गर्मी से बेहाल

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दिंनाक: 20 May 2012 21:27:52

बड़ी तपिश है हो रहे सभी जीव बेचैन।

ऐसे में हड़ताल पर, घर का टेबिल फैन।।

घर के भीतर आग है, घर के बाहर आग।

है “अंजुम' चारों तरफ, यही आग का राग।।

पत्ता तक हिलता नहीं, पेड़ खड़े हैं मौन।

समाधिस्त हैं संत जी, इन्हें जगाए कौन।।

इक कमरे में है भरा, घर-भर का सामान।

उफ गर्मी में आ गए, कुछ मूंजी मेहमान।।

बैरी है किस जन्म की, ये गर्मी विकराल।

लो फिर लेकर आ गई, सूखा और अकाल।।

थकी-थकी-सी बावड़ी, सूखे-सूखे घाट।

राम बुझाओ प्यास को, जोह रहे हैं बाट।।

ऊपर मिट्टी के घड़े, नीचे तपती रेत।

रामरती को ले चला, दूर प्यास का प्रेत।।

पानी-पानी हो रही, चौपायों की चीख।

चारे का संकट मिटे, चारा रहा न दीख।।

मिनरल वाटर बेचते, सेठ करोड़ी लाल।

गंगाबाई खोजती, पानी वाला ताल।।

खड़ी जेठ के आंगना, नदिया मांगे नीर।

दु:शासन-सी है तपन, खींच रही है चीर।।

सूरज लगता माफिया, हफ्ता रहा वसूल।

नदिया कांपे ओढ़कर, तन पर तपती धूल।।

तपते सूरज ने किया, यूं सबको बदहाल।

नदी रखे व्रत निर्जला, ताल हुआ कंगाल।।

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