क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत
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इतिहास दृष्टि
डा.सतीश चन्द्र मित्तल
गत 28 मई को सावरकर जयंती थी। विनायक दामोदर सावरकर विश्वभर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। भारतीय क्रांतिकारियों के लिए उनका नाम ही उनका संदेश था। वह एक प्रखर हिन्दू, असाधारण त्यागी तथा कठोर व दृढ़ ध्येयनिष्ठ थे। सावरकर का जीवन बहुआयामी था। वे एक महान क्रांतिकारी, विचारक, चिंतक, साहित्यकार, इतिहासकार, समाज सुधारक तथा अखण्ड भारत के स्वप्न दृष्टा थे। उनका सम्पूर्ण चिंतन स्वधर्म की रक्षा तथा स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए बीता।
बाल्यकाल से ही मेधावी
वीर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर नामक ग्राम में 28 मई, 1883 को हुआ था। इनके पिता दामोदर पंत सावरकर तथा माता राधाबाई थीं। ये तीन भाई थे तथा इनकी एक बहन थी मैना। तीनों भाई-गणेश, विनायक तथा नारायण क्रांतिकारी थे। कह सकते हैं कि देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम, स्वाभिमान और अनुशासन इन्हें जन्म घुट्टी में मिला था। छह वर्ष की आयु में विनायक का शिक्षण गांव की पाठशाला से प्रारम्भ हुआ। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण बचपन से ही विनायक ने पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त समाचार पत्र पढ़ने तथा कविता लिखने में अपनी रुचि दिखाई। दस वर्ष की आयु में इनकी पहली कविता पुणे के एक मराठी दैनिक में प्रकाशित हुई। 1899 में प्लेग के प्रकोप से इनके पिता तथा चाचा का निधन हो गया। इन्हीं दिनों महाराष्ट्र में भयंकर अकाल भी पढ़ा। इन्हीं दिनों चाफेकर बन्धुओं के बलिदान तथा लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी को चुनौती के रूप में लिया। तब विनायक ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर देशभक्तों का एक दल तथा एक वर्ष बाद 'मित्र मेला' नाम का एक संगठन बनाया। यही संगठन बाद में 'अभिनव भारत सोसाइटी' के नाम से विख्यात हुआ।
सामान्यत: नासिक वह स्थान बताया जाता है जहां सूर्पनखा की नाक काटी गई थी। अत: रामलीला के माध्यम से वीर सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्य की नाक काटने का मंचन कराया। जब इंग्लैण्ड के सम्राट एडवर्ड सप्तम का राज्याभिषेक किया गया तब विनायक पहले ऐसे आंदोलनकारी थे जिन्होंने इसके विरोध में भारत की स्वतंत्रता की मांग की। 1902 में सावरकर ने पुणे के फर्ग्युसन कालेज में प्रवेश लिया। इन्हीं दिनों सावरकर के लेखों से 'काल' के सम्पादक बहुत प्रभावित हुए, जिनके माध्यम से सावरकर का परिचय लोकमान्य तिलक से हुआ। वस्तुत: वीर सावरकर लोकमान्य तिलक तथा शिवराम परांजपे से जीवन भर अत्यधिक प्रभावित रहे। 1905 में बंग-भंग के समय स्वदेशी के प्रचार तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार में सावरकर ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 7 अक्तूबर को विजयादशमी के दिन विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। उस समय गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहकर विदेशी वस्त्रों को जलाने की कटु आलोचना की, यद्यपि बाद में उन्होंने भी यही मार्ग अपनाया।
सबमें अग्रणी
सावरकर ने बाम्बे विश्वविद्यालय से बी.ए.की परीक्षा पास की। विधि स्नातक (लॉ) करने के लिए उन्हें लंदन स्थित श्यामजी कृष्ण वर्मा से छात्रवृत्ति मिल गई तथा वे जून, 1906 में लंदन चले गए। इंग्लैण्ड में सावरकर के चार वर्ष उनके जीवन के चार तूफानी वर्ष थे। इस दौरान न वे स्वयं चैन से बैठे और न ही ब्रिटिश सरकार को चैन की सांस लेने दी। वस्तुत: वे अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता की मांग करने वाले अथवा विदेशी वस्त्रों की होली जलाने वाले प्रथम व्यक्ति ही नहीं थे बल्कि अनेक क्रियाकलापों में भी अग्रणी थे। संभवत: वे भारत के पहले ऐसे छात्र थे जो सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय से हटाये गए थे। वे पहले ऐसे भारतीय थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी लंदन जाकर क्रांतिकारी आन्दोलन का सूत्रपात किया था। उनके द्वारा स्थापित 'इंडिया हाउस' क्रांतिकारियों का तीर्थस्थल बन गया था और ब्रिटिश गुप्तचर विभाग के लिए शैतानों का अड्डा या भूतों का घर। वे भारत के पहले ऐसे बैरिस्टर थे जिन्होंने 'लॉ' की परीक्षा पास की, पर ब्रिटिश राजभक्ति की शपथ न लेने के कारण उनकी डिग्री छीन ली गई। भारत के वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन की स्वर्ण जयन्ती लंदन में मनाई! सावरकर पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 के संघर्ष को '1857 का विद्रोह', 'षडयंत्र', 'ईसाइयों के विरुद्ध बगावत', राजद्रोह आदि के स्थान पर 'भारत का स्वतंत्रता संग्राम' कहा। वे पहले ऐसे लेखक थे जिनकी '1857 का स्वतंत्रता संग्राम', पुस्तक प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दी गई। वे पहले ऐसे भारतीय थे जिन्हें ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय में पढ़ने से रोका गया। वस्तुत: 1857 पर पुस्तक लिखने के लिए सावकर के ही साथी जे.एम. मुखर्जी की अंग्रेज पत्नी के सहायक के रूप में उन्हें वहां पढ़ने का अवसर मिला था। वे पहले ऐसे युवक थे जिन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय में 1500 पुस्तकों का अध्ययन किया।
असाधारण व्यक्तित्व
जब भारत में क्रांतिकारियों के विरुद्ध दमन की नीति चरम सीमा पर थी तब सावरकर ब्रिटिश गुप्तचरों की नजर में सबसे ज्यादा खटकते थे। आखिरकार मार्च, 1910 में लन्दन के विक्टोरिया स्टेशन पर उन्हें बंदी बना लिया गया। सावरकर पर लंदन के न्यायालय में अभियोग चलाए जाने का नाटक किया गया। फिर अंग्रेजों ने तय किया कि उन पर अभियोग भारत में चलाया जाए। परिणामस्वरूप 1 जुलाई, 1910 को एस.एस. मोरिया नामक जलपोत से उन्हें भारत भेजा गया। पर जलपोत के शौच द्वार से निकलकर, समुद्र की लहरों पर तैरकर, मृत्यु का भय न करते हुए उन्होंने भागने की कोशिश की। वे किसी भी प्रकार ब्रिटिश सरकार के शिकंजे से निकलना चाहते थे। उनकी सोच थी कि कृष्ण भी तो जेल से बाहर गए थे, शिवाजी भी आगरा के किले से छिप-छिपाकर निकले थे, ताकि अपना लक्ष्य पा सकें। परन्तु वे फ्रांस के तट पर पहुंच कर पुन: पकड़ लिए गए। उल्लेखनीय है कि वे पहले ऐसे राजनीतिक बंदी थे जिनका मुकदमा अन्तरराष्ट्रीय अदालत 'हेग' में लड़ा गया। वे पहले ऐसे भारतीय थे जिन्हें अंग्रेज सरकार ने एक नहीं बल्कि दो जन्म अर्थात 50 वर्ष का कठोर कारावास दिया था। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनके पास बी.ए. की डिग्री होने पर भी उन्हें जेल की सभी सुविधाओं से वंचित रखा गया था। उन्हें जेल में 'डी' (डेंजरस) अर्थात् खतरनाक श्रेणी में रखा गया था। उन्हें कोल्हू में बैल की जगह जुतने, चूने की चक्की चलाने, राम बांस कूटने के साथ ही कोड़ों से पीटने की सजा दी गयी। इतना सब होने पर भी उन्होंने अपनी राष्ट्रीय भावनाओं से रत्ती भर भी समझौता नहीं किया। उन्होंने अंदमान कारागार की दीवारों पर कोयले की लेखनी से साहित्य की रचना की। जेल के पत्थरों में प्राण फूंक दिए। उन्होंने स्वयं द्वारा रचित दस हजार पक्तियों को कंठस्थ किया। व्यासपीठ पुरस्कार विजेता खाण्डेकर ने एक स्थान पर लिखा-हम सब उनके सामने बौने हैं।
अखण्ड भारत के स्वप्न दृष्टा
