के प्रति सम्मान का बोध, स्वधर्म-प्रेम, स्वसंस्कृति पर गर्व करना अन्तर्मन से अंगीकार करना होगा। ये बातें केवल दिखावे और भाषणों तक सीमित रहने के कारण ही आज देश की यह दुर्दशा हो रही है।

सेकुलरवाद की बहस बेमानी

एक अन्य प्रश्न पर उन्होंने कहा कि सेकुलरवाद और सम्प्रदायवाद की बहस में देश को उलझाया जा रहा है। यह बहस ही बेमानी है। केवल सत्ता पाने के लिए इस तरह की बहस हो रही है। इस देश को धर्मशाला बना दिया गया है। किसी के आने-जाने पर कोई रोक-टोक नहीं है। कानून का डर नहीं रह गया है। इसका कारण यही है कि जब कुछ लोग अपने को कानून से ऊपर समझेंगे, उन्हें उनके किए की सजा नहीं मिलेगी, तो कैसे होगा सुधार? सुधार ऊपर से होना चाहिए। जब राजा अनुशासित होगा तो प्रजा खुद अनुशासन में रहेगी।

हर हाल में रुके भ्रष्टाचार

देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रश्न पर भी वे खुलकर बोले। कहा, ‘EòÉxÉÚxÉ सबके लिए एक होना चाहिए। संविधान ने सबको बराबर माना है। सबके मूल अधिकार एक जैसे हैं। व्यक्तिगत ईमानदारी का न होना भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है। भ्रष्टाचार करने वाला हर व्यक्ति, चाहे वह कितने भी बड़े पद पर क्यों न हो, कानून की परिधि में आना चाहिए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध यदि कोई ठोस कानून बनता है तो उसकी परिधि में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और न्यायाधीशों को भी लाना चाहिए। जब तक हर व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से ईमानदार नहीं होगा, देश के प्रति स्वाभिमान का भाव नहीं रखेगा, देश के कल्याण के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है।

संतों की भूमिका महत्वपूर्ण

इन सब चुनौतियों का समाधान कैसे होगा, इस प्रश्न पर वे कहते हैं, ‘ºÉÆiÉ आम आदमी के लिए प्रेरणास्पद होते हैं। एक संत तुलसीदास और संत कबीरदास ने सामाजिक क्रान्ति कर दी थी। दुर्भाग्य से देश के सारे संत मिलकर भी समाज को वैसी वैचारिक प्रेरणा नहीं दे पा रहे हैं जैसी संत कबीर व संत तुलसी ने दी थी। इसलिए विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं कि यह अपने को संत कहने वाले लोगों के लिए आत्ममंथन का विषय है। संतों को सामाजिक सरोकारों से जोड़ना होगा। कथा व उद्बोधन द्वारा हम सभी तभी समाज पर प्रभाव डालने में सक्षम होंगे, जब हम व्यक्तिगत रूप से ईमानदार होंगे। ईमानदारी का अर्थ केवल आर्थिक मामलों से नहीं, ईमानदारी का अर्थ चारित्रिक ईमानदारी, व्यवहारगत ईमानदारी, मन की ईमानदारी से भी है। हमारी कथनी और करनी में अंतर  नहीं होना चाहिए। संतों को अपने व्यवहार से समाज में त्याग का बोध जगाना होगा, उसे सृजनशील बनाना होगा। ऐसा समाज निर्माण ही आज देश की सभी चुनौतियों का समाधान है। (वार्ताधारित)

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