काव्य-पाठ की 'परम्परा'
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काव्य-पाठ की 'परम्परा'

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Jul 14, 2012, 12:00 am IST
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काव्य-पाठ की 'परम्परा'

दिंनाक: 14 Jul 2012 16:43:24

 गवाक्ष

शिवओम अम्बर

पिछले वर्षों से निरन्तर दिल्ली में हर महीने के पहले रविवार कोहोगा वह कुरूपता से घृणा करेगा। नागार्जुन की घृणा ने प्राय: व्यंग्य का रूप ले लिया है। उनका व्यंग्य असंगति और विषमताबोध पर आधारित है।

अपने वक्तव्य में मैंने बाबा के अपेक्षाकृत कम चर्चित रूप को सामने लाने की चेष्टा की। वस्तुत: व्यवस्था-विद्रोह के आग्नेय स्वर गुंजाने वाले नागार्जुन के अन्तस् में अनुराग की अन्त: सलिला सदा प्रवाहित रही। वह अपनी आत्मिक ऊर्जा, पारिवारिक प्रीति की सदानीरा में डुबकियां लगाकर प्राप्त करते रहे। बाबा उनकी सर्वस्वीकृत संज्ञा हो गई थी। महाकवि केशव के द्वारा बाबा शब्द के सन्दर्भ में की गई सुपरिचित टिप्पणी पर उनकी प्रतिक्रिया थी – 'कोई भी चन्द्रवदना मृ सायं पांच बजे से सात बजे तक आईपैक्स भवन वैलफेयर सोसाइटी द्वारा आईपैक्स भवन, (इन्द्रप्रस्थ विस्तार दिल्ली – 92) के सभा-भवन में सुरुचिपूर्ण काव्य-पाठ की एक अनूठी परम्परा का पालन-पोषण और संर्वद्धन किया जा रहा है। इस काव्य-गोष्ठी का नाम ही काव्य-परम्परा रखा गया है, जिसमें हर बार दो कवियों का काव्य-पाठ आयोजित किया जाता है। प्राय: एक कवि वरिष्ठ और एक कवि युवा होता है। गोष्ठी किसी दिवंगत कवि की स्मृति को समर्पित होती है। प्रारंभ में उसके व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा कर उसका श्रद्धान्वित स्मरण किया जाता है और फिर प्रबुद्ध तथा रसज्ञ श्रोताओं के मध्य आमंत्रित कवि दो चक्रों में काव्य-पाठ कर अपने सृजन की विविध भंगिमाओं को प्रस्तुत करते हैं। भाई राजेश चेतन के आग्रह पर मैं जिस गोष्ठी में सहभागी बना, वह बाबा नागार्जुन की स्मृति को समर्पित थी। कविवर उदय प्रताप सिंह ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की और संस्था के प्रधान श्री सुरेश बिन्दल ने गोष्ठी का प्रभावी संचालन किया। मेरे अतिरिक्त गोष्ठी में काव्य-पाठ हेतु आमंत्रित कवि थे श्री मासूम गाजियाबादी। प्रारंभ में अध्यक्ष महोदय ने बाबा नागार्जुन के साथ बीते अपने जीवन-क्षणों के संस्मरण सुनाए। उनकी अलमस्त और फक्कड़ प्रकृति को निरूपित किया। बाबा नागार्जुन की प्रसिद्धि उनकी कुछ अद्भुत व्यंग्य-कविताओं के कारण भी है। सुप्रसिद्ध आलोचक डा. नामवर सिंह उन्हें कबीर के बाद सबसे बड़ा व्यंग्यकार निरूपित करते हैं तो डा. विश्वनाथ त्रिपाठी का अभिमत है कि जो सौन्दर्य -प्रेमी गनयनी अपने राम को बाबा कहती है तो वात्सल्य के मारे इन आंखों के कोर गीले हो जाते हैं।' सन् 1944 में कारागार में निरुद्ध होने के दौरान बाबा नागार्जुन के द्वारा अपनी पत्नी का स्मरण करते हुए लिखी गई कविता उनके रागारुण व्यक्तित्व की अभिनन्दनीय छवि है –

घोर निर्जनता न मुझको काट खाये,

चाहता हूं इसलिये तू याद आये।

आह, यदि इन धुली आंखों में तुम्हारी

नाचने लग जाय छवि कल्याणकारी,

फिर यहां से और आगे बढ़ सकूंगा

हिमालय के तुंग शिर पर चढ़ सकूंगा।………

सामने यह मृत्यु की प्रत्यक्ष छाया

निबट लूंगा सभी से हे योगमाया!

