अल्पसंख्यक मतों का मोह त्यागो!
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अल्पसंख्यक मतों का मोह त्यागो!

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May 12, 2012, 12:00 am IST
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चर्चा सत्र

दिंनाक: 12 May 2012 17:18:56

चर्चा सत्र

राजनाथ सिंह 'सूर्य'

पाकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार, बलात् मतान्तरण आदि का मामला जब पिछले दिनों डाक्टर मुरली मनोहर जोशी ने लोकसभा में उठाया था, उस समय अपेक्षा यह थी कि मानवाधिकार के प्रति समर्पित और मुखरित सांसद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के इस मसले पर अवश्य आवाज उठाएंगे। लेकिन सभी मौन रहे। कुछ लोगों के हाव-भाव से ऐसा लगता था जैसे वे इस मामले को 'अनावश्यक' तूल देकर डा. जोशी की भारत-पाकिस्तान के 'सम्भलते सम्बधों' में बाधक के रूप में खड़े होने की कोशिश मान रहे हैं। चाहे पाकिस्तान हो या कश्मीर, हिन्दुओं पर हुए या हो रहे अत्याचारों के मसले उठाने वालों को ये तत्व भारतीय मुसलमानों के प्रति रोष पैदा करने का कारण बताने में एक मिनट की भी देरी नहीं लगाते। उन्हें शायद यह भी स्मरण नहीं रहता कि विभाजन के बाद भारत से जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए उन्हें भी आज तक वहां समान नागरिक का दर्जा नहीं मिला है। वे आज भी 'मुहाजिर' अर्थात 'शरणार्थी' ही कहे जाते हैं।

यह दोगलापन क्यों?

पाकिस्तान में 'लोकतंत्र की बहाली' पर हमारे बहुत से चिंतक हर्षित हैं इसलिए जबरन मतान्तरण, नाबालिग हिन्दू लड़कियों के अपहरण अथवा संपत्ति आदि की लूट की घटनाएं उन्हें छिटपुट ही मालूम पड़ती हैं। राजस्थान की सीमा से पाकिस्तान से उत्पीड़ित होकर पिछले दिनों जो चार सौ परिवार भारत आए हैं उन्हें भारत सरकार वापस भेजने को उतारू है। इन परिवारों ने यह स्पष्ट कहा है कि वे मर जायेंगे, लेकिन पाकिस्तान नहीं जायेंगे। विभाजन के बाद पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू विस्थापित होकर भारत आए। आज भी बंगलादेश के तीन करोड़ से अधिक नागरिक अवैध तरीके से भारत में रह रहे हैं। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं को देश भर में जहां चाहें बसने, रोजगार करने अथवा समान नागरिकता के अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन ऐसे जो लोग जम्मू में गए हैं उन्हें आज तक न तो राज्य ने नागरिकता दी है और न पढ़ने, रोजगार करने की सुविधाएं। वे लोकसभा के निर्वाचन में मतदान तो कर सकते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा या स्थानीय निकायों में उन्हें मताधिकार प्राप्त नहीं हैं।

कश्मीर घाटी से विस्थापित किए गए हिंदुओं को आज भी फटेहाल टेंटों में रहना पड़ रहा है। उनकी चिंता कोई नहीं कर रहा है। कश्मीर सरकार की इस नीति की कहीं भर्त्सना नहीं हो रही है। लेकिन उनसठ लोगों को ट्रेन की एक बोगी में जिंदा जला देने की जो प्रतिक्रिया गुजरात भर में हुई उसकी एक-एक घटना के लिए वहां की सरकार और मुख्यमंत्री के खिलाफ जिस प्रकार से मुखर होकर संसद और न्यायालय तक में मामले को उछाला जा रहा है उसे मानवाधिकार के लिए बड़ा अभियान करार दिया जा रहा है! सर्वोच्च न्यायालय में गुजरात सरकार के वकील ने एक प्रश्न उठाया था, जो अभी अनुत्तरित है- क्या 'एनकाउंटर' केवल गुजरात में ही हुए हैं, अन्य किसी राज्य में अपराधियों के 'एनकाउंटर' पर इतने वाद न्यायालय में क्यों नहीं ले जाए गए?

