भारत की तेल आयात नीति
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इमामों के प्रभाव में
मुजफ्फर हुसैन
इन दिनों विश्व स्तर पर ईरान और अमरीका में ठनी हुई है। अमरीका चाहता है कि ईरान परमाणु हथियार विकसित न करे। लेकिन ईरान सरकार ने अमरीका के सम्मुख आत्मसमर्पण नहीं किया है। परमाणु हथियारों का बहाना करके अमरीका को इराक में हस्तक्षेप किया। बहुत खोजने पर भी अमरीका को इराक में कोई सबूत नहीं मिला। इसके बावजूद अमरीका ने इराक में अपनी फौजें उतार दीं और सद्दाम को न केवल गिरफ्तार किया, बल्कि उसे मृत्युदंड देकर अपने रास्ते से हटा दिया। कुवैत और इराक की लड़ाई का भी मुख्य कारण तेल ही था। अमरीका तेल उत्पादक देशों पर अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है। अमरीका की इस दादागिरी के कारण मध्य-पूर्व के अधिकांश मुस्लिम देश उससे नाराज हैं। लेकिन अमरीका जानता है कि उनकी रक्षा केवल और केवल वही कर सकता है। इसलिए तेल उत्पादक देश प्रारंभ से ही अमरीका के भरोसे जीवित हैं। सऊदी अरब इस क्षेत्र में अमरीका का सबसे भरोसेमंद देश है। इमाम खुमैनी के सत्ता में आने से पूर्व ईरान भी पूंछ हिलाने में पीछे नहीं रहता था। ईरान के शाह के साथ अमरीका ने लम्बे समय के लिए संधियां की थीं जो उसके तेल की पूर्ति के लिए वरदान थीं। ईरान और अमरीका के बीच पहला झटका उस समय लगा जब अयातुल्ला खुमैनी ने अमरीका को बड़ा शैतान और इस्रायल को छोटे शैतान की उपमा दे डाली। विश्व में आतंकवाद का युग प्रारंभ होते ही मध्य-पूर्व के देशों में राजनीति की हवा बदलने लगी। अमरीका के लिए पहले जैसा वातावरण नहीं रहा। इस्लामी देशों की एकता को पुख्ता बनाने के लिए परमाणु हथियारों के निर्माण का सिलसिला चल पड़ा। अमरीका के लिए यह कड़वा अनुभव था। ईरान मुस्लिम राष्ट्रों में प्रगतिशील होने के कारण इस दिशा में तेजी से बढ़ा। फिलस्तीन के मुद्दे पर ईरान इस्रायल से नाराज तो था ही, लेकिन अमरीका ने उसे हवा दी और इस्रायल ने भी अपने तेवर दिखाने शुरू किए। इस प्रकार अमरीका और इस्रायल दोनों ही ईरान के साथ पंजा लड़ाने की तैयारियां करने लगे। ईरान ने अमरीका को तेल की आपूर्ति बंद कर दी।
सऊदी अरब का उपयोग
अब अमरीका विश्व बिरादरी को ईरान के विरुद्ध तैयार करने में जुट गया। सबसे पहले उसने उन देशों से यह आग्रह किया कि वे ईरान से तेल लेना बंद कर दें। भारत को भी यह सलाह दी गई। भारत ने पहले तो बात नहीं मानी, लेकिन हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा के पश्चात् तेल आयात करने की नीति में कटौती प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। भारत ने प्रारंभ में अमरीका को घास नहीं डाली इसलिए भारत पर दबाव किस प्रकार लाया जाए इसके रास्ते ढूंढे जाने लगे। अमरीका भली प्रकार जानता है कि भारत में सुन्नी मुसलमानों का बहुमत है। वे अपने इस वोट बैंक को कभी नाराज नहीं कर सकते हैं। इसलिए भारत के सुन्नी मुसलमानों पर दबाव डलवाने के लिए अमरीका ने सऊदी अरब का उपयोग किया। यद्यपि ईरान इस मामले में चुप