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गुजरात का सांस्कृतिक वैभव

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May 28, 2012, 12:00 am IST
in Archive
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गुजरात का सांस्कृतिक वैभव

दिंनाक: 28 May 2012 12:46:53

हम गुजराती, जहां बसेरा गुजराती का, बस जाता गुजरात वहां।

कृष्णा आर. जोशी

गुजरात के लोगों, संस्कृति, परम्परा और धार्मिक एवं पर्यटन स्थलों के बारे में जानकारी प्राप्त करना काफी सुखद लगता है। वस्तुत: गुजरात के लोग बहुत ही साहसिक, बुद्धिमान और धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। सन् 1960 में गुजरात को अलग राज्य की मान्यता प्रदान की गई। उससे पहले गुजरात द्विभाषी बम्बई प्रान्त का एक भाग था। आजादी के बाद राजकीय परिवर्तनों के साथ गुजरात राज्य के आंतरिक विस्तारों में भी परिवर्तन होता रहा है। सन् 1948 में रियासतों के विलय होने से अमरेली, महेसाणा, बनासकांठा और साबरकांठा आदि जिलों की रचना हुई, जो महाराष्ट्र राज्य के साथ रखे गए थे। इसके साथ सौराष्ट्र की रियासतों को जोड़कर सौराष्ट्र राज्य की स्थापना की गई। सन् 1956 में द्विभाषी महाराष्ट्र राज्य के गठन के समय सौराष्ट्र और कच्छ को उसमें सम्मिलित किया गया। 1 मई, 1960 को गुजरात राज्य की एक अलग राज्य के रूप में स्थापना की गई। उस समय मुम्बई आज की ही तरह व्यापार व उद्योग का मुख्य केन्द्र और आयात-निर्यात का मुख्य केन्द्र था। मुम्बई के विकास में गुजरातियों का बहुत बड़ा योगदान था। इसलिए मुम्बई गुजरात का हिस्सा हो, ऐसा गुजरातवासी चाहते थे, परंतु वह गुजरात राज्य में शामिल नहीं हो सका। तब मुम्बई में रहने वाले गुजरातियों ने खुद के अनुभवों का उपयोग अपने गृह प्रदेश में करने की इच्छा से गुजरात में उद्योगों की स्थापना की शुरूआत की। इस तरह गुजरात राज्य की स्थापना के समय से ही औद्योगिक विकास व आर्थिक विकास के रास्ते पर चल पड़ा। पिछले दस वर्षों में तो गुजरात इस दृष्टि से देश का नम्बर एक राज्य बन गया है। गुजरात के लोग इतने साहसी हैं कि व्यापार के लिए देश-विदेश में भ्रमण करते हैं और अपने बुद्धि-चातुर्य से व्यापार कर गुजराती होने का गर्व भी महसूस करते हैं। पूर्ण ईमानदारी से व्यापार करने वाले गुजराती ईश्वर में अपनी पूर्ण आस्था रखते हुए गुजरात को और भी आगे ले जाने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

गुजराती कई त्योहार और उत्सव भी उत्साहपूर्वक मनाते हैं। होली, दीपावली, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, नवरात्रि आदि त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, जिसमें नवरात्रि का त्योहार नौ रात्रि तक निरंतर चलता है। नवरात्रि शक्ति पूजा और श्रद्धा का त्योहार है। नवरात्रि के दिनों में यहां के स्त्री-पुरुष शक्ति और भक्ति की आराधना में नौ दिन तक लीन रहते हैं। मां जगदम्बा के नौ भिन्न-भिन्न स्वरूपों के नाम इस प्रकार हैं-