साथ हो केवल मधुर मुस्कान तेरी

ले सकेगा कौन जग में जान मेरी      

विश्राम परिस्थितियों में कैसे कोई संघर्षशील व्यक्तित्व अपने प्रिय के स्मरण से प्रेरणा प्राप्त करता है – प्रस्तुत कविता इसका साक्ष्य देती है। ऐसी अनुरक्ति का कवि ही गीतात्मकता के प्रति आश्वस्ति-भाव रखते हुए विश्वस्ति के साथ कह पाता है –

जली ठूंठ पर बैठकर गई कोकिला कूक,

बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक।

वक्तव्य के बाद विविध आयामों वाली अपनी कविताएं सहृदय श्रोताओं की स्फूर्तिप्रद प्रतिक्रियाओं से भावित परिवेश में पढ़कर मुझे हार्दिक सन्तुष्टि मिली। मुझसे पूर्व अपने सुमधुर गीतों और गज़लों को प्रस्तुत किया था सुकवि मासूम गाजियाबादी ने। उनकी अभिव्यक्ति की सहजता और अनुभूति की गहनता ने सभी को अत्यधिक प्रभावित किया। उनके कृतित्व में उनके व्यक्तित्व की ईमानदारी और जनपक्षधरता अनायास प्रकट हो रही थी। बौद्धिक वर्ग (दानिशवर) के पाण्डित्य के बावजूद अक्सर उसकी स्वार्थपरता उसके व्यक्तित्व को जटिल और उसके आचरण को कुटिल बना देती है, मासूम साहब कहते हैं –

हमेशा तंगदिल दानिशवरों

से फासला रखना,

मणी मिल जाये तो

क्या सांप डसना छोड़ देता है ?

इसी प्रकार जो लोग निरन्तर कर्मशीलता की तरफ से उदासीन होकर सुविधाओं के स्वर्णपाश में जान-बूझकर बंध जाते हैं वे फिर एक परिसीमित परिधि के ही चरित्र बनकर रह जाते हैं, न उनके पास लम्बी उड़ानों का हौसला रहता है, न अनन्त आकाश को छूने की ललक। कवि की        टिप्पणी है-

कभी लम्बी उड़ानों के

वो मकसद का नहीं रहता,

परों को जो परिन्दा

फड़फड़ाना छोड़ देता है।

बेबस मां के प्रति संवेदनशील भूखे बच्चों के अत्यन्त प्रबुद्ध आचरण को रूपायित करती कवि मासूम की दो मार्मिक पंक्तियां भी उद्धृत कर     रहा हूं-

लाचारी मां की देखकर बस आंख मूंद ली,

भूखों को वैसे नींद न आई तमाम रात।

'परम्परा' ने हिन्दी की वाचिक परम्परा की कविता के लिये एक प्रदूषणमुक्त समानान्तर मंच बनाने का सफल प्रयास किया है। उससे जुड़े सभी लोग साधुवाद दिये जाने के योग्य हैं। हर नगर में ऐसे स्वस्तिकर प्रयास होने चाहिए।

'सुधर्मा' का संकट

अखबारों में प्रकाशित हुआ है कि मैसूर से प्रकाति होने वाला दैनिक संस्कृत समाचार पत्र 'सुधर्मा' इन दिनों अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कठिन संघर्ष कर रहा है। विज्ञापनदाता अंग्रेजी के मुखापेक्षी होते जा रहे हैं और सामान्य पाठक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना तो चाहता है, उनका ग्राहक नहीं बनना चाहता। 14 जुलाई, 1970 को श्री के. एन. वरदराज अयंगर नामक संस्कृत विद्वान् ने संस्कृत-भाषा के प्रसार और पल्लवन के लिये इसका प्रकाशन शुरू किया था। एक कन्नड़ अखबार के सम्पादक अंगराम रंगैय्या एवं पूर्व संयुक्त सूचना निदेशक पी नागाचार ने इस अनुष्ठान में उनका सहयोग किया। यहां प्रसंगवश यह भी उल्लेख्य है कि श्रीमान् अयंगर के प्रयासों से ही आकाशवाणी पर संस्कृत समाचार वाचन का शुभारम्भ हुआ था। वर्ष 1990 में जब श्री अयंगर ने अपनी अन्तिम श्वास ली, उन्होंने इस समाचार पत्र के माध्यम से संस्कृत भाषा की दैनन्दिन साधना की ज्योति जलाये रखने की आकांक्षा प्रकट की। उनके सुपुत्र के.वी. संपत कुमार इसका सम्पादकीय और प्रकाशकीय दायित्व सम्हाले हुए हैं। इसकी दैनिक प्रसार संख्या लगभग चार हजार प्रतियों की है। किन्तु अब मौसम निरन्तर असहयोगी होता जा रहा है, हवाओं के तेवर अच्छे नहीं हैं! 'सुधर्मा' के जीवट को प्रणाम करते हुए चित्त में वसीम बरेलवी साहब की अभिव्यंजना उभर रही है –

उड़ान वालो, उड़ानों पे वक्त भारी है,

कि अब परों की नहीं हौसलों की बारी है।

मैं कतरा हो के भी तूफां से जंग लेता हूं,

मुझे बचाये समन्दर की जिम्मेदारी है।

 

अभिव्यक्ति मुद्राएं

सूरज नतमस्तक हुआ देख सिंदूरी शाम,

थके पथिक ने कर लिया घाटी में विश्राम।

– आचार्य भगवत दूबे

आशंका होती नहीं रहे न शक भी शेष,

जहां प्रेम होता वहां भय करता न प्रवेश।

– चन्द्रसेन विराट

दंगों की पटु पटकथा लिखता है क्यों मौन ?

मालूम है सबको मगर सब साधे हैं मौन।

– जितेन्द्र जौहर

दु:शासन ने पेश की कैसी कुटिल नजीर,

हर युग में हरने लगे सत्ताधारी चीर।

– अनमोल शुक्ल

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