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बंगलादेशी घुसपैठियों ने रचाया यह खूनी खेलअंगारों पर असम-जगदम्बा मल्ल-

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Aug 6, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Aug 2012 13:38:59

 

असम का कोकराझार जिला पश्चिम बंगाल और भूटान से सटा हुआ है। यहां लंबे समय से मुसलमानों से आये दिन साम्प्रदायिक तनाव रहता आ रहा है। गत 60 वर्षों में बोडो हिन्दू, संथाल हिन्दू समुदाय तथा मुसलमानों के बीच जमीन व जंगल पर अधिकार को लेकर चार बार बड़े कत्लेआम हुए हैं। बोडो समुदाय बोडो परिक्षेत्र की पूरी जमीन को अपनी मानता है और इसलिए अन्य सभी को उस क्षेत्र से निकालने का प्रयास करता रहा है। संथाली हिन्दुओं का कहना है कि गत डेढ़ सौ वर्षों से वे वहां रहते आये हैं और उस जमीन पर उनका अधिकार है। अधिकार की इस लड़ाई में अब तक काफी जानें जान चुकी हैं। बोडो क्षेत्र में रहने वाले मुसलमान अधिकांशत: बंगलादेशी घुसपैठिए हैं जिन्होंने यहां के जंगल व जमीन को अवैध तरीके से हथिया लिया है।

वर्तमान संघर्ष की शुरुआत

वर्तमान तनाव की पृष्ठभूमि देखें तो गत 25 मई को नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोडोलैण्ड (एनडीएफबी) का एक मुसलमान आतंकवादी कोकराझार जिले के हवड़ागुड़ी स्थान पर एक अन्य मुसलमान व्यवसायी को डरा कर रुपए मांग रहा था। उस मुसलमान आतंकवादी को लोगों ने पकड़कर उसकी हत्या कर दी। 30 जून को इस जिले के सांपकाटा नामक स्थान पर कुछ अज्ञात लोगों ने एक मुसलमान बढ़ई की हत्या का सारा आरोप बोडो हिन्दुओं पर मढ़ दिया। बाद में पता चला कि ये हत्यारे किसी अन्य उग्र संगठन के थे। 5 जुलाई को इसी जिले के दोहोमा थानान्तर्गत अन्तिहारा गांव में दो मुसलमान मारे गये थे। इस बार भी उन्हें मारने वाले बोडो नहीं थे, वे कामतापुर लिबरेशन आर्गेनाइजेशन के आतंकवादी थे। आग तो तब भड़की जब 20 जुलाई को मुसलमानों ने चार बोडो युवकों की  हत्या कर दी। अगले दिन तीन अन्य बोडो बुजुर्गों की हत्या कर दी गई। हत्यारे बंगलादेशी मुसलमान थे।

सन् 1952 में सर्वप्रथम बोडो हिन्दुओं को मुसलमानों से जूझना पड़ा था। किन्तु यह संघर्ष राज्य स्तर पर फैले हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का हिस्सा था, जब अधिकांश मुसलमानों ने, विशेषकर ग्वालपाड़ा जिले के मुसलमानों ने असम के मुस्लिम बहुल इलाकों को पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) में मिलाने की आवाज उठाई थी। उस समय आज का कोकराझार जिला ग्वालपाड़ा जिले का हिस्सा था। सन् 1993 और 1994 में बोडो समाज को अतिरिक्त अधिकार देते हुए जब बोडो समझौता हुआ था उस समय बोडो हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच घोर संघर्ष छिड़ा जिसमें 100 लोग मारे गये थे, 60 हजार लोग बेघर हो गये थे, 500 से अधिक घर जलाये गये थे और करोड़ों की संपदा नष्ट हो गई थी। उस समझौते से बोडो समुदाय को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ था, किन्तु चारों ओर घोर अविश्वास तथा घृणा फैल गई थी। बोडो समझौता (1993) असफल हो जाने पर बोडो हिन्दुओं में बड़ा असंतोष फैल गया और अपनी पहचान बचाने के लिए उन्होंने संघर्ष करना प्रारंभ किया। आगे चलकर इस संघर्ष ने इतना भयानक रूप धारण किया कि 1996 व 1998 में दो बड़े खूनी दंगे हुए, जिसमें लगभग 300 संथाल हिन्दू मारे गये और 3 लाख संथाल बेघर हो गये। अंत में वर्ष 2008 में बोडो हिन्दू व बंगलादेशी मुसलमानों के बीच खूनी संघर्ष हुआ, किन्तु इस बार यह संघर्ष बोडो क्षेत्र के केन्द्र से दूर उदालगुड़ी जिले में हुआ, जो चारों तरफ से मुसलमानों से घिरा हुआ है।

