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जल जीवन के महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है। इन तत्वों में से किसी के भी निजी स्वामित्व या व्यवसायीकरण की अवधारणा मानवता के हित में नहीं है। वह अवधारणा जो मानवता के लिए ठीक न हो, एक राष्ट्र के लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकती। जल संसाधन के संरक्षण के नाम पर इसका एक वस्तु के तौर पर व्यवसायीकरण करने की सरकारी पहल इसे निजी संपत्ति बनाने की दिशा में इशारा करती है। इसे वितरण एवं रखरखाव के माध्यम से सार्वजनिक निजी साझीदारी (पीपीपी माडल) के रूप में किए जाने की तैयारी हो रही है। नीति निर्माताओं के इस दोगलेपन का खुलासा करना होगा और उस पर लगाम लगानी होगी। इसके लिए पूरे देश में लोकजागरण व प्रतिरोध की आवश्यकता है।
विश्व बैंक व अन्य दबाव
स्वतंत्रता के छह दशक के बाद भी भारत में रहीं सरकारें अपने नागरिकों की मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं कर सकी हैं। कम संभावित समय के भीतर इस तरह की मूलभूत आवश्यकताओं को उपलब्ध कराने में कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करने के बजाय इस हर मोर्चे पर असफल सरकार ने सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने के लिए बाजार के पक्ष में तर्क देना शुरू कर दिया। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान और डब्ल्यू.टी.ओ. जैसे समझौते भारत जैसे विकासशील देशों को बाजार प्रणाली को रामबाण के तौर पर अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वर्ष 1990 की शुरुआत में नीतिगत ढांचे में बदलाव ने इन्हें देश में पांव पसारने का मौका दिया और वे पश्चिमी देशों की कंपनियों के लिए नए बाजार तलाशने के एजेंडा को पूरा करने के लिए नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करते रहे हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ऋण देने की शर्तों के तहत नियंत्रण खत्म करने और विकास के समान अवसर उपलब्ध कराने के नाम पर विदेशी निजी कंपनियों के लिए बड़ी भूमिका की मांग करते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय निगमों के जरिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा दिए गए ऋणों में से 12 में शर्तों के अधीन जलापूर्ति के आंशिक या पूर्ण निजीकरण, पूर्ण लागत वसूली और सब्सिडी खत्म किए जाने की जरूरत बताई गई है। इसी तरह, 2001 में विश्व बैंक द्वारा जल एवं स्वच्छता के लिए मंजूर किए गए ऋणों में से 40 प्रतिशत से अधिक में जलापूर्ति करने वाली इकाइयों के निजीकरण की शर्त रखी गई है। विषय की जटिलता और इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए सरकार ने समय समय पर कार्यक्रम एवं कानून पेश किए, मसलन शहरों, महानगरों और राज्यों में जलापूर्ति के लिए जल बोर्ड का गठन, भूमिगत जल निकालने और इसके इस्तेमाल के नियमन के कानून, जल संसाधन के संरक्षण पर कानून, उद्योगों को जलापूर्ति के लिए कानून आदि। यहां तक कि राष्ट्रीय जल नीति भी पेश की गई जिसमें 2012 की नीति का मसौदा शामिल है। इनके बीच तुलना करने से स्पष्ट पता चलता है कि जल आबंटन के लिए वर्तमान जल नीति में किस तरह से बाजार की व्यवस्था का इस्तेमाल किया गया है। इससे जल ऐसे गरीब और कमजोर लोगों की पहुंच से दूर हो जाएगा जो इसके लिए उतना मूल्य देने में सक्षम नहीं हैं, जितना मूल्य धनी लोग दे सकते हैं। ऐसा क्यों है कि सरकार, जो हमेशा लोक हित में काम करने की कसम खाती है, अंत में लोगों को चोट पहुंचाती है?
दौड़ में पीछे आम आदमी
वर्तमान में, हमारे पास दो वर्ग हैं जिसमें पहला वर्ग प्रभावशाली और शक्तिशाली वर्ग है जो हमारे नीति निर्धारण और इसे लागू करने के हर पहलू पर प्रभाव डालता है। वे सब कुछ खरीदने में सक्षम हैं। उनके लिए कीमत से ज्यादा उपलब्धता मायने रखती है। उनके 'बिजनेस मॉडल' में किसी चीज की कमी और उसका व्यवसायीकरण धन बनाने का एक माध्यम है। यद्यपि हम मानते हैं कि उद्यमिता एवं धन सृजन के लिए निजी स्वामित्व एक प्रमुख प्रेरक है, लेकिन हमारी प्राथमिक चिंता दूसरे वर्ग यानी आम आदमी को लेकर है, जो विकास की दौड़ में पीछे छूट गए। जल के निजीकरण के लिए सबसे बड़ी वजह निजी क्षेत्र का प्रभाव है। निजीकरण की सक्षमता को स्वीकार्य किया जा रहा है, लेकिन इसका विश्लेषण करने के बाद इन नतीजों पर पहुंचा गया है कि कौशल का स्वामित्व के साथ कोई लेना-देना नहीं है और ऐसे कई उदाहरण हैं जहां सार्वजनिक क्षेत्र उतना ही सक्षम रहा है जितना कि निजी क्षेत्र। जल एक ऐसा क्षेत्र है जो अपनी प्रकृति से प्राकृतिक एकाधिकार का सृजन करता है और इससे ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जहां सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को जल की नीलामी की जाएगी। दूूसरी बात, जल की उपलब्धता और मांग के सरकारी आंकड़ों, वास्तविक एवं अनुमानित, को देखें तो पता चलता है कि कुल मिलाकर इसकी कोई कमी नहीं है।
जल की उपलब्धता पर भ्रम
वास्तव में जल की उपलब्धता में भारी स्थानिक विषमताएं हैं जो पूरी तस्वीर को एक तरह से भ्रामक बनाती हैं। यह बात राहत देने वाली होनी चाहिए कि कुल मिलाकर देश में जल की किल्लत नहीं है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक, जल संसाधनों का अनुमानित उपयोग 1,123 अरब घन मीटर है। अगर हम वर्ष 2025 के लिए अनुमानित मांग को देखें तो जल संसाधन मंत्रालय की एक स्थायी उप समिति ने यह 1,093 अरब घन मीटर बताया है। एकीकृत जल संसाधन विकास पर राष्ट्रीय आयोग ने वर्ष 2050 के लिए 'कम मांग' के परिदृश्य में जल की कुल मांग 973 अरब घन मीटर और 'ऊंची मांग' के परिदृश्य में 1,180 अरब घन मीटर रहने का अनुमान व्यक्त किया है। पूर्ण लागत की वसूली का तर्क मृगतृष्णा के तौर पर दिया जा रहा है। इसके बारे में इतना परम पावन क्या है कि जल के निजीकरण की वकालत करने वाले इसी को अपना उद्देश्य मान लेते हैं?