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयां ब्रह्मचारिणी

तृतीयं  चन्द्रघन्टेति कुर्ष्मोन्डेति चतुर्थकम्

पंचमं स्कदंमातेति षष्ठं कात्यायनीति च

सप्तमं कालरात्रिति महागौरीति चाष्टमम्

नवमं सिद्धिदात्री व नवदुर्गा:प्रकीर्तिता

उत्कान्येतानि नमानि ब्रह्मनैव महात्मन:।।

यानि उपयुक्त नवदुर्गा के नौ नाम महात्मा ब्रह्माजी के द्वारा बताये गये हैं। देवी कवच के अनुसार जब भक्तों को दैत्यों से भय लगने लगता है तब भक्तों का भय हरने हेतु और दैत्यों का नाश करने हेतु सर्वशक्ति स्वरूपा मां जगदम्बा अपने सारे शस्त्रों-शंख, चक्र, गदा, मूसल, हल, त्रिशूल, तलवार, धनुष-बाण, भाला आदि को धारण करके दैत्यों का विनाश करती है और भक्तों की रक्षा का वर प्रदान करती है। मां जगदम्बा ने महिषासुर नामक असुर के त्रास में से देवताओं को मुक्त करने के लिए उसका मर्दन किया और महिषासुर मर्दिनी के नाम से जानी गईं।

गुजरात में नवरात्र की नौ रातों का अत्यंत महत्व है। इस नवरात्र के दौरान स्त्री और पुरुष मिल-जुलकर नौ रातों तक गरबा खेलते हैं। इस गरबा के माध्यम से पूरे तन-मन में शक्ति का इतना संचार होता है कि पूरे साल तक शरीर की बाह्य और आंतरिक गतिशीलता और मन की प्रसन्नता बनी रहती है। नित नये परिधान और नये आभूषणों में स्त्री-पुरुष नौ रात तक ये त्योहार मनाते हैं।

सत, रज और तम-इन तीन गुणों से सृष्टि चलती है। इन गुणों पर नियंत्रण रखने हेतु ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, जो ब्रह्म के अंश है। गुणों पर नियंत्रण रखने वाली शक्ति ही ब्रह्म है। अनंत शक्ति वही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र। श्री देवी भागवत में अनंत शक्ति के पांच स्वरूपों का वर्णन किया गया है और उसे पांच प्रकृति के नाम से जाना जाता है-

गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मी सरस्वती

सावित्री च समाख्याता यस्य प्रकृतियस्त्चिम्।।

जगत चाहता है कि उसके किसी कार्य में कोई प्रतिबंध न हो, कोई अवरोध न हो। दूसरा, यह चाहता है कि प्रत्येक कार्य में यश और लक्ष्मी की प्राप्ति हो। तीसरा, यह भी चाहता है कि अज्ञान न हो। इन तीनों कार्यों के लिए ब्रह्माजी के जो स्वरूप क्रियाशील हैं उसे महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से जाना जाता हैं। इन तीनों का ऊंकार में समन्वय है।

महाकाली मधुकैटभ दैत्यों का संहार करने वाली देवी हैं। जबकि महिषासुर का संहार महालक्ष्मी के हाथों हुआ है। महिषासुर मद और उन्मत्तता का प्रतीक है। महालक्ष्मी के हाथ में जो माला है वह पराक्रम और बल को उपासना रहित न करने का संकेत देती है। महालक्ष्मी की अष्टादश भुजाओं का संबंध अष्टादश विधाओं के साथ है। महासरस्वती की भी अष्टभुजा हैं, वह अष्ट आयुधा हैं। उससे शुंभ-निशुंभ और उनकी सेना का विनाश होता है। शुंभ अहंकार स्वरूप है तो निशुंभ अभिमान का। महासरस्वती ज्ञान का स्वरूप हैं। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की उपासना प्राचीन काल से होती रही है। नवरात्रि की समाप्ति होते ही विजयादशमी (दशहरा) होती है। यह पर्व आसुरी शक्ति के ऊपर दैवी शक्ति के विजय का पर्व है। विजयादशमी के दिन महाकाली ने महिषासुर का और भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था। रावण के दस मस्तक श्रीराम ने काटे थे, इसलिए उस दिन को दशहरा के नाम से अधिक जानते हैं।

