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भौतिक समृद्धि से अधिक यदि 'अर्थ' और 'काम' की शुचिता को भारतीय समाज के उन्नयन का मापदंड माना गया है तो इस कसौटी के किस पायदान पर स्वाधीनता के 65वर्ष बाद हम आज खड़े हैं? यदि मीडिया ही समाज का दर्पण है तो उस दर्पण में हमारा क्या चेहरा दिखाई दे रहा है? क्यों आर्थिक और यौन भ्रष्टाचार ही आज हमारी चिंता का केन्द्रीय विषय बना हुआ है? स्वतंत्रता मिलने पर हमने राजसत्ता और उस सत्ता को प्राप्त कराने वाली राजनीति को ही राष्ट्र निर्माण का एकमात्र साधन मान लिया था और गांधी जी को अरण्यरोदन के लिए किनारे छोड़ दिया था। उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी ने संघ को राजनीति में घसीटने के दबावों के सामने न झुकते हुए तर्क दिया था कि सत्ता श्रेष्ठ आध्यात्मिक जीवन का निर्माण कराने का साधन कभी नहीं रही, वह राजनीति-निरपेक्ष संत शक्ति द्वारा सृजित सात्विक समाज जीवन का रक्षा कवच अवश्य बन सकती है।
लोकनायक का अन्तर्द्वंद्व
प्रखर स्वतंत्रता सेनानी जय प्रकाश अपने अनुभवों के आधार पर समाजवाद के मार्क्सवादी अधिष्ठान को त्यागकर आध्यात्मिक समाज रचना की ओर प्रवृत्त हुए। उन्होंने वोट और दल की चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया। प्रधानमंत्री पं. नेहरू के बार-बार प्रयास करने पर भी केन्द्र सरकार में मंत्रिपद लेना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सत्ता-निरपेक्ष रचनात्मक समाजसेवा के पथ को अंगीकार किया। इसीलिए राजनीतिक भ्रष्टाचार से त्रस्त युवा पीढ़ी ने उन्हें आग्रहपूर्वक राजनीति-निरपेक्ष जन आंदोलन का नेतृत्व सौंपा और उनकी सब शर्तों को स्वीकार किया। जे.पी.ने सम्पूर्ण क्रांति या व्यवस्था परिवर्तन का आह्वान किया। वोट और दल की राजनीति का विकल्प ढूंढने की दिशा में एक प्रभावी लोकशक्ति का सृजन किया। उन्होंने अपनी जनसभाओं के मंच पर किसी राजनेता को चढ़ने नहीं दिया। किन्तु पता नहीं कैसे इंदिरा गांधी ने उनके सामने चुनाव मैदान में शक्ति परीक्षण की चुनौती फेंक दी और किन्हीं दुर्बल क्षणों में जय प्रकाश उस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये। वे दिल्ली आये। उन्होंने सभी गैरकांग्रेसी दलों के लगभग 52 राजनेताओं की बैठक बुलायी। जे.पी.जैसे लोकप्रिय और सत्तानिरपेक्ष नेता के निमंत्रण को कौन अस्वीकार करता। जय प्रकाश के कंधों पर सवार होकर सत्ता के गलियारे में प्रवेश करने का ʅशार्टकटʆ सामने खुला होने पर कौन उसमें प्रवेश नहीं करना चाहता? वोट और दल की राजनीति का विकल्प ढूंढने निकला सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन उसी रास्ते पर दौड़ने लगा। उससे घबराई इंदिरा गांधी ने आपातकाल का सहारा लिया, हजारों लोगों को जेल में ठूंस दिया, राजनीतिक गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगायी, मीडिया के मुंह पर ताला ठोंक दिया। ऐसा लगा कि उनकी और ʅयुवराजʆ संजय की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। अति आत्मविश्वास ने उन्हें आम चुनाव की घोषणा करने की प्रेरणा दी और यह घोषणा ही उनके लिए भस्मासुर बन गयी। लोकनायक जय प्रकाश की पुण्याई पर सवार होकर विपक्ष सत्ता में पहुंच गया। स्वाधीनता के बाद पहली बार केन्द्र में सत्ता परिवर्तन का अकल्पित चमत्कार घटित हुआ।