न्यायालय का आदेश
हवा की तरह जल भी प्रकृति द्वारा नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाता है और मानव इसका लाखों वर्षों से इस्तेमाल करता आ रहा है। उच्चतम न्यायालय ने एमसी मेहता बनाम कमलनाथ, 1997 के मामले में अपने निर्णय में कहा था- सरकार सभी प्राकृतिक संसाधनों की एक न्यासी है। न्यास इस सिध्दांत पर निर्भर है कि हवा, समुद्र, जल और वन जैसे निश्चित संसाधनों का संपूर्ण मानव जाति के लिए इतना अधिक महत्व है कि इन्हें निजी स्वामित्व का विषय बनाना पूरी तरह से अनुचित होगा। ये संसाधन प्रकृति के उपहार हैं, इन्हें हर किसी को नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इस सिद्धांत को लागू करने के लिए सरकार आम लोगों के उपयोग के वास्ते इन संसाधनों की रक्षा करे न कि निजी स्वामित्व या व्यावसायिक उद्देश्य के लिए इनके इस्तेमाल की अनुमति दे। कोका कोला मामले (16 दिसंबर, 2003) में केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के पास इस व्यवस्था द्वारा लागू नियंत्रण के भीतर संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार है और वह लोगों से जल या किसी अन्य प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व नहीं छीन सकती। हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि पर्याप्त मात्रा में नागरिकों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने में सरकार की विफलता, भारत के संविधान की धारा 21 में दिए गए जीवन जीने के मौलिक अधिकार का हनन और मानवाधिकारों का हनन होगा। इसलिए हर सरकार, चाहे उसे अन्य विकास कार्यक्रमों की बलि हीं क्यों न देनी पड़े, की स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इस रास्ते में धन की कमी या ढांचागत सुविधाओं की कमी कोई बाधा नहीं बन सकती। समाज के ढांचे का निर्माण ऐसा होना चाहिए कि जाति, पंथ या धन को लेकर किसी भी तरह के भेदभाव के बगैर इसके सभी अंगों या भागीदारों का ख्याल रखा जाए। सभी नागरिकों की मूलभूत जरूरतें पूरी करना सरकार का बाध्यकारी दायित्व है। इस दायित्व का उल्लेख इस संप्रभु, लोकतांत्रिक, पंथनिरपेक्ष गणराज्य द्वारा अपनाए गए संविधान में किया गया है।
इन सभी पहलुओं को सामने लाने और विषय पर एक स्वस्थ चर्चा करने के लिए हम जलाधिकार में परिचर्चा, सेमिनारों, व्यापक जागरूकता कार्यक्रमों और अभियानों का आयोजन करते रहे हैं। इसलिए, हमारी मांग है कि, जैसे संविधान की धारा 21 जीवन जीने के अधिकार की गारंटी देती है, नागरिकों को शुद्ध, स्वच्छ पेयजल की नि:शुल्क आपूर्ति करना सरकार की जिम्मेदारी है। भारत सरकार द्वारा हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय जल नीति, 2012 के मसौदे में उल्लिखित जल के निजीकरण को रोका जाए, जो ट्रस्टीशिप की अवधारणा के विरुद्ध है और गरीब विरोधी है। और साथ ही तालाब, बावड़ी आदि जैसी पारंपरिक जल संरक्षण पद्धतियों के पुनरुद्धार के जरिए एक एकीकृत जल संसाधन नियोजन को लागू किया जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विगत दिनों अपनी अ.भा. प्रतिनिधि सभा में राष्ट्रीय जलनीति-2012 को न केवल राष्ट्रहित व जनहित के विरुद्ध बताया है, बल्कि इसके प्रतिरोध के लिए लोक जागरण कर पूरे समाज को इसके प्रतिरोध में खड़े होने का आह्वान किया है। n
राष्ट्रीय जल नीति-1987 राष्ट्रीय जलनीति 2002 राष्ट्रीय जल नीति-2012
पेयजलवर्ष 1991 तक संपूर्ण कोई उल्लेख नहीं कोई उल्लेख नहीं आबादी को उपलब्ध कराया जाएगा
निजी क्षेत्र की भूमिका परिचालन एवं रखरखाव पूंजीगत लागत के हिस्से के हां, पूर्ण लागत वसूली
लागत की वसूली तौर पर संबंधित एवं रखरखाव का उल्लेख किया
का कोई उल्लेख नहीं लागत की वसूली का गया है
उल्लेख किया गया है
स्वायत्त जल कोई उल्लेख नहीं कोई उल्लेख नहीं हां
नियामकीय प्राधिकरण
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