तनाव की परिणति

बोडो क्षेत्र में संथाल (चाय बागान के पूर्व कर्मचारी) तथा बंगलादेशी मुसलमान- दो बड़े गैर-बोडो समुदाय रहते हैं। संथाल हिन्दू जंगलों में अपने गांव बसाये हुए हैं और बंगलादेशी मुसलमान नदियों के तटवर्ती तथा आस-पास के इलाकों में घुसपैठ किए हुए हैं। असम की 23 अनुसूचित जनजातियों में बोडो जनजाति संख्या की दृष्टि से सबसे बड़ी है और इनकी संख्या राज्य की कुल आबादी का 5 प्रतिशत है, किन्तु बंगलादेशी मुसलमानों की संख्या 33 प्रतिशत है।

इस बार का बोडो हिन्दू-मुसिलम संघर्ष 20 जुलाई से प्रारंभ हुआ और असम के चार जिलों-कोकराझार, चिरांग, धुबरी तथा बकसा- में फैल गया। इसके अलावा यह आस-पास के जिलों में भी फैल रहा है। अधिकृत रूप से सरकार द्वारा बताया जा रहा है कि मरने वालों की संख्या 65 है, किन्तु उस क्षेत्र के लोगों का मानना है कि मृतकों की संख्या 100 से अधिक होगी। 30 जुलाई तक लगभग 3 लाख लोग बेघर हो चुके हैं जो 200 राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं। 500 गांवों के लगभग 5000 घर जला दिए गए हैं। उक्त चारों जिलों में सेना ने फ्लैग मार्च किया तथा देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया गया। गुवाहाटी से छूटने व वहां आने वाली 26 ट्रेनों को स्थगित कर दिया गया और 37 अन्य ट्रेनों का मार्ग बदल दिया गया। राजधानी एक्सप्रेस भी इसमें शामिल है। कामाख्यागुड़ी तथा न्यूजलपाईगुड़ी स्टेशनों पर 30,000 यात्री फंसे रहे।

बोडो हिन्दू-बंगलादेशी मुसलमानों का वर्तमान संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है। बंगलादेशी मुसलमानों ने जो दंगा 20 जुलाई को प्रारंभ किया वह देखते ही देखते 48 घंटे में जंगल की आग की तरह चार जिलों में तत्काल फैल गया। इससे अनेक प्रश्न उठ रहे हैं। प्रभावित क्षेत्र के लोगों का मानना है कि बंगलादेशी मुसलमान इस शक्ति प्रदर्शन की तैयारी काफी समय पूर्व से कर रहे थे और मौका मिलते ही उन्होंने खूनी खेल रच डाला। मुसलमान नेताओं ने आग में घी डालने का कार्य किया। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में प्रयोग करती आ रही है। ये मुसलमान कांग्रेस पार्टी को एकमुश्त मतदान करते हैं। इसलिए कांग्रेसी नेताओं ने भी मुसलमानों का ही समर्थन किया। गनीमत है कि बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) का शासन बोडो लोगों के हाथ में है और एनडीएफबी तथा बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) नामक दो उग्रवादी संगठन यहां कार्यरत हैं जिसके कारण मुसलमानों का आक्रमण उतना तीखा नहीं हो पाया अन्यथा बोडो हिन्दुओं को जान-माल की अकल्पनीय क्षति होती। मुख्यमंत्री ने तो स्पष्ट रूप से कहा कि बोडो क्षेत्र में कोई बंगलादेशी मुसलमान है ही नहीं। इससे बड़ा हास्यास्पद और झूठा बयान और क्या हो सकता है? आज जब यह दंगा भड़का हुआ है उस समय भी सीमापार से मुसलमान आ रहे हैं और दंगा करके वापस बंगलादेश में भाग जा रहे हैं, ऐसा सीमावर्ती गांववालों का कहना है। किन्तु सरकार सदा झूठा बयान देती है और इस बड़े खतरे से न केवल असमवासियों, बल्कि पूरे देश को गुमराह करने का अपराध कर रही है।