शक्तिपीठ अम्बाजी

भारत के अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति पीठों में से एक अंबाजी है। इस स्थल को आप गुजरात की शक्ति और भक्ति का केन्द्र कह सकते हैं। अंबाजी तीर्थ कई सदियों से श्रद्धालुओं के लिए शक्ति-पूजा का केन्द्र है। प्रतिवर्ष देशभर से लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं और अंबाजी के दर्शन करके कृतज्ञ होते हैं। अरावली की पर्वतमाला के बीच स्थापित आरासुर वाली अंबा मैया का यह स्थान बहुत ही अनुपम, दिव्य और नैसर्गिक सौंदर्य से युक्त है। यहां का वातावरण मन को बहुत ही प्रसन्न कर देने वाला है। बनासकांठा जिले के अंतिम भाग में और राजस्थान को स्पर्श करता हुआ मातारानी का यह परमधाम श्रद्धालुओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण  है, जो कर्णावती (अमदाबाद) से लगभग 200 किमी.दूर है। कहा जाता है कि कुमारिका नाम से पहचानी जाने वाली सरस्वती नदी यहां से निकलती है। साबरमती नदी का उद्गम स्थल भी अरावली की पर्वतमाला ही है। पुराणों में जिसकी चर्चा आती है वह अंबिका वन भी इसी भूमि पर है।

अंबाजी तीर्थ का बहुत ऐतिहासिक महत्व है। मार्कण्डेय पुराण में बताया गया है कि पार्वती देवी के पिता दक्ष प्रजापति ने महायज्ञ किया था, जिसमें उन्होंने अपने सगे-संबंधियों, पुत्रों, पुत्रियों आदि सबको आमंत्रित किया परंतु  अपनी पुत्री माता सती के पति भगवान शंकर चूंकि भस्म लगाकर श्मशान में रहते थे, इसलिए दक्ष प्रजापति ने उन्हें आमंत्रित नहीं किया। इस प्रकार अपने पति का अपमान माता पार्वती से सहन नहीं हुआ। माता सती क्रोधित हो गईं और उस महायज्ञ में जाकर यज्ञ में कूद कर उन्होंने खुद की आहुति दे दी। शिवजी ने जब यह सुना तो वे भी यज्ञस्थल पर पहुंचे और दक्ष प्रजापति का वध करके सती माता के शरीर को अपने कंधों पर उठाकर ब्रह्मांड में तांडव नृत्य करने लगे। शिव के इस तांडव नृत्य से समग्र ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया। भयभीत हुए देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती माता के शरीर का विच्छेद किया और सती के विच्छेद किए गए शरीर के अंश जहां-जहां गिरे, वहां-वहां शक्ति पीठ बन गए। पूरे भारतवर्ष में ऐसे 52 शक्ति पीठ हैं। उनमें से एक शक्तिपीठ अंबाजी है। अंबाजी माता के इस भव्य मंदिर में माता की मूर्ति नहीं है। प्रतीक के रूप में हाथ और वीसा यंत्र की पूजा होती है। वीसा यंत्र के ऊपर इस तरह वस्त्राभूषण सजाए जाते हैं कि श्रद्धालुओं को दूर से मूर्ति होने का आभास हो।

अंबाजी के गब्बरगढ़ की महिमा अपरम्पार है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि गब्बर की एक गुफा में मां अंबा झूले पर झूल रही हों, ऐसी आवाज आती है। प्रतिदिन संध्या के समय गब्बर पर दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है। इस दिए के दर्शन होते ही अंबाजी मंदिर में आरती शुरू की जाती है। अंबाजी के मंदिर में आरती के समय दर्शन को एक महत्वपूर्ण अवसर माना जाता है। वैसे तो हर पूर्णिमा के दिन अंबाजी माता की विशिष्ट रूप से पूजा की जाती है, परंतु चैत्र मास की पूर्णिमा और भाद्रपक्ष मास की पूर्णिमा का बड़ा महत्व है। इन दोनों पूर्णिमा के दिन लाखों लोग पैदल चलकर अंबाजी के दर्शन के लिए पधारते हैं। मार्ग में यात्रियों के लिए भोजन, उपहार और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं सामाजिक-धार्मिक लोगों द्वारा की जाती है।