नक्सलियों के प्रति सहानुभूति

हम सभी जानते हैं कि भारत का निर्वाचन आयुक्त एक संवैधानिक पद है तथा मतदाता सूची बनाने से लेकर परिणाम घोषित होने तक मतदान की सारी प्रक्रिया उसी के निरीक्षण और नियंत्रण में होती है। हाल ही में मध्य प्रदेश के ईसाइयों ने एक संगठन बनाकर आरोप लगाया है कि प्रदेश में ईसाई मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से निकालने का अभियान चलाया जा रहा है। इस संगठन ने इसके लिए एक भी सबूत नहीं दिया है और राज्य के निर्वाचन आयुक्त ने आज तक किसी भी जिले से एक भी ऐसी शिकायत मिलने से इंकार किया है। छत्तीसगढ़ के एक जिलाधिकारी के अपहरण और रिहाई तक गहमा-गहमी स्वाभाविक थी। छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने उड़ीसा के समान आचरण क्यों नहीं किया, इसकी तह में जाने की जरूरत है। जिस नक्सली समर्थक विनायक सेन को छत्तीसगढ़ में न्यायालय से दंडित किया गया था उसकी रिहाई के लिए वामपंथी संगठनों और ईसाई मिशनरियों ने एक समान 'जागरूकता अभियान' क्यों चलाया और उच्च न्यायालय द्वारा उसको सजा दिए जाने के बाद भी भारत सरकार ने उसे योजना भवन में क्यों स्थान दिया?

भाजपा की सरकारों के हर कदम को 'साम्प्रदायिक' करार देना प्रगतिशीलता की निशानी मानी जाती है। ऐसा मानने वालों का बड़बोलापन इसलिए बढ़ता जा रहा है क्योंकि बहुसंख्यक समाज, जो भ्रष्टाचार, महंगाई तथा सत्ता के निरंकुश आचरण से परेशान है, इन सब घटनाओं के प्रति निरपेक्ष बना हुआ है। जबकि मीडिया अण्णा हजारे या बाबा रामदेव के द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश में मुखरित एक-एक शब्द की बाल की खाल निकालने में लग जाता है। लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करने की चेतावनी देने वाले भूल जाते हैं कि वह रेखा सीता की रक्षा के लिए लक्ष्मण ने खींची थी और बहुरूपिये रावण को भिक्षा देने के अपने धर्म का निर्वाह करने के लिए सीता ने उसका उल्लंघन किया था। लेकिन जब 'रावण' ही लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन के खिलाफ चेतावनी देने लगे तो क्या होगा? क्या कारण है कि भारत सरकार रामसेतु के बारे में सर्वोच्च न्यायालय में अपनी कोई भी राय देने से इंकार करती है, लेकिन शिक्षा का अधिकार हो या फिर विवाह के अनिवार्य पंजीकरण का मामला, उसमें अल्पसंख्यकों की 'मजहबी' अवधारणा का ध्यान रखने की प्रतिबद्धता प्रगट की जाती है? किसी ने ठीक कहा है कि भारत में बहुमत यद्यपि हिंदुओं का है, लेकिन सरकार अल्पसंख्यकों के लिए ही है।

मीडिया का पूर्वाग्रह

पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम और ईसाई समुदाय में भारतीयता की भावना पैदा करने का अभियान जैसा चल रहा है। दारुल उलूम, देवबंद ने हाल ही में भारतीय मुसलमानों को परामर्श दिया है कि वे केवल एक ही विवाह करें। परामर्श में कहा गया है कि किन्हीं और देशों में इस्लाम में चार विवाह करने की छूट का औचित्य हो सकता है, लेकिन भारत की संस्कृति और परंपरा एक पत्नी की रही है और हमें भी उसी के अनुरूप आचरण करना चाहिए। किसी भी प्रचार माध्यम में इसे बटला हाउस कांड जैसी घटना के समान महत्व नहीं दिया गया, क्यों? क्योंकि उन्हें इसमें समरसता की 'बू' आती है। देश में ऐसे लोग बहुत मुखरित हैं और प्रचार माध्यम उनको बढ़ावा भी दे रहे हैं, जो विखंडन को विस्तारित करने में लगे हैं। मीडिया के लिए एक पूर्वोत्तर राज्य के दो छात्रों द्वारा आत्महत्या कर लेने का मुद्दा सामयिक चर्चा का विषय अवश्य बना-बनना भी चाहिए, लेकिन उसी राज्य के ईसाइयत न स्वीकार करने वाले लोगों को बड़ी तादाद में विस्थापित के रूप में त्रिपुरा में वर्षों से रहने के लिए विवश कर दिए जाने की कभी चर्चा नहीं होती। भारत एकमात्र देश है जहां उद्वासित होने वाले हिन्दुओं को आश्रय मिलता है। यदि भारत हिंदुओं की चिंता नहीं करेगा तो कौन करेगा? लेकिन आज के ज्यादातर राजनीतिक दल उनकी चिंता के बजाय अल्पसंख्यक मत को प्राथमिकता देने के कारण राष्ट्रपति जैसे गरिमामय पद को भी उसी नजरिए से देख रहे हैं।

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