क्या चलेगी मुर्सी की मर्जी?
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क्या चलेगी मुर्सी की मर्जी?
मुजफ्फर हुसैन
पिछले दिनों मिस्र की राजधानी काहिरा में मोहम्मद मुर्सी को देश के पहले लोकतांत्रिक रूप में निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में शपथ दिलाई गई। मुर्सी के विरोध में हुसनी मुबारक के पूर्व प्रधानमंत्री अमहद शफीक चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव के समय इस बात की अटकलें लगाई जा रही थीं कि सेना के समर्थन से किसी भी क्षण बाजी पलट सकती है और अहमद शफीक चुनाव जीत सकते हैं। यदि ऐसा हुआ होता तो काहिरा की गद्दी पर एक बार फिर से मुबारक का अप्रत्यक्ष राज कायम हो जाता। अमरीका इस जुगाड़ में था कि यदि चुनाव में बाजी पलट जाती है तो एक बार फिर हुसनी मुबारक का युग लौट सकता है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भ्रष्ट मुबारक का 30 वर्षीय जालिमाना दौर समाप्त हो गया। मुर्सी की शपथ-विधि के पश्चात् सैनिक काउंसिल अब सत्ता के सूत्र मुर्सी को सौंपने के लिए तैयार हो गई है। फिलहाल वहां जो स्थिति है उससे लगता है कि मुर्सी की कुर्सी को अब कोई हिला नहीं सकता है। लेकिन यह बात भी दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि मुर्सी, इखवानुल मुस्लिमीन, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'इखवान ब्रदरहुड' के नाम से जाना जाता है, के निर्वाचित राष्ट्रपति हैं।
इखवान ब्रदरहुड कट्टरवाद को पोषित करने वाली पार्टी है, जिसका गठन 1928 में उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन के अंग के रूप में किया गया था। उसका उद्देश्य शरीयत के कानूनों को मजबूत करना और इस्लामी परम्पराओं के आधार पर शासन चलाना था। यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि 'इखवान ब्रदरहुड' ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाजियों का समर्थन किया था। यही समर्थन आगे चलकर उनके लिए यहूदी (इस्रायल) विरोध का मुख्य कारण बन गया। इखवान ने फलस्तीन एवं अन्य भागों से ब्रिटिशों को बाहर निकालने का जोरदार आन्दोलन चलाया। यहां तक कि आतंकी तौर-तरीके अपनाने से भी नही चूके। दूसरे विश्व युद्ध के बाद इखवानियों ने अपना इस्लामी एजेंडा आगे बढ़ाने का भरपूर प्रयास किया। मिस्र में जो भी सत्ता पर आए उन्हें चुनौती देना प्रारम्भ कर दिया। 1948 में मिस्र के प्रधानमंत्री मनोकराशी की हत्या करने से भी वे नहीं चूके। 1952 में मिस्र से राजाशाही समाप्त हो गई और कर्नल नासिर के नेतृत्व में क्रांति हुई। नासिर समाजवाद के पक्षधर थे और साथ ही उनमें उदारवादी दृष्टिकोण था। भला इस विचार से इखवान ब्रदरहुड किस प्रकार सहमत होती? इसलिए उसने नासिर की हत्या का षड्यंत रचा। नासिर तो बच गए, लेकिन अब वे इसी इखवान के पीछे हाथ धोकर पड़ गए। यहां तक कि उस पर राजनीतिक प्रतिबंध लगा दिया। उसके सबसे बड़े नेता सैयद कुतुब को फांसी दे दी गई और उनके साथियों को जेल में ठूंस दिया गया। यह पहला अवसर था जब समाजवादी नेता तथा इखवान के बीच सांप-नेवले का खेल शुरू हो गया। इखवान ब्रदरहुड नासिर का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकी, लेकिन उनके उत्तराधिकारी अनवर सादात का कत्ल करने में सफल हो गई। सादात पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने कैम्प डेविड समझौता करके अरब एकता की पीठ में छुरा भोंका है। इस्रायल को मान्यता देकर सादात ने पश्चिमी दुनिया में तो वाहवाही लूट ली लेकिन इस्लामी दुनिया में वे खलनायक बन गए। इस खलनायक को अंतत: इखवान के लोगों ने मौत के घाट उतार दिया।
आतंकवाद की फसल
