दिग्विजय उवाच
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आखिरकार एक बार फिर साबित हो गया कि बेलगाम कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह के मुंह से कांग्रेस आलाकमान ही बोलता है। डा. हामिद अंसारी को उपराष्ट्रपति के रूप में एक और कार्यकाल मिल सकता है, यह संकेत सबसे पहले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ही दिया था। यह अलग बात है कि यह संकेत समाचार माध्यमों की सुर्खियां नहीं बन पाया। सुर्खियां बनीं तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी की बाबत दिग्विजय की उन्हें अस्थिर और अपरिपक्व बताने जैसी टिप्पणियां। भले ही, सीधे सोनिया गांधी को चुनौती देने के कारण कांग्रेस ममता से खफा हो, पर राजनीतिक मजबूरियों का तकाजा है किवह उन्हें नाराज नहीं कर सकती। ममता को 24 घंटे में दगा देने वाले मुलायम सिंह यादव का क्या भरोसा? इसलिए ममता को शांत रखने के लिए कांग्रेस के मीडिया विभाग से बयान जारी करवा दिया गया कि दिग्विजय पार्टी की ओर से बोलने के लिए अधिकृत नहीं हैं। पर अब जब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अन्य दलों के नेताओं को फोन कर हामिद अंसारी के लिए उपराष्ट्रपति पद के एक और कार्यकाल की संभावनाएं टटोल रहे हैं तो सब कुछ आईने की तरह साफ हो गया है। 'युवराज' के सिपहसालार समझे जाने वाले दिग्विजय से कांग्रेस आलाकमान पहले भी बटला हाउस मुठभेड़ से लेकर अण्णा हजारे-रामदेव तक तमाम संवेदनशील सवालों पर ऊलजलूल बयानबाजी करवाकर हवा का रुख भांपने की कोशिश करता रहा है। शायद दिग्विजय से हामिद अंसारी का नाम चलवाकर भी कांग्रेस आलाकमान अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों से लेकर वामपंथी दलों तक को एक संदेश दे कर राष्ट्रपति चुनाव में उनका समर्थन पाना चाहता था। कहना नहीं होगा कि वह अपने खेल में सफल भी नजर आ रहा है।
तृणमूल से भयभीत कांग्रेस
तृणमूल कांग्रेस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में रहे या न रहे, पर उसने गठबंधन की अगुआ कांग्रेस की नींद तो उड़ा कर रख दी है। उत्तर प्रदेश के मांट विधानसभा उपचुनाव में जीत हासिल करने के बाद तृणमूल के उत्तर भारत में बुलंद हौसलों से कांग्रेस की नींद उड़ी हुई है। हालांकि उत्तर भारत में अपने अभियान की शुरुआत के लिए तृणमूल ने उन विवादास्पद के.डी. सिंह को चुना है, जिन्हें झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने राज्यसभा सदस्य बनवाया, पर कुछ कांग्रेसियों के भी तृणमूल में शामिल होने से 10, जनपथ और उसके दरबार में भी आशंकाओं की आहट महसूस की जाने लगी है। कांग्रेस आलाकमान के कान खड़े होने की सबसे बड़ी वजह बतायी जा रही है हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के मीडिया सलाहकार सुंदरपाल सिंह का तृणमूल कांग्रेस में शामिल होना। सिर्फ इसलिए नहीं कि मीडिया सलाहकार की मोटी तनख्वाह, सरकारी सुख-सुविधा और लाल बत्ती त्याग कर तृणमूल में गये सुंदरपाल कोई जनाधार वाले नेता हैं, बल्कि इसलिए कि वह मुख्यमंत्री हुड्डा के पुराने मित्र हैं। आंध्र प्रदेश में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनाये गये वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन द्वारा बगावत कर अलग क्षेत्रीय पार्टी बना लेने के बाद कांग्रेस आलाकमान का विश्वास क्षत्रपों से डगमगा गया है। फिर हरियाणा तो दलबदल का आदिस्रोत माना जाता है। आयाराम-गयाराम की शुरुआत तो हरियाणा से ही हुई थी। 1980 में तब के मुख्यमंत्री भजनलाल जनता पार्टी को दगा दे कर सरकार समेत ही कांग्रेस में चले गये थे।
खेल से खिलवाड़
हर ओलंपिक खेलों से पहले हमारे यहां पदकों के सपने दिखा कर करदाताओं की गाढ़ी कमाई पानी की तरह बहायी जाती है, पर वे कितने सच हो पाते हैं- ओलंपिक पदक तालिकाएं इस बात की गवाह हैं। इसी माह होने जा रहे लंदन ओलंपिक से पहले भी वही खेल चल रहा है। पदकों के सपने तो बहुत दिखाये जा रहे हैं, पर उनके पूरे होने का विश्वास जगाने वाले गंभीर और ईमानदार प्रयास नदारद हैं। टेनिस वह खेल है, जिसमें ओलंपिक पदक की भारत की दावेदारी को दूसरे देश भी गंभीरता से ले रहे हैं, लेकिन हमारा तो खेल और खिलाड़ियों से खिलवाड़ का अटूट रिकार्ड है। पहले तो टेनिस संघ देश के दोनों बड़े पुरुष खिलाड़ियों, लिएंडर पेस और महेश भूपति के बीच अहं का टकराव टालने में नाकाम रहा, फिर मिश्रित युगल की टीम बनाने में भी विजय समीकरण का ध्यान नहीं रखा गया। परिणामस्वरूप खेल से पहले ही खिलाड़ी खफा हैं, पर टेनिस संघ के मठाधीशों को मक्खनबाजी में महारथ हासिल है। सो पदक की आस, सानिया मिर्जा को खुश करने के लिए उनकी मां नसीमा को टीम मैनेजर बना कर लंदन भेजा जा रहा है। कभी टेनिस न खेलने वालीं नसीमा क्या और कैसे 'मैनेज' करेंगी, यह टेनिस संघ ही बेहतर जानता होगा। तर्क भी अजीब है कि वह पहले भी कई बार महिला टेनिस टीम की मैनेजर बन कर विदेश जा चुकी हैं। पर सच यह है कि वह अपनी बिटिया के साथ ही जाती रही हैं।
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