सावरकर 'अखण्ड भारत' के स्वप्न दृष्टा थे। अनेक विद्वानों का मत है कि यदि सावरकर न होते तो अमृतसर पाकिस्तान में होता, कलकत्ता भी पाकिस्तान में होता। 1944 में उन्होंने अखण्ड भारत के लिए भरपूर जोर लगाया। उन्होंने माउंटबेटन को मजबूर कर दिया कि उक्त प्रदेश भारत में रहने दिए जाएं। इतना ही नहीं 1935 में, जब उनके डा. अम्बेडकर से निकट सम्बंध थे, सावरकर पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अस्पृश्यों के मंदिरों में प्रवेश को लेकर आंदोलन किया और बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना थी। इतना ही नहीं, जब 1948 में उन्हें गांधी जी की हत्या के आरोप में बेवजह बंदी बनाया गया, तब डा. अम्बेडकर कानून मंत्री होने के बावजूद उनका मुकदमा लड़ने के लिए आगे आए, क्योंकि वे जानते थे कि उन पर लगा आरोप झूठा है। वीर सावरकर ने क्रांतिकारी युवकों की एक टोली खड़ी की। मदन लाल धींगरा अमृतसर के एक ब्रिटिश राजभक्त पिता के पुत्र थे। पर सावरकर के सम्पर्क में आकर क्रांतिकारी बने और ब्रिटेन की राजधानी लंदन में शहीद होने वाले पहले भारतीय भी। शहीद भगत सिंह के भी प्रेरणास्रोत सावरकर ही थे, जिन्होंने जेल में उनकी पुस्तक 'हिन्दू पद पातशाही' पढ़ी थी। भगत सिंह ने उनकी प्रतिबन्ध लगी पुस्तक '1857 का स्वतंत्रता संग्राम' का गुरुमुखी में अनुवाद कर गुप्त रूप से प्रकाशित भी करवाया था। वे सुभाष चन्द्र बोस के भी प्रेरणास्रोत थे, जिनकी उनसे भेंट 1940 में हुई थी तथा उन्होंने ही सुभाष को विदेशों में जाकर अंग्रेजों से संघर्ष करने की सलाह दी थी। उन्होंने सुभाष बोस को रास बिहारी बोस के नाम एक पत्र भी दिया था। वे आशुतोष मुखर्जी के पुत्र श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भी प्रेरणास्रोत थे, जिन्होंने बाद में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। सावरकर द्वारा लिखित पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थीं। भारत के इस महान क्रांतिकारी का निधन 26 फरवरी, 1966 को हुआ था।
राष्ट्रनायक सावरकर
वीर सावरकर हाजिर जवाबी में किसी से पीछे नहीं थे। 1940 में एक बार जब पंजाब का गर्वनर सिकन्दर हयात खां वेष बदलकर सावरकर से मिलने गया तथा पूछा 'क्या मुझे पहचानने हो?' तो सावरकर बोले, 'क्या पोरस सिकन्दर को नहीं पहचानता।' इसी भांति जब एक कम्युनिस्ट ने उनसे पूछा, 'क्या आपने लेनिन पढ़ा है।' तपाक से उत्तर देते हुए वे बोले, 'क्या लेनिन ने सावरकर पढ़ा है?' सावरकर गांधी जी की अंहिसा की नीति के समर्थक नहीं थे। एक बार 'इंडिया हाउस' (लंदन) में जब गांधी जी की सावरकर से भेंट हुई तब संयोगवश सावरकर झींगा मछली पका रहे थे। जब गांधी जी ने अचरज से कहा, 'अरे मछली खाओगे?' सावरकर बोले, 'यदि इन्हें नहीं खाएंगे तो बड़े-बड़े मगरमच्छों से कैसे लड़ेंगे?' साफ है कि सावरकर के प्रत्येक उत्तर में उनकी कार्यशैली तथा उनकी ध्येयनिष्ठा के दर्शन होते थे।
वीर सावरकर के प्रति देश-विदेश के क्रांतिकारी में ही नहीं, अन्य भी श्रद्धा रखते थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने उन्हें 'राष्ट्रीय नायक' माना है तो भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश मोहम्मद करीम छागला ने उन्हें एक महान देशभक्त तथा भारत का एक 'यशस्वी पुत्र' कहा है। अरुणा आसफ अली के अनुसार उनमें शिवाजी की आत्मा थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने भी एक गुप्तचर से मांगकर उनकी 1857 पर लिखी पुस्तक पढ़ी थी। सावरकर का कथन था कि देश के उद्धार के लिए राजनीति का हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं का सैनिकीकरण होना चाहिए। इसी सन्दर्भ में जनरल करिअप्पा का विचार उल्लेखनीय है जिनके अनुसार, 'यदि भारत ने सावरकर के सैनिकीकरण की नीति अपनाई होती तो 1962 की पराजय न होती।'
परन्तु दुर्भाग्य से भारत की सत्ता की राजनीति ने उन्हें यथेष्ठ स्थान और सम्मान नहीं दिया। 13 मई, 1957 को दिल्ली में जब देश के अनेक तरुण उनसे आशीर्वाद लेने व सम्मान देने के लिए एकत्र हुए तो उन्होंने कहा कि उनका जन्म भगूर अर्थात भृगु की भूमि में हुआ, जो शापित थे। अत: वे तो केवल उपेक्षा, उलाहना, अवहेलना तथा तिरस्कार के ही पात्र हैं। साथ ही अपना सन्देश देते हुए आह्वान किया कि स्वाधीनता अभी अधूरी है तथा संघर्ष जारी है। नई पीढ़ी को देश की सुरक्षा के प्रति सशक्त बनाना है तथा पुन: अखण्ड भारत बनाने का स्वप्न देखना है और उसे पूरा करना है।
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