जब हुसनी मुबारक का दौर आया उस समय सम्पूर्ण जगत में मुस्लिम आतंकवाद भीतर ही भीतर पनप रहा था। इखवान ने अपनी विचारधारा के अनेक संगठन और गुट मुस्लिम राष्ट्रों में पैदा करके अपनी शक्ति को बढ़ा लिया। रूस के समाजवाद ने तो दम तोड़ ही दिया था। उन्होंने अमरीका के समर्थकों में भी अपनी घुसपैठ बना ली। मुस्लिम आतंकवाद जिस तेजी से फैलता गया इखवान और उसके समर्थकों की ताकत बढ़ती चली गई। आज तो दुनिया में अमरीका के समर्थक और इखवान के बीच सीधी-सीधी लड़ाई है। भारतीय उपखण्ड में इखवान ब्रदरहुड के पद चिह्नों पर चलकर मौलाना मौदूदी ने जमाते इस्लामी की नींव डाली। पाकिस्तान बन जाने के बाद जमात ने अपनी ताकत बढ़ाई जिसका नतीजा यह है कि सम्पूर्ण भारतीय उपखण्ड में आतंकवाद की फसल लहलहा रही है। इस प्रकार भूतकाल की पराजित इखवान अब वर्तमान दुनिया की बड़ी ताकत बन गई है। यहां तक कि आज उसके मुर्सी राष्ट्रपति बनकर काहिरा में पदासीन हो गए हैं। इखवान के सूत्रों का कहना है कि यह उनकी विजय का पहला पड़ाव है। अब आप देखेंगे कि हर स्थान पर इस्लाम समर्थित ताकतें मुस्लिम राष्ट्रों में अपनी हुकूमत बनाएंगी और पश्चिमी राष्ट्रों को चुनौती देंगी।
इसलिए मिस्र में कट्टरवादी गुट इखवान ब्रदरहुड से जुड़े मोहम्मद मुर्सी के राष्ट्रपति बनने के पश्चात् दुनिया में यह चिंता व्याप्त हो गई है कि क्या मिस्र कट्टरवादियों का केन्द्र बनेगा? यदि ऐसा हुआ तो मिस्र के पड़ोस में बसा इस्रायल अपनी सुरक्षा के लिए अधिक आक्रामक होगा। उसके साथ छेड़छाड़ हुई तो मुस्लिम राष्ट्रों के बीच इस्रायल-अरब संघर्ष छिड़ जाएगा। अमरीका किसी भी स्थिति में इस्रायल का साथ नहीं छोड़ने वाला है। इस प्रकार की परिस्थितियां कितनी भयंकर होंगी इसकी कल्पना करना कोई बहुत कठिन नहीं होगा। मुर्सी के व्यक्तित्व से दुनिया परिचित है। इसलिए अपनी सत्ता का संचालन वे किस प्रकार करते हैं यह कुछ दिनों के बाद ही स्पष्ट होगा।
पहली परीक्षा
राष्ट्रपति मुर्सी की पहली परीक्षा उस समय होगी जब वे अपनी सरकार और सेना के बीच शक्तियों के बंटवारे के लिए जटिल वार्ता की शुरुआत करेंगे। इस्रायल के साथ शांति समझौता बनाए रखना उनकी कड़ी परीक्षा है। जस्मिन क्रांति वाले देश तुर्की सरकार को अपना आदर्श बनाना चाहते हैं। एक समय था कि तुर्की में कमाल पाशा का डंका बजता था। उन्होंने पंथनिरपेक्षता को अपना आदर्श बनाया था। लेकिन कमाल पाशा का तुर्की अपना दम तोड़ चुका है। वहां इस समय जो सरकार है वह इस्लामी विचारधारा को अपना कर एक नई शासन पद्धति के तहत काम कर रही है। लेकिन सरकार की गर्दन पर वहां की सेना सवार है, जो तुर्की को किसी भी तरह से कट्टरवादी नहीं बनाना चाहती। यही स्थिति नव निर्वाचित मिस्र सरकार की है, जो स्वयं तो इस्लामी शैली की सरकार बनाना चाहती है, लेकिन वहां की सेना भी कट्टरवादी तत्वों को हावी नहीं होने देना चाहती है। इसलिए चुनाव जीत लेने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता है कि मुर्सी अपनी इखवान ब्रदरहुड का एजेंडा लागू करने में शत-प्रतिशत सफल हो जाएंगे। ईरान और तुर्की मिस्र की इस नई सरकार को समर्थन तो देंगे, लेकिन मुर्सी की सरकार अमरीका और विश्व बैंक की सहायता के बिना किस तरह चल पाएगी यह सबसे बड़ा सवाल है। मिस्र के पास तेल नहीं है जो उसकी अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हो सके। कमजोर आर्थिक स्थिति मिस्र को विद्रोही बनने के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है। मुबारक सरकार के विरुद्ध विद्रोह करके सत्ता को पलट देना एक बात है लेकिन अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाकर 21वीं शताब्दी का मिस्र बनाना दूसरी बात है। मुबारक समर्थक लोगों की एक बड़ी ताकत है। साथ ही मिस्र की महिलाएं इस्लाम के नाम पर घरों में बैठने वाली नहीं हैं, इस बात को ध्यान में रखकर ही मुर्सी को अपनी सरकार चलानी पड़ेगी। 1979 में ईरान, जो शिया देश है, ने इस्लामी क्रांति के नाम पर अपना अलग अस्तित्व बनाया। क्या अब एक सुन्नी बहुल देश मिस्र कोई इस प्रकार की क्रांति के बाद विश्व में कोई नई विचारधारा के साथ नया स्थान बना सकेगा? इसका उत्तर फिलहाल तो भविष्य के गर्भ में है। चुनाव जीत जाने के बाद मुर्सी ने दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों की बधाई टेलीफोन पर स्वीकार की, लेकिन इस्रायल के प्रधानमंत्री का फोन नहीं उठाया। यह एक छोटी सी घटना आने वाले दिनों की तस्वीर को स्पष्ट कर देती है।
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