कुहरे में भविष्य

कोकराझार की कुल आबादी 8 लाख है उसमें एक लाख से अधिक मुसलमान हैं जिनमें से अधिकांशत: बंगलादेशी हैं जो घुसपैठ करके आये हैं। असम में रहने वाले सभी मूल नागरिकों को भय है कि यदि असम में इसी गति से बंगलादेशी मुसलमानों की आबादी बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पूरा असम मुसलमानों के चंगुल में आ जायेगा और यहां के मूल निवासी अपनी जड़ों से कटने को मजबूर कर दिए जाएंगे। उनका सामूहिक नर-संहार हो जायेगा। सन् 1983 का नेली नर-संहार अभी भी सबको याद है, जब बंगलादेशी मुसलमानों ने सैकड़ों स्थानीय लोगों की निर्मम हत्या कर दी थी। बोडो हिन्दुओं को भी यह भय समान रूप से सता रहा है। ये मुसलमान बोडो समाज के अस्तित्व को खतरा पैदा कर रहे हैं और उनके जंगल व जमीन से बोडो लोगों को बेदखल कर रहे हैं। जब कभी इसका विरोध बोडो समुदाय द्वारा किया जाता है तो वह जातीय संघर्ष का रूप ले लेता है जिसमें सैकड़ों निरीह लोग मारे जाते रहे हैं। किन्तु केन्द्र सरकार व राज्य सरकार को मुसलमानों के वोट बैंक की चिन्ता है, देश भले ही खतरे में पड़ जाय।

वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, असम के 23 जिलों में से 6 जिलों-धुबरी (74.3 प्रतिशत),  बरपेटा (59.3 प्रतिशत), हैलाकांडी (57.6 प्रतिशत), ग्वालपाड़ा (53.7 प्रतिशत), करीमगंज (52.3 प्रतिशत) और नगांव (51 प्रतिशत)- में मुसलमान बहुमत में हो गये हैं। मरीगांव में इनकी संख्या 47.6 प्रतिशत और कछार जिले में मुसलमान 36.1 प्रतिशत हो गये हैं। असम के 23 जिलों में से 8 जिलों में इनकी आबादी 1.6 प्रतिशत से 8 प्रतिशत के बीच है। पिछले दस वर्ष के दौरान इनकी आबादी बहुत बढ़ गई है।

गहरा षड्यंत्र

असम में अनेक जिहादी गुट भी हैं जिनके माध्यम से विदेशी ताकतें यहां काफी सक्रिय हैं। ये असम को 'मुस्लिम देश' बनाने की दिशा में कार्यरत हैं। स्वार्थी राजनेता यह खतरा साफ देखते हुए भी अनजान बने हुए हैं जिसका खामियाजा निरीह जनता को भुगतना पड़ रहा है। ये विदेशी ताकतें जातीय दंगा भड़काने के लिए मुसलमानों को उकसाती हैं।

आज असम मुस्लिम साम्प्रदायिकता की आग में धू-धू कर जल रहा है। कल्पना करें, यदि सेना व सुरक्षाबल न होते तो और कितने ही निर्दोष लोगों की जान चली जाती। किन्तु मीडिया इसे बड़े हल्के ढंग से ले रहा है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। केन्द्र तथा राज्य के राजनेताओं ने मृतकों के शवों पर भी राजनीति करनी प्रारंभ कर दी है। बयानबाजी करके उन्होंने अपनी कर्तव्यपूर्ति कर ली है। आज मानवाधिकारवादी कहां हैं? बंगलादेशी मुसलमानों ने बोडो समुदाय के लोगों के मानवाधिकारों का हनन किया है, यह तथ्य इनको क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? शायद इसीलिए कि बोडो हिन्दू हैं।

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