शौर्य का प्रतीक सोमनाथ मंदिर

सोमनाथ मंदिर ने भारत का उत्थान, पतन और फिर से उत्थान को अपनी आंखों से देखा है। सोमनाथ का शिवलिंग स्वयंभू है। प्राचीन काल में शिवलिंग के ऊपर स्वर्ण का मंदिर बना था, जो समग्र हिन्दू समाज के लिए आराध्य केन्द्र था। भारत में यवनों का आक्रमण हुआ और उनका लक्ष्य सोमनाथ बना रहा। यवन केवल स्वर्ण-लालसा से आकर्षित थे, ऐसा नहीं था, वे तो हिन्दुओं की आस्था और श्रद्धा पर प्रहार करना चाहते थे। सन् 1025 में गजनी के सुल्तान महमूद ने सोमनाथ के ऊपर आक्रमण किया, तब उसका प्रतिकार करने में मुख्य थे पाटन के महाराजा भीमदेव। राजस्थान के वीर योद्धा घोघा बाबा, एक वीर योद्धा हमीर सिंह, और साथ में थी हिन्दू प्रजा, जो युद्ध कौशल से अंजान थी। हां, बलिदान देने में सबसे आगे थी। उस समय भी मुस्लिम कूटनीति का शिकार बनने वाला एक अभागा था सोमनाथ मंदिर का भावी पुजारी, सोमनाथ मंदिर के गुरुदेव का शिष्य शिवराशि। पुजारी बनने की लालसा में वह महमूद गजनी का खबरी बन गया। लोभ, लालच और दगाबाजी से वह भरमा गया और उसने ही गजनी को वह गुप्त मार्ग बता दिया जो ज्यादातर लोग नहीं जानते थे। उसी मार्ग से महमूद गजनी मंदिर तक पहुंच गया, फिर भी हिन्दुओं ने धर्मयुद्ध किया, पर मन्दिर ध्वस्त हो गया।

सन् 1169 में फिर से मुस्लिमों ने सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण हुआ। उसके बाद कुमार पाल ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। सन् 1297 में खिलजी के सेनापति असफखां ने आक्रमण किया। मंदिर और शिवलिंग दोनों खण्डित हुए। इस भग्न सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण चूड़ासमा के राजा महिपाल ने 1305-1325 के बीच करवाया। 1325 के बाद महिपाल के पुत्र खेंगार ने मंदिर का अधूरा कार्य पूरा किया, शिवलिंग की पुन: प्रतिष्ठा करवाई।

गुजरात के सूबेदार मुजफ्फर खां ने भी आक्रमण करके सोमनाथ मंदिर को-नष्ट भ्रष्ट किया। इतना ही नहीं, वहां मस्जिद बनाने का भी प्रयत्न किया। इसके बाद इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने फिर एक नया मंदिर बनवाया। मुसलमानों ने इस नये मंदिर को भी तोड़ने का प्रयत्न किया। भारत और हिन्दू समाज की सांस्कृतिक चेतना के केन्द्र बिन्दु सोमनाथ मंदिर पर इस्लामी आक्रमणकारियों ने निरन्तर हमले किए, पर कभी भी इसका अस्तित्व मिटा नहीं पाए। वह टूटा और फिर से बनवाया गया। यह हिन्दू समाज के स्वाभिमान और शौर्य के प्राण समान बन गया था।

स्वतंत्रता के बाद भगवान सोमनाथ की इच्छा से ही भारत माता के सपूत सरदार वल्लभभाई पटेल आगे आए। सरदार सन् 1949 की 13 नवम्बर को सोमनाथ का दर्शन करने आए। उनके साथ थे गुजरात के स्वप्नदृष्टा तथा 'जय सोमनाथ' के गुजराती लेखक श्री क. मा.मुंशी और नया नगर के जामसाहब दिग्विजय सिंह। उन्होंने सोमनाथ मंदिर का भव्य भूतकाल स्मरण किया और वर्तमान भग्न अवशेषों को देखा। उनका हृदय द्रवित हो उठा। सोमनाथ को प्रणाम करके उन्होंने सागर का पानी अपने हाथों में लेकर प्रतिज्ञा ली। उन्होंने साथियों से कहा-'हम प्रतिज्ञा करें कि सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार होना ही चाहिए। यह परम कर्तव्य है। उसमें सबको भाग लेना चाहिए।' जनसमुदाय को यह शुभ समाचार देते हुए सरदार पटेल ने घोषणा की कि, 'हम सोमनाथ मंदिर को फिर से बनाने की प्रतिज्ञा लेते हैं।' उसके साथ ही इस शुभ कार्य का आरंभ हुआ।

l19 अप्रैल, 1950 ही सौराष्ट्र राज्य के मुख्यमंत्री श्री ढेबर भाई के हाथों गर्भगृह निर्माण के लिए भूमिपूजन हुआ।