एक ही राजनीतिक संस्कृति
विपक्ष का सर्वोत्तम नेतृत्व केन्द्र सरकार का अंग बन गया। पर उनकी व्यक्तिगत सत्ताकांक्षाओं के टकराव ने जो दृश्य खड़ा किया, वह इतना शर्मनाक और वीभत्स है कि उसका वर्णन तो दूर, स्मरण करने में भी डर लगता है। वस्तुत: स्वाधीन भारत ने ब्रिटिश संवैधानिक प्रक्रिया में से उपजे जिस संवैधानिक रचना को अंगीकार किया था वह इससे भिन्न राजनीतिक संस्कृति को पैदा नहीं कर सकती थी। एक ही राजनीतिक संस्कृति सब दलों में समान रूप से व्याप्त थी। उस संकट को व्यक्ति विशेषों या दल विशेषों के संकट के रूप में न देखकर समूची राजनीतिक संस्कृति और उस संस्कृति को जन्म देने वाली संवैधानिक रचना के संकट के रूप में देखा जाना चाहिए था, पर वैसा नहीं हुआ। उस घटनाचक्र का हमारा समूचा विश्लेषण व्यक्तियों व दलों पर केन्द्रित रहा।
आर्थिक और यौन भ्रष्टाचार राजनीति के गलियारों में भीतर ही भीतर पनपता रहा, व्यापक होता रहा। इस सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के बोझ तले दबी युवा पीढ़ी के असंतोष को अभिव्यक्ति मिली दो वर्ष पहले उस आंदोलन से जिसे ʅअण्णा आंदोलनʆ के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन में अण्णा की भूमिका वही है जो सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में जे.पी.की थी। अण्णा ने कभी भी विचारक होने या राष्ट्र निर्माता होने का दावा नहीं किया। सातवीं-आठवीं कक्षा तक पढ़े अण्णा ने सेना में एक वाहन चालक की नौकरी करते समय एक दैवी चमत्कार की कृपा से अपनी प्राण रक्षा होने पर अपने शेष जीवन को समाज सेवा में समर्पित करने का संकल्प लिया। सेना से सेवानिवृत्त होकर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित अपने ग्राम रालेगण सिद्धि को जलाभाव, बेरोजगारी और नशा आदि व्यसनों से मुक्त कराने के लिए कठोर साधना आरंभ की। गांव के एक टूटे-फूटे हनुमान मंदिर को अपना बसेरा बनाया। विवाह नहीं किया, परिवार नहीं बसाया, जमीन को अपना बिस्तर बनाया। और कुछ ही वर्षों में रालेगण सिद्धि को एक आत्मनिर्भर, हरे-भरे, व्यसनमुक्त गांव में परिणत कर दिया, जो देश भर के समाजसेवियों के लिए आकर्षण और प्रेरणा का केन्द्र बन गया। अण्णा की सादगी सरलता, भोलापन और नि:स्वार्थ रचनात्मक साधना ही उनकी एकमात्र पूंजी बन गयी। वे लगातार महाराष्ट्र में प्रत्येक दल के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अकेले जूझते रहे।
टीम अण्णा का स्वरूप
उनकी साधना की इस शक्ति को अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने पहचाना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान के राष्ट्रव्यापी संघर्ष के नाम पर वे अण्णा को महाराष्ट्र से बाहर निकालकर राष्ट्रीय मंच पर ले आये, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार बिहार की छात्र शक्ति जे.पी.को खींच लायी थी। अण्णा की नि:स्वार्थ राष्ट्रसेवा की छवि ने आंदोलन को शक्ति दी, केजरीवाल की टोली को ʅटीम अण्णाʆ का नाम मीडिया ने दे दिया और अण्णा उनके वास्तविक नेता मान लिये गए। अण्णा की लोकप्रियता में क्या ताकत है, यह इस बार जंतर मंतर के अनशन में प्रगट हो गयी। पहले तय हुआ था कि अण्णा अनशन नहीं करेंगे, केवल अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और गोपाल राय अनशन पर बैठेंगे। पर वे अधिक दिनों तक अनशन खींचने की अन्तर्शक्ति नहीं रखते थे, इसलिए प्रारंभ में भीड़ भी नहीं जुटी। अंतत: अण्णा को स्वयं अनशन पर बैठना पड़ा और भीड़ भी जुट गयी, किन्तु तभी परदे के पीछे दूसरा खेल चल रहा था। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण आदि 23 प्रमुख नागरिकों से एक संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर जुटा रहे थे, कि अनशन समाप्त हो और चुनावी राजनीति में हस्तक्षेप कराने के लिए एक राजनीतिक दल या राजनीतिक शक्ति का निर्माण हो। भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत (इंडिया अगेंस्ट करप्शन) के कुछ सदस्यों का चुनावी राजनीति के प्रति रुझान हिसार के लोकसभा उपचुनाव के समय ही स्पष्ट हो गया था। वस्तुत: यह रुझान अण्णा की अब तक की ग्राम केन्द्रित रचनात्मक प्रवृत्ति से मेल नहीं खाता था। पिछली बार भी जंतर मंतर और रामलीला मैदान में अपने अनशनों की समाप्ति पर अण्णा ने ग्राम आधारित विकेन्द्रित रचना के लिए काम करने का संकल्प दोहराया था। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व वाली टोली का कार्यक्षेत्र मुख्यतया ट्विटर, फेसबुक, ईमेल और एसएमएस वाले सोशल मीडिया से जुड़े माध्यमवर्गीय युवा वर्ग तक सीमित था। ग्राम समाज से उनका सीधा संबंध नहीं स्थापित हुआ था। वे अण्णा को सामने रखकर अपना आंदोलन चला रहे थे।
अण्णा का सही कदम
अत: चुनावी राजनीति में सीधे हस्तक्षेप की घोषणा होते ही अण्णा ने 'टीम अण्णा' के विसर्जन की घोषणा करके अपने नाम को उससे अलग कर लिया। अण्णा ने दो टूक घोषणा कर दी कि वे न स्वयं चुनाव लड़ेंगे और न ही किसी राजनीतिक दल का सदस्य बनेंगे। उन्होंने छह लाख गांवों तक पहुंचने का अपना पुराना संकल्प भी दोहराया। रालेगण सिद्धि से अण्णा के ब्लाग पर इस दो-टूक घोषणा से केजरीवाल टोली का सन्न रह जाना स्वाभाविक है। केजरीवाल पर आरोप लगाये जा रहे हैं कि वे कारपोरेट लॉबी के लिए काम कर रहे हैं। यह भी कि उनकी संस्था ʅफोर्ड फाउंडेशनʆ के पैसे पर चल रही है। अण्णा की छतरी हट जाने के बाद अब उन्हें अपने बूते पर इन आरोपों का निराकरण करना होगा। केजरीवाल की संकल्पशक्ति, संगठन क्षमता और कल्पनाशीलता की सराहना करते हुए भी यह मानना ही होगा कि भ्रष्टाचार की समस्या की उनकी कारण-मीमांसा ठीक नहीं है। वे सोचते हैं कि प्रधानमंत्री और सीबीआई जैसी संस्थाओं को लोकपाल के दायरे में लाने मात्र से भ्रष्टाचार का परनाला बंद हो जाएगा। पर वे भूल रहे हैं कि भ्रष्टाचार की जड़ तो चुनाव केन्द्रित इस राजनीतिक प्रणाली में ही विद्यमान है। इस राजनीतिक प्रणाली ने नेतृत्व को भ्रष्टाचार के रास्ते पर धकेला और नेतृत्व ने समूचे समाज जीवन को भ्रष्टाचार के जाल में फंसा दिया। आज हमारा पूरा समाज जीवन ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का असहाय बंदी बन गया है। ऐसे भ्रष्टाचारी समाज में से भ्रष्टाचार मुक्त प्रत्याशी कहां से मिलेंगे? इसलिए अण्णा ने पांच सवाल ठीक ही उठाये हैं कि-
चुनाव के लिए सदाचारी और सेवाभावी लोगो को कैसे खोजा जाएगा?
आज एक क्षेत्र से चुनाव में 10 से 15 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, इतना पैसा कहां से आएगा?
चुनाव जीतने के बाद यदि अपने साथी की बुद्धि पलट गई तो उसका समाधान कैसे होगा?
