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अमरीका और भारत के बीच मुस्लिम आतंकवाद का तुलनात्मक अध्ययन

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Jun 23, 2012, 12:00 am IST
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अमरीका और भारत के बीच मुस्लिम आतंकवाद का तुलनात्मक अध्ययन

दिंनाक: 23 Jun 2012 13:12:58

मुजफ्फर हुसैन

भारत सरकार ही बढ़ा रही है कट्टरवाद

भारत और अमरीका दोनों देशों में बसने वाले अल्पसंख्यक अधिकांशत: मुस्लिम हैं और दोनों ही देशों में मुस्लिम आतंकवाद अपनी चरम सीमा पर है। पर आतंकवादियों को दण्डित करने में अमरीकी सरकार जितनी सक्रिय है, भारत सरकार उतनी ही निष्क्रिय। न्यूयार्क सिटी पुलिस विभाग के विरुद्ध न्यूजर्सी के आठ मुस्लिम नागरिकों ने, जिनका प्रतिनिधित्व 'मुस्लिम एडवोकेट्स ग्रुप' कर रहा है, वहां की फेडरल कोर्ट में आवेदन किया है कि वे मुस्लिम क्षेत्रों की जासूसी के विरुद्ध न्यूयार्क पुलिस को स्पष्ट आदेश जारी करे। 'मुस्लिम एडवोकेट्स ग्रुप' के कानूनी निदेशक ग्लीन काटोन का कहना है कि जब न्यूयार्क पुलिस यह कहती है कि सभी मुसलमान संदेहास्पद हैं तो इससे सिद्ध हो जाता है कि पुलिस विभाग एक पूरे समाज और उसके मजहब को बदनाम करने की कोशिश कर रहा है।

कट्टरता का आवरण

पहले स्थिति यह थी कि मुस्लिम देशों के सम्बंध में अमरीका की विदेश नीति ही परेशान करने वाली थी। लेकिन अमरीका के भीतर सब कुछ ठीकठाक था और मुसलमानों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाता था। लेकिन अब देश के भीतर भी सरकार का रवैया बिल्कुल वैसा ही होता जा रहा है जैसा कि उसकी विदेश नीति है। 'मुस्लिम लीगल डायरेक्टर' का कहना है कि अब अमरीका के भीतर भी सरकार का रवैया मुस्लिमों के मामले में बदल गया है। गृहमंत्रालय से जब शिकायत की जाती है तो उसका स्पष्ट जवाब होता है कि वह अपने देश की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। वे अपने मुस्लिम नागरिकों से इस प्रकार का बर्ताव करते हैं मानो वे विदेशी हैं। आश्चर्य यह है कि वे अमरीकी नेता, जो सारी दुनिया में प्रचार करते रहते हैं कि वे स्वतंत्रता-प्रेमी हैं, उन्हें भी इसका अहसास नहीं होता है। कहा जाता है कि अमरीका के मुसलमानों पर वहां के प्रशासन की आंखें 24 घंटे टिकी रहती हैं। यद्यपि यह चिंतन अमरीका से ही निकला है कि हर आतंकवादी मुसलमान होता है, लेकिन हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता है। अमरीकी सरकार का कहना है कि आतंकवादियों की अमरीकी मुस्लिम खुलकर निंदा नहीं करते हैं। वे अपने राष्ट्र के साथ नहीं, बल्कि अपने मजहबी बंधुओं के साथ अधिक निकटता रखते हैं। मजहब एक होने के कारण वे आपस में जल्दी ही घुल-मिल जाते हैं। इस कारण कई तरह की शंकाएं पैदा होती हैं। इसलिए अमरीकी प्रसासन ऐसी कोई छूट नहीं देना चाहता है जिसके कारण फिर से 9/11 जैसी घटना घट जाए। एक समय था कि दुनिया के जिस देश में मुस्लिम रहता था वह उसी देश की पारम्परिक वेश-भूषा अपनाता था। अपने मजहबी स्थलों के प्रति उनमें इतना लगाव और जुड़ाव नहीं था। वे बड़ी मात्रा में एकत्रित नहीं होते थे और हर जगह अपने मजहबी केन्द्र स्थापित नहीं करते थे। लेकिन जब से आतंकवाद की हवाएं बहने लगीं तब से अधिकतर मुस्लिम कट्टरता के आवरण में सांस लेने लगे हैं। इसलिए उस देश के प्रशासन को उनसे चौकन्ना रहने की आवश्यकता पड़ती है। अमरीका इन सारी बातों से सतर्क रहता है। चाहे उसके लिए विदेश में कितनी ही आलोचना हो। उसके देशवासी भी सरकार पर चाहे तो आरोप लगाएं लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं हैं। अमरीकी सरकार अपने राष्ट्र की सुरक्षा को प्राथमिकता देती है। इसका परिणाम भी सामने हैं। 9/11 की घटना के पश्चात् अमरीका में दूसरी बार ऐसी कोई रक्तरंजित घटना नहीं घट सकी।

