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ब्राजील की राजधानी रियो डि जेनेरो में 20 से 22 जून, 2012 को सम्पन्न हुए मौसमी बदलाव पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन की कुल जमा उपलब्धि अगर कुछ रही तो बस यह कि 100 से ज्यादा राष्ट्राध्यक्षों ने एक जगह आकर मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाया, जुमलेदार भाषणों से पर्यावरण को लेकर अपनी-अपनी कोरी चिंताएं जाहिर कीं, सबको साथ लेकर सबके भले का, दीर्घकालिक विकास का कोई ठोस खाका नहीं रखा तथा अमीर और गरीब देशों की सोच में बड़ी भारी खाई को पाटने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखी। सम्मेलन में जारी 49 पन्नों का 'द फ्यूचर वी वांट' दस्तावेज बड़े थोथे शब्दों में वही वही दोहराता है जो 20 साल पहले रियो में ही 'पर्यावरण और विकास' को लेकर हुए सम्मेलन में कहा गया था। यानी 'हम जो भविष्य चाहते हैं' उसकी कोई ठोस कार्ययोजना नहीं रखी गई, न ही दीर्घकालिक विकास के सोपान सुझाकर उन पर बढ़ने का कोई खाका ही प्रस्तुत हुआ। लब्बोलुआब ये कि सम्मेलन में शामिल हुए विभिन्न देशों के वार्ताकार, 193 सदस्य देशों के पर्यावरण विशेषज्ञ, सौ से ज्यादा राष्ट्राध्यक्ष, सम्मेलन स्थल पर प्रदर्शन करने वाले हजारों पर्यावरण प्रेमी और यहां तक कि आयोजक भी इस सम्मेलन के नतीजों से संतुष्ट नहीं थे। इसको सम्मेलन के महासचिव शा जुकांग ने बड़े चुटीले अंदाज में व्यक्त किया। उन्होंने कहा- 'यह वो नतीजा है जो किसी को भी खुश नहीं करता। मेरा काम था हर किसी को बराबरी का नाखुश करना।'
एजेंडे का मुख्य आयाम
20 साल पहले जून 1992 में रियो में ही पर्यावरण और विकास को लेकर हुए सम्मेलन के बाद, अब जून 2012 में हुए इस सम्मेलन को रियो अ20 नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि इसमें बीते 20 सालों में पर्यावरण और विकास पर कितना आगे बढ़ा गया, कितना काम हुआ, पर्यावरण सुधार के लिए क्या पहल हुई आदि का लेखा-जोखा किया जाना था। लेकिन एजेंडे के इस महत्वपूर्ण आयाम का कोई उल्लेख तक नहीं हुआ। इससे बड़ा मजाक और क्या होगा कि सम्मेलन शुरू होने से पहले ही उसमें स्वीकार होने वाला दस्तावेज 'द फ्यूचर वी वांट' तैयार कर लिया गया था। सदस्य देशों के वार्ताकारों ने पहले ही आपास में सलाह-मशविरा करके एक बेजान दस्तावेज बना लिया, उन उन देशों के राष्ट्राध्यक्ष तो बाद में बोले।
'सस्टेनेबल डेवलपमेंट' यानी 'भावी पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए मौजूदा पीढ़ी की बस जरूरत लायक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना' चर्चा में तो आया पर 250 साल पहले शुरू हुई औद्योगिक क्रांति से अब तक जल, जंगल, जमीन, खनिज, पहाड़ वगैरह कुदरती नियामतों का अंधाधुध दोहन करते आ रहे विकसित या कहें अमीर देशों ने इस बाबत कोई गंभीर नजरिया पेश नहीं किया। क्यों? क्योंकि उनकी सोच है कि उथल-पुथल में फंसे दुनिया के अर्थतंत्रों के बीच प्रकृति के अकूत दोहन के बल पर ही आर्थिक विकास किया जा सकता है।
पर्यावरण प्रेमियों की एक बड़ी मांग थी कि सम्मेलन के दस्तावेज में जीवाश्म ईंधनों पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म करने संबंधी उल्लेख होना चाहिए। पर ऐसा हुआ नहीं। जीवाश्म ईंधनों पर जितनी निर्भरता बढ़ेगी पर्यावरण में उतनी ही ज्यादा जहरीली गैसें घुलेंगी। अभी अभी एक अध्ययन की रपट आई है, जिसमें डीजल के धुंए से कैंसर होने की संभावना जताई गई है।
अमीर देशों की हेकड़ी
