भारत में बेरोजगारी कम होने के संकेत नहीं

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भारत में बेरोजगारी कम होने के संकेत नहीं

दिंनाक: 23 Jun 2012 13:35:14

 गिरीश अवस्थी

पूर्व अध्यक्ष, भारतीय मजदूर संघ

 

इस विषय पर भारत सरकार को गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है तथा बेरोजगारी दूर करने के लिए इस विषय के विशेषज्ञों के साथ बैठकर एक गोष्ठी का आयोजन करना चाहिए और उसके जो निष्कर्ष निकलें उन पर अमल करना चाहिए।

इस समय भारत की अर्थव्यवस्था बेहद संकट के दौर से गुजर रही है। वास्तव में भारत में रहने वाले एक अरब पच्चीस करोड़ लोगों के लिए ये गंभीर आर्थिक संकट की घड़ियां है। हम सबको पता है कि इस समय विश्व में ग्लोबल आर्थिक मंदी का दौर चल रहा रहा है। भले ही इस मंदी के बावजूद कई देशों में विकास की गति में सुधार हुआ है, किन्तु नौकरियों की 'स्कीमों' में कोई भी सुधार नहीं हुआ है अतएव अन्य अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.)  के अनुसार वर्ष 2008-2009 में ग्लोबल मंदी के चलते करीब साढ़े पांच करोड़ लोग बेकार हो गए जो कि चिंता का विषय है अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इस स्थित में भविष्य में भी कोई सुधार होने की आशा नहीं है। ग्लोबल मंदी के चलते  विश्व के कई देशों ने कठोर वित्तीय नीतियां अपनायी हैं तथा श्रम बाजार में सख्ती बरती है। इसी के कारण दुनिया भर में बेरोजगारी बढ़ी है। यह हालत विकसित देशों में कुछ ज्यादा ही है जो कि सामाजिक अस्थिरता का एक बहुत बड़ा कारण बन सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 25 करोड़ युवाओं में से 32 प्रतिशत युवाओं ने कहा है कि यद्यपि भारत की विकास दर में वृद्धि हुई है, लेकिन उनका जीवन सुखमय नहीं हुआ। भारत में ही आय विषमता का दौर तेजी से बढ़ रहा है, जो कि चिंताजनक है। एक सर्वेक्षण के दौरान अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सी गेलप ने 29 जनवरी से 8 मार्च, 2012 के मध्य जो परिणाम निकाले उसमें एजेन्सी ने लोगों को तीन श्रेणियों में रखा है। पहले वे लोग हैं जो जीवन में निरन्तर उन्नति कर रहे हैं, दूसरे वे लोग हैं जो जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तीसरे वे लोग जो देश में व्याप्त आर्थिक विषमता के कारण कष्ट भोग रहे हैं। एजेन्सी ने उनसे पूछा कि वे अपने को वर्तमान और भविष्य की किस श्रेणी में रख रहे हैं। रपट के अनुसार जनमत संग्रह से ऐसे संकेत मिले हैं जो सबसे गरीब और बहुत कम पढ़े-लिखे थे वे अपने को पीड़ित वर्ग में मानते हैं। अध्ययन के दौरान यह भी पता चला कि भारतीय पूर्णकालिक नौकरी को अच्छी नौकरी मानते हैं। वर्ष 2012 की शुरुआत तक 42.6 प्रतिशत भारतीयों के पास पूर्णकालिक नौकरियां थीं। सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2011-2012 के बीच पीड़ितों की संख्या में वृद्धि हुई है। जब सर्वेक्षण भारत के किसानों के मध्य किया गया तो उन्होंने अपने को इतना गरीब बताया जो कि देश की उच्च आर्थिक विकास दर से मेल नहीं खाता। इस सर्वेक्षण में 15 साल के ऊपर के करीब 5000 किसानों ने भाग लिया। एक अनुमान के अनुसार विश्व में अगले 10 वर्षों में दुनिया भर के लगभग एक अरब 25 करोड़ युवा लोग नौकरी की तलाश में होंगे जिनमें से केवल 30 करोड़ लोगों को ही नौकरियां प्राप्त होंगी। इस विषय पर शोधकर्ता महिला लूसी का कहना है कि इस समस्या का निदान केवल यही है कि 50 साल से ज्यादा उम्र के कर्मचारी स्वत: नौकरी से त्यागपत्र दे दें। मेरी राय में लूसी का उपरोक्त विचार भारत की सामाजिक व्यवस्था को देखते हुए उचित नहीं है। क्योंकि 50 वर्ष के ऊपर के कर्मचारियों पर सामाजिक दायित्वों का बोझ बढ़ जाता है। उन्हें अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की चिंता रहती है। उसमें होने वाले खर्च के बोझ से वे दबे रहते हैं, तथा अपने आश्रित लड़के एवं लड़कियों की शादी भी उन्हें करनी पड़ती है। यदि लूसी के मतानुसार 50 वर्ष के ऊपर के लोग नौकरी से त्यागपत्र दे देंगे तो उनके सामाजिक दायित्वों का निर्वाह कैसे होगा, और वे पिछड़ों की श्रेणी में आ जाएंगे। लूसी का बेरोजगारी दूर करने का उपरोक्त तरीका भारत में कामयाब नहीं हो सकता। उचित तरीका यह कि हमारे देश के युवाओं को रोजगार मूलक शिक्षा दी जानी चाहिए। हमारे देश के युवाओं के मन के अन्दर स्वरोजगार की भावना जागृत करनी चाहिए। तभी देश से बेरोजगारी दूर  हो सकती है। इस विषय पर भारत सरकार को गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है तथा बेरोजगारी दूर करने के लिए इस विषय के विशेषज्ञों के साथ बैठकर एक गोष्ठी का आयोजन करना चाहिए तथा उसके जो निष्कर्ष निकलें उन पर अमल करना चाहिए। देश से बेरोजगारी दूर करना अपना प्रथम कर्तव्य होना चाहिए।

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