नहीं बैठा उसने भी भारत के शिया समुदाय को यह संदेश दिया कि ईरान जो कुछ कर रहा है वह ठीक कर रहा है। भारत अपनी तेल आपूर्ति के लिए कोई बाहरी दबाव को स्वीकार नहीं करना चाहता था। इसलिए ईरान ने भारत के शिया समाज से आग्रह किया कि वह अमरीका को इस बात की छूट न दे। ईरान के इस संदेश का उत्तर प्रदेश में विशेषकर अवध में शियाओं ने बड़ी सभाएं करके अप्रत्यक्ष रूप से भारत सरकार पर दबाव लाने की कोशिश की कि वह अमरीका की बात नहीं माने। इस प्रकार तेल की आपूर्ति के लिए उत्तर प्रदेश शिया-सुन्नियों का अखाड़ा बन गया। अमरीका ने सऊदी अरब को संदेश दिया कि वह भारत के मुसलमानों के माध्यम से उसका पक्ष मजबूत करने का प्रयास करे। इस काम के लिए सऊदी सरकार ने मक्का स्थित अपने इमामों को भारत भेजने की योजना शुरू कर दी। पिछले कुछ वर्षों से मक्का स्थित काबे के इमाम भारत यात्रा पर धड़ल्ले से आ रहे हैं। यहां उनका भावभीना स्वागत होता है। उनका काम बड़े शहरों में जाकर नमाज पढ़ाना है। मुम्बई में तो जब से जाकिर नाइक के कार्यक्रम वर्ष में दो-तीन बार होने लगे हैं तब से किसी न किसी इमाम का मुम्बई दौरा अवश्य होता है। वे जितने दिन रहते हैं कहीं न कहीं नमाज पढ़ाने का कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
मक्का और काबा के नाम पर
काबा शरीफ मक्का में है जो मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा तीर्थ है। उसकी मस्जिद के इमाम द्वारा नमाज पढ़ाने को एक विशेष अवसर बताकर उसका धड़ल्ले से प्रचार किया जाता है। मक्का और काबा के नाम पर बड़ी संख्या में मुस्लिम नमाज पढ़ने आते हैं। नमाज पढ़ने वालों की भीड़ एकत्रित हो जाए इसके लिए हर तरह के प्रयास किये जाते हैं। इस बार ईरान को अपनी ताकत दिखाने के लिए अमरीका ने काबा के इमाम को लखनऊ भिजवाया। मक्का के इमाम शेख खालिद बिन अली अलगादी ने लखनऊ की ऐतिहासिक टीले वाली मस्जिद में संध्या समय की नमाज पढ़वाई थी। ईदगाह ऐश बाग में भी काबा के इमाम ने मुसलमानों की एक जंगी सभा को सम्बोधित किया। लेकिन लखनऊ के सुन्नी मुसलमानों के एक वर्ग और कुछ बड़े उलेमाओं ने मक्का के इमाम के आगमन के पीछे की राजनीति पर सवाल खड़े कर दिये। नगर मुफ्ती मौलाना अबुल इरफान फरंगी महली ने इसके विरुद्ध अपने एक आलेख में कहा कि काबा के इमाम को लखनऊ बुलाने के पीछे कुछ राजनीतिक उद्देश्य थे और साथ में नापाक और घटिया राजनीति भी। मुफ्ती का कहना था कि कुछ ताकतें काबा और उसके इमाम का शोषण कर रही हैं। सामान्य मुसलमानों में इस बात पर भी चर्चा होने लगी कि काबा की मस्जिद में सेवा देने के लिए लगभग चालीस इमाम होते हैं। जो बारी-बारी से वहां नमाज पढ़ाने का दायित्व निभाते हैं। ये इमाम सऊदी सरकार के नौकर हैं। उन्हें वहां से मासिक वेतन मिलता है। लेकिन भारत का सुन्नी मुसलमान, जो अधिकांश इन बातों का जानकार नहीं है, इमाम को बहुत बड़ी हस्ती समझ बैठता है। सोचता है उनके पीछे नमाज पढ़ ली तो बड़ा पुण्य मिलेगा। लेकिन मजहबी दृष्टि से ऐसा कुछ भी नहीं है। काबा के इमामों को कुछ भारतीय मौलाना यहां आमंत्रित कर मुस्लिम जनता को प्रभावित करने में अपना भला समझते हैं। यद्यपि इन इमामों की तुलना में भारतीय मौलाना और इमाम अधिक पढ़े-लिखे और जानकार होते हैं। एक समय था कि इमाम आते ही नहीं थे। अब तो स्थिति यह है कि तीन-चार महीनों में तीन इमाम भारत आ गए।