दुनिया के गरीब देशों का समूह जी-77 (चीन सहित) बार-बार उल्लेख करता रहा कि धरती की नियामतों का सबसे ज्यादा दोहन करने वाले अमीर देश, जैसे अमरीका और यूरोपीय देश, इस बात को स्वीकारें कि उन्होंने गरीब देशों का हक मारा है और इस लिहाज से वे (अमीर देश) गरीब देशों में मौसमी सुधार लाने के प्रयासों को आर्थिक मदद दें। वे खुले दिल से वैसी तकनोलाजी गरीब देशों को दें जिसकी मदद से फिर-फिर पैदा की जा सकने वाली ऊर्जा (रीन्यूएबल एनर्जी) से पर्यावरण सुधारा जा सके। लेकिन पश्चिम के विकसित देश, जो आंकड़ों के आधार पर अपनी करनी स्वीकारते हैं, ऐसी कोई जिम्मेदारी लेने से कन्नी ही काटते रहे। 'ब्रिक्स' (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देशों ने इस सम्मेलन में अपनी चिंताएं जताने का भरपूर मौका जरूर पाया। कारण यह था कि बदलते परिदृश्य में आर्थिक शक्ति का केन्द्र पश्चिम से सरकने लगा है और 'ब्रिक्स' देश नए आर्थिक केन्द्रों के रूप में उभर रहे हैं।
जी-77 यानी विकासशील देशों की तरफ से प्रमुख वार्ताकार मुहम्मद चौधरी सम्मेलन के नतीजे से इतने हताश हैं कि, उनके अनुसार, हर चीज कुछ साल पीछे धकेल दी गई है। दीर्घकालिक विकास के उद्देश्यों और हरित अर्थव्यवस्था की ओर प्रयासों का खाका बनाने के लिए अभी और इंतजार करना होगा। यह बात सही है, क्योंकि इस सम्मेलन में बस आगे और-और सम्मेलन करते जाने की बात पर ही सहमति बनी। कुछ ऐसा ही मानना है राजधानी दिल्ली के वरिष्ठ पर्यावरण विशेषज्ञ, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट के उपमहानिदेशक चंद्रभूषण का। रियो सम्मेलन में भाग लेकर लौटे चंद्रभूषण ने पाञ्चजन्य से बातचीत में कहा कि मानवीय इतिहास में रियो सम्मेलन एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया था, पर हमने वह मौका गंवा दिया। सम्मेलन को नाकाम मानने वाले चंद्रभूषण कहते हैं, '20 साल में मौसमी बदलाव में सुधार के क्या प्रयास हुए, 'सस्टेनेबल डेवलपमेंट' के लिए दुनिया में क्या पहल हुई, इस सब पर सम्मेलन में चर्चा तक नहीं होना चिंता पैदा करता है। आगे की कोई ठोस कार्ययोजना नहीं थी। इससे इतर, विकसित और विकासशील देशों में मौसमी बदलाव को लेकर खींचतान मची रही। विकसित देश विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करने का वायदा करने से बचते रहे। इसलिए वैश्विक ताप कम करने का कोई कार्यक्रम नहीं बना।' पर चंद्रभूषण 'ब्रिक्स' देशों के उभार को एक बड़ी चीज मानते हैं। चीन सहित जी-77 देशों द्वारा मौसमी बदलाव की साझा जिम्मेदारी और तकनोलाजी हस्तांतरण के लिए अमीर देशों पर दबाव तो बनाया गया, पर उस तकनोलाजी का आगे किस प्रकार इस्तेमाल होगा, इसका कोई प्रारूप नहीं रखा। चंद्रभूषण खुद रियो में विकसित देशों के ऐसे कई प्रतिनिधियों, वार्ताकारों से मिले जो यह तो मानते थे कि वैश्विक ताप बढ़ने के पीछे अमरीका और यूरोपीय देशों का बड़ा हाथ है, पर कार्बन उत्सर्जन कम करने संबंधी ठोस पहल की इच्छाशक्ति का अभाव है। चंद्रभूषण रोष भरे अंदाज में कहते हैं, जब तक विकसित देश 'दोहन करो, विकास करो' की अपनी सोच नहीं बदलेंगे, तब तक स्थितियों में सुधार के आसार नहीं दिखते।
दुनिया के देशों की सरकारों की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं, नीतियां हैं, सोच है, आर्थिक विकास के अपने-अपने पैमाने और उन्हें पाने के तरीके हैं। उन्हें रियो जैसा साझा मंच मिल जाए तो भी वे विकास की अंधी दौड़ में जुटे रहना ही सर्वोपरि रखते हैं। ऐसे में, वक्त आ गया है कि आज लोगों को दुनिया के बढ़ते ताप को कम करने की पहल करनी होगी। ऐसे उपाय करने होंगे जिनसे ऊर्जा की खपत कम हो; पेट्रोल, डीजल, कोयले पर निर्भरता कम हो; बिजली बेवजह फूंकने की आदत सुधरे। ऐसा होगा तो आने वाली पीढ़ी खुलकर सांस ले पाएगी और स्वस्थ रह पाएगी।
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