विकल्प के लिए बनाई जाने वाली पार्टी चुनने का तरीका क्या होगा?
चुने गए प्रतिनिधियों की ʅमानिटरिंगʆ करने का तरीका क्या होगा?
दोष राजनीतिक प्रणाली का
क्या वर्तमान चुनाव प्रणाली के भीतर यह संभव है? वस्तुस्थिति यह है कि चुनावी राजनीति में आदर्शवाद और सिद्धांतनिष्ठा के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई है। चुनाव जीतना जोड़-तोड़ की एक कला भर बन गई है। इस चुनाव प्रणाली ने सब राजनीतिक दलों को एक राजनीतिक संस्कृति के रंग में रंग दिया है। इस सत्य को हृदयंगम किये बिना भ्रष्टाचार-मुक्त नैतिक समाज जीवन का निर्माण संभव ही नहीं है। इसके लिए एक प्रबल नैतिक आंदोलन की आवश्यकता है। जंतर मंतर और रामलीला मैदान पर अण्णा ने पिछले अनशनों के समय देशभर में युवा पीढ़ी के अंदर जो आलोड़न पैदा हुआ था, उसे एक नैतिक क्रांति के प्रवाह का रूप देना संभव था। हमने तभी पाञ्चजन्य के माध्यम से देशभर में युवा पीढ़ी में नि:स्वार्थ राष्ट्रसेवा और भ्रष्टाचार से समझौता न करने के संकल्प यज्ञ आयोजित करने का विनम्र सुझाव दिया था। किन्तु केजरीवाल टोली लोकपाल के प्रश्न पर ही अटकी रही। जबकि यह स्पष्ट था कि जिस प्रकार का लोकपाल बनाने की वे मांग कर रहे थे, संसद के द्वारा उसे पारित करवा लेने का अर्थ होता सांसदों का अपनी ही आत्महत्या को निमंत्रण। इसीलिए प्रारंभ से ही यह स्पष्ट था कि इस भ्रष्टाचारी राजनीति में प्रत्येक राजनीतिक दल और सांसद का निहित स्वार्थ उत्पन्न हो चुका है और इसलिए वे अपनी राजनीतिक आत्महत्या को निमंत्रण कदापि नहीं देंगे।
अब सवाल है कि इस नैतिक क्रांति का सृजन कैसे हो? उसका वाहक कौन बनेगा? यह सत्य है कि पिछले पन्द्रह वर्षों से टेलीविजन एवं योग शिविरों के माध्यम से बाबा रामदेव अपने भगवा वेष, योगासन, आयुर्वेद एवं स्वदेशी के चिर सतत् प्रचार के द्वारा देशभर में बिखरे ऐसे कोटि-कोटि अन्त:करणों में अपने लिए श्रद्धा का स्थान बनाने में सफल हुए हैं, जो अपने जन्मजात संस्कारों के कारण इन सब चीजों से जुड़ा हुआ है। योगगुरु बाबा सहज रूप से इस नैतिक क्रांति का वाहक बन सकते हैं, यदि वे योग शिक्षक की भूमिका से आगे बढ़कर एक योगी की आध्यात्मिक शक्ति को भी अपने भीतर से प्रगट कर सकें। यदि ईश्वर ने उन्हें अपना उपकरण चुना होगा तो वह अवश्य ही उन्हें इसकी शक्ति प्रदान करेगा।
राष्ट्र इस समय जिस नैतिक क्रांति की प्रतीक्षा कर रहा है उसके केन्द्र विन्दु ऐसे व्यक्ति ही बन सकते हैं जो सच्चे आध्यात्मिक पुरुष हों। गांधीजी जी 1915 में ऐसी ही आध्यात्मिक शक्ति बनकर भारत आए थे, किन्तु वे भी भारतीय समाज की सुप्त आध्यात्मिक चेतना को पूरी तरह जाग्रत नहीं कर पाए और अंतत: उन्हें अपनी ही गढ़ी हुई कांग्रेस को 14 वर्ष के बाद अपने आदर्शों से भटका हुआ घोषित करना पड़ा। इसका अर्थ है कि इस समय भारत को गांधीजी से भी अधिक आध्यात्मिक शक्ति पुञ्ज की प्रतीक्षा है।
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