वोट बैंक की चिन्ता

लेकिन भारत में स्थिति भिन्न है। यहां की सरकार को अपने वोट बैंक की अधिक चिंता है। इसलिए वह राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता कर लेती है। सरकार की नीति हमेशा से इन तत्वों को पुचकारने की रही है। केन्द्र सरकार ने मजहब के आधार पर आरक्षण देने की घोषणा की। सर्वोच्च न्यायालय में जब इस मुद्दे को चुनौती दी गई तो सरकार को मुंह की खानी पड़ी। क्या मजहब के आधार पर आरक्षण सम्बंधी असंवैधानिक निर्णय लेकर सरकार ने पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत पर लात नहीं मारी? अमरीकी सरकार इस समय कोई ऐसा निर्णय नहीं ले रही है, जिससे कि अल्पसंख्यक समुदाय को उत्तेजना मिले। लेकिन भारत सरकार ठीक इसके विपरीत इस प्रकार के तत्वों को उत्तेजित कर रही है। इसका अप्रत्यक्ष लाभ तो उन आवांछनीय तत्वों को मिलेगा ही, जो आतंकवाद को प्रबल बनाने में किसी न किसी प्रकार का योगदान दे रहे हैं। सरकार कम से कम समय की नजाकत का ही ध्यान रखती। संविधान का अपमान और बहुसंख्यक समाज की अवहेलना न्यायिक और मानवीय संदेश देने वाला निर्णय नहीं कहा जा सकता है। सोनिया गांधी की अध्यक्षता में चलने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने पिछले दिनों 'साम्प्रदायिक व लक्षिता हिंसा रोकंथाम विधेयक' का मसौदा तैयार किया, जो बहुत शीघ्र संसद में कानून बनाने के लिए पेश किया जाएगा। इस अधिनियम के तहत प्रशासन किसी भी विवाद, झगड़े अथवा दंगे के लिए पहले से ही यह मानकर चलेगा कि इसमें अपराधी केवल और केवल बहुसंख्यक समाज के ही लोग हैं। बिना किसी जांच-पड़ताल के यह पहले ही तय कर लिया जाएगा कि इस मामले में दोषी केवल और केवल हिन्दू ही होगा। अल्पसंख्यक वर्ग का व्यक्ति न तो अपराध कर सकता है और न ही वह किसी कानून के तहत उसका उत्तरदायी हो सकता है। क्या इस प्रकार के कानून उन शरारती और आतंकवादी तत्वों के लिए प्रोत्साहन का कारण नहीं बनेंगे? यदि ऐसा है तो संविधान, कानून और न्यायपालिका की फिर आवश्यकता ही क्या रहेगी? क्योंकि पुलिस में शिकायत आते ही अपराधी तो स्वयं बहुसंख्यक समाज का ही व्यक्ति हो जाएगा। अल्पसंख्यक समाज इसका उपयोग किस प्रकार से करेगा इसकी कल्पना से शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार के कानूनों से अल्पसंख्यक समाज को जो उत्तेजना मिलेगी इसका अंत तो केवल और केवल आतंकवादी शरारतों में ही होगा। संविधान और कानून सभी के लिए समान हैं। लेकिन पिछले दिनों कानून के तहत विवाह की निश्चित की गई आयु को न्यायालय में बदलने का पाप किया गया है। किसी भी मत-पंथ और समाज की लड़की हो इसके विवाह की आयु 18 वर्ष कानूनी रूप से तय की गई है। लेकिन पिछले दिनों एक निर्णय में यह कहा गया कि मुस्लिम लड़की की आयु 15 वर्ष की भी होगी तब भी उसे वयस्क माना जाएगा। शर्त यह है कि वह मासिक धर्म की स्थिति में पहुंच गई हो। उक्त कसौटी क्या हिंदू अथवा अन्य मत-पंथ की लड़कियों के लिए नहीं हो सकती है? इसका तो यह अर्थ हुआ कि कट्टरवादी जो अलग इस्लामी कानून की मांग करते हैं, उनका समर्थन किया गया है। कानून मंत्रालय को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। दुनिया के मुस्लिम आतंकवादी इस्लामी कानून को लागू करने की ही बात कर रहे हैं। जब भारत में ऐसा होने लगा है तो फिर इसे क्या समझा जाए? अमरीका अपने यहां संविधान विरोधी गतिविधियों और कट्टरवादी तत्वों को सख्ती से कुचल रहा है, जबकि भारत में स्वयं सरकार उन्हें बढ़ावा दे रही है। तब यह सवाल प्रासंगिक हो जाता है कि भारत सरकार कट्टरवाद को समाप्त करना चाहती है या प्रोत्साहन देना  चाहती है?

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