l मई, 1950 को नया नगर के महाराजा जामसाहब दिग्विजय सिंह के हाथों मंदिर का शिलान्यास हुआ।

l 11 मई, 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने अस्थमा से पीड़ित होते हुए भी समुद्र में स्नान करके सुबह साढ़े नौ बजे होरा नक्षत्र में शिवलिंग की प्रतिष्ठा की और नये मंदिर का श्रीगणेश किया।

l आज भी सोमनाथ मन्दिर में परम्परा के अनुसार कार्तिक शुक्ल 13, 14 और पूर्णिमा के दिन मेला लगता है। लाखों श्रद्धालु इस प्राचीन ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए आते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका

अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काञ्ची, अवंतिका

पुरी द्वारावती चैव सप्तैताम् मोक्षदायिका।

मोक्षदायिनी सात नगरियों में द्वारिकापुरी का उल्लेख उपयुक्त श्लोक में किया गया है। द्वारिका चार धामों में से एक है। हालांकि भगवान श्रीकृष्ण की मुख्य द्वारिका पुरी कौन से स्थल पर है, यह कहना कठिन है। द्वारिका महाभारत काल का प्रथम पौराणिक समुद्र व्यापार केन्द्र (बंदरगाह) था। यह द्वारिका एकमात्र ऐसा व्यूहात्मक स्थल है जहां विविध शस्त्रों का संपूर्ण रक्षण करके शत्रुओं को पराजित किया जा सकता था। रणनीतिक दृष्टि से ऐसेे सुरक्षित स्थल पर श्रीकृष्ण ने अपनी अभेद्य द्वारिका नगरी बसाई थी।

द्वारिका में स्थापित वर्तमान भव्य मंदिर समुद्र तल से 200 फीट की ऊंचाई पर है। समुद्र और गोमती नदी के संगम स्थल पर स्थापित इस भव्य मंदिर के दो मुख्य प्रवेश द्वार हैं। मुख्य मंदिर में जाने के लिए  56 सोपान चढ़ने पर मुख्य स्वर्ग द्वार आता है। स्वर्ग द्वार में से प्रवेश करते ही यह मंदिर नीचे से ऊपर तक पूरा दिखाई देता है। यह भव्य मंदिर दो शिखरों द्वारा तैयार हुआ है। बड़ा शिखर 150 फीट ऊंचा है। छोटा शिखर लगभग 70-80 फीट ऊंचा है। बड़ा शिखर   मुख्य मंदिर है, जिसमें भगवान की एक मीटर ऊंची श्याम चतुर्भुज प्रतिमा विराजमान है। छोटा शिखर लड्डू आकार के पत्थरों को तराश कर बनाया गया है। इस मंदिर का मुख्य मंडप 52 स्तंभों पर आधारित है। मंदिर के परिसर की चौड़ाई 6.4 मीटर और लंबाई 2 मीटर है। मंदिर के 7 तल हैं। पहले तल पर कुल देवी अंबाजी का स्थान है।

द्वारिका से 32 किमी.दूर बेट द्वारिका है। कच्छ के अन्तिम छोर पर स्थित इस टापू का बहुत महत्व है। ओखा से स्टीमर या जहाज में बैठकर बेट द्वारिका जाया जा सकता है। चारों ओर समुद्र होने के कारण यहां का वातावरण बहुत मनभावन लगता है। यहां महल जैसे दिखने वाले अनेक मंदिर हैं, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण का महल, पहली मंजिल पर शयनखंड, चूल्हा और खेलने का स्थान है। द्वारिका के समुद्र में डूबने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। आज तक लोग इसे ही प्राचीन द्वारका मानते थे। लेकिन पुरातत्ववेत्ता डा.राव ने नजदीक के समुद्र के भीतर 5 बार द्वारिका नगरी डूबने के अवशेष पाए हैं।

गुजरात की गरिमा, परम्परा की बात सिर्फ पुस्तकों या वर्णन के पढ़ने से उतनी नहीं समझी जा सकती, जितनी कि गुजरात आकर यहां के गांव, शहर और यात्राधामों में घूमने से मिलती है। इसीलिए तो हम गुजराती कहते हैं कि 'कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में।'

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