बात बेलाग
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पेट्रोल मूल्य निर्धारण सरकारी नियंत्रण से बाहर होने के सरकारी दावे की कलई एक बार फिर खुल गई। संसद का बजट सत्र समाप्त हुआ। मनमोहन सिंह सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल की तीसरी वर्षगांठ मनाते ही अगले दिन पेट्रोल की कीमत में साढ़े सात रुपये प्रति लीटर की वृद्धि का कोड़ा आम आदमी पर फटकार दिया। आजाद भारत में पेट्रोल के मूल्य में इतनी अधिक एकमुश्त वृद्धि इससे पहले कभी नहीं हुई थी। वैसे इससे पहले का पांच रुपये प्रति लीटर की वृद्धि का रिकार्ड भी मनमोहन सिंह सरकार के ही नाम था। हैरत की बात यह है कि यह अभूतपूर्व वृद्धि उस समय की गयी जब अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य कम हो रहे हैं। इसके बावजूद बड़ी बेशर्मी से तर्क दिया गया कि पेट्रोल मूल्य निर्धारण सरकारी नियंत्रण से बाहर है और अन्तरराष्ट्रीय बाजार के मद्देनजर सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां स्वयं यह फैसला करती हैं। पर इसका जवाब न सरकार के पास था और न ही कांग्रेस के पास कि ये तेल कंपनियां संसद का सत्र समाप्त होने का इंतजार क्यों कर रही थीं? वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब गुपचुप पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ाये गये हैं। पिछले साल विधानसभा चुनावों के लिए हुए मतदान के अगले ही दिन कीमतें बढ़ा दी गयी थीं। खैर, अचानक साढ़े सात रुपये वृद्धि के बाद दो जून को दो रुपये प्रति लीटर की कमी से भी साबित हो गया कि सार्वजनिक तेल कंपनियों के कंधे पर रखकर महंगाई की यह बंदूक सरकार ही चलाती है। पेट्रोल की कीमत साढ़े सात रुपये प्रति लीटर बढ़ाये जाने के विरोध में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और वाम दलों ने 31 मई को भारत बंद का आह्वान किया, जो बेहद सफल भी रहा। उसी दिन तेल कंपनियों की ओर से संकेत आया कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार के मद्देनजर कीमतें दो रुपये प्रति लीटर तक कम की जा सकती हैं, लेकिन बंद का आह्वान करने वालों को श्रेय न मिल जाए, इसलिए सरकार ने उन्हें एक जून को तय समीक्षा बैठक में फैसला नहीं लेने दिया। नतीजतन उपभोक्ताओं को एक दिन और महंगा पेट्रोल खरीदना पड़ा और कीमतों में कमी का झुनझुना भी दो जून की मध्यरात्रि से बजाया गया।
'युवराज' का दृष्टिदोष
कुछ लोग आदत से मजबूर होते हैं। कांग्रेस के 'युवराज' का मामला भी कुछ ऐसा ही है। 'मिशन यूपी' के तहत तीन साल उत्तर प्रदेश में राजनीतिक तमाशों के बावजूद कांग्रेस के हाथ को जनता का साथ नहीं मिल सका। वह एक सबक होना चाहिए था हवा-हवाई राजनीति के अंजाम का। लेकिन राहुल तो ठहरे 'युवराज'। सो, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सफाये का ठीकरा वहां के नेताओं के सिर फोड़कर अब 'मिशन बंगलूरु' पर निकल पड़े हैं। उत्तर प्रदेश में जिन मायावती की सरकार को महाभ्रष्ट बताते थे, संसद में सरकार बचाने के लिए उन्हीं की चिरौरी करने में अब कांग्रेस को कोई शर्म नहीं आती। आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति समेत भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में सीबीआई जांच झेल रहे मुलायम सिंह तो संप्रग सरकार की तीसरी वर्षगांठ पर खास मेहमान थे। अब 'युवराज' को कर्नाटक सबसे भ्रष्ट राज्य नजर आ रहा है। वहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। सो, कांग्रेस ने अभी से दुष्प्रचार शुरू कर दिया है, जबकि दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार से लेकर केन्द्र की मनमोहन सिंह सरकार तक, कांग्रेस का दामन हर जगह भ्रष्टाचार से ही बजबजा रहा है। जनता दृष्टिदोष की शिकार नहीं है, यह बात उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा के विधानसभा चुनावों में हाल ही में साबित भी हो चुकी है। पर 'युवराज' हैं कि अपने दृष्टिदोष से निजात ही नहीं पाना चाहते।
महिमा मनमोहनी सरकार की
लगभग ढाई दशक बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री म्यांमार यानी बर्मा की यात्रा पर गया। इस अवधि में वहां चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर यह यात्रा सामरिक, राजनीतिक और आर्थिक, हर दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में हुए दर्जन भर समझौते भी इसी महत्व का प्रमाण हैं। भारत ने पांच अरब डालर का रियायती ऋण भी म्यांमार को दिया है। लेकिन अजीब बात है कि, जब मनमोहन सिंह वहां बेहतर संबंधों का नया अध्याय लिख रहे थे, लगभग उसी समय उन्हीं के गृह राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह पूर्वोत्तर सीमा पर जाकर म्यांमार को 'शत्रु देश' करार दे रहे थे। अब मनमोहन करें भी तो क्या, सरकार भले ही उनकी हो, पर जितेन्द्र सिंह 'युवराज' के प्रमुख दरबारी हैं। समदर्शी
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