सिर्फ राजनीति
जिस दिन इमाम शेख खालिद बिन अली ने टीले वाली मस्जिद में नमाज पढ़वाई, उसी टीले वाली मस्जिद से कुछ ही दूरी पर लखनऊ के ऐतिहासिक आसिफ आसिफी इमामबाड़े में शिया महासम्मेलन हो रहा था। इस महासम्मेलन का एजेंडा राजनीति से ही प्रेरित था। सत्ता में शिया समाज की हिस्सेदारी इसका महत्वपूर्ण मुद्दा था। यहां भी काबे के इमाम की तरह बड़े मौलाना और जनता की भीड़ थी। वक्ता जो कुछ कह रहे थे उससे ऐसा नहीं लग रहा था कि यहां कोई मजहबी आयोजन है। शियाओं की राजनीतिक दिशा भारत में क्या होनी चाहिए यह इस सम्मेलन का केन्द्र बिन्दु था। तटस्थ व्यक्ति को यह समझते देर नहीं लग रही थी कि शिया और सुन्नी किसी विशेष मुद्दे पर राजनीति कर रहे थे। सुन्नी यदि सऊदी अरब के इशारे पर बयान दे रहे थे, तो शिया ईरान का समर्थन कर रहे थे। एक बात बड़ी स्पष्ट थी कि भारतीय मुसलमान किसी अन्य देश के इशारे पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। चूंकि भारत ने पहले ईरान से तेल आयात करने के संबंध में अपनी नीति घोषित कर दी थी इसलिए शिया समाज खुश था। लेकिन जब सऊदी अरब ने अमरीका का समर्थन किया तो दोनों के बीच तकरार बढ़ गई।
अदूरदर्शी भारत सरकार
सुन्नी मुसलमानों में सऊदी अरब का समर्थन करने में देवबंदी विचारधारा के लोग ही अग्रणी होते हैं। सऊदी अरब में इसे वहाबियत की संज्ञा दी जाती है। बरेलवी विचारधारा के लोग इनसे सख्त नाराज हैं। दोनों के चिंतन में आकाश- पाताल का अंतर है। सऊदी सरकार मजहब के मामले में बहुत कट्टर है। वे केवल पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब तथा कुरान के आदेशों का ही मात्र पालन करते हैं। लेकिन बरेलवी अन्य ओलिया एवं हदीसों को भी मान्यता देते हैं। इसलिए दोनों विचारधाराओं में बड़ा अंतर है। समय-समय पर इनके बीच टकराव भी देखने को मिलता है। हज यात्रा के समय सऊदी सरकार अपनी वहाबी विचारधारा को ही अधिक महत्व देती है। इसलिए सुन्नियों के अनेक फिरके इनसे सहमत नहीं हैं। सऊदी सरकार अपने इमामों के माध्यम से वहाबी विचारधारा के लोगों को तो खुश कर सकती है, लेकिन बरेलवी सम्प्रदाय से जुड़े लोगों को बिल्कुल नहीं। सऊदी अरब का पैसा वहाबी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए पानी की तरह बहाया जाता है। भारत सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि सऊदी के समर्थक देवबंदी इमामों की आड़ में भीड़ एकत्रित करके मजहब के माध्यम से अपना प्रभाव बताने में भले ही सफल हो जाएं, भारत सरकार की तेल आयात नीति को यदि मुल्ला और इमाम प्रभावित कर सकते हैं तो फिर इस सरकार जैसी कमजोर और अदूरदर्शी सरकार कोई दूसरी नहीं हो सकती है।
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