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Apr 28, 2012, 12:00 am IST
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मध्य पृष्ठ

दिंनाक: 28 Apr 2012 15:16:06

मेरी गुड़िया

मेरी गुड़िया, मेरी गुड़िया।

हंसी खुशी की है ये पुड़िया।।

मैं इसको कपड़े पहनाती।

इसको अपने साथ सुलाती।।

ये है मेरी सखी सहेली।

नहीं छोड़ती मुझे अकेली।।

ना यह ज्यादा बात बनाये।

मेरी बातें सुनती जाये।।

गाना इसको रोज सुनाती।

लेकिन खाना यह नहीं खाती।।

–आचार्य मायाराम पतंग

 

लघु कथा

जंगल में लोकतंत्र

–राकेश भ्रमर

बाल मन

वीर बालक

भरत

दुष्यंत बहुत वीर और पराक्रमी राजा थे। उन्हें शिकार का बहुत शौक था। एक बार वह शिकार खेलते-खेलते ऋषि कण्व के आश्रम में पहुंच गए। वहां उन्होंने शकुंतला को देखा तो देखते ही रह गए।

शकुंतला मेनका से जन्मी ऋषि विश्वामित्र की पुत्री थीं। ऋषि कण्व ने उनका पालन-पोषण किया था। वह उनके आश्रम में ही रहती थीं।

दुष्यंत ने वहां शकुंतला से गांधर्व-विवाह कर लिया। उस समय ऋषि कण्व आश्रम में नहीं थे। राजा कुछ दिन वहीं रहे। चलते समय उन्होंने एक अंगूठी शकुंतला को भेंट की, जो उनके विवाह की एक निशानी थी। राजा ने शकुंतला से यह कहकर विदा ली कि ऋषि कण्व के लौटने पर वह उनसे आज्ञा लेकर उनके पास आ जाएं।

कुछ दिन बाद जब कण्व आए तो उन्हें सभी बातों का पता चला। वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने शकुंतला को अपने दो शिष्यों के साथ राजा दुष्यंत के पास भेजा।

लेकिन दुष्यंत ने शकुंतला को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया क्योंकि दुष्यंत द्वारा शकुंतला को दी गई अंगूठी उनसे नदी में गिर गई थी। अंगूठी के बिना राजा उन्हें पहचान नहीं सके।

निराश शकुंतला राजभवन से लौट आईं और एक वन में आश्रम बनाकर रहने लगीं। वह वापस कण्व के पास नहीं गईं।

उस आश्रम में शकुंतला ने भरत को जन्म दिया। भरत बचपन से ही बहादुर था। वह वन के हिंसक पशुओं के साथ खेलता था। बड़े-बड़े शेरों की सवारी करता, उनके बच्चों के दांत गिनता। शेरनी से उसके दूध पीते बच्चों को खींचकर अलग कर देता था।

इसी कारण सभी लोग उसे सर्वदमन कहकर पुकारते थे। एक ऋषि ने उसके गले में एक ताबीज यह कहकर बांध दिया था कि बच्चे के माता-पिता के अलावा यदि कोई उस ताबीज को छू लेगा तो ताबीज सांप बनकर उसे डस लेगा।

उधर, एक दिन दुष्यंत को शकुंतला की गुम हुई अंगूठी मिल गई। अंगूठी को एक मछली निगल गई थी। एक मछुआरे के जाल में वह मछली फंस गई। उसका पेट चीरने पर वह अंगूठी निकली थी।

मछुआरे ने अंगूठी को पहचानकर राजा को सौंप दिया। अंगूठी देखते ही दुष्यंत को शकुंतला की याद हो आई। वह शकुंतला की खोज में निकल पड़े। संयोग से वह उसी आश्रम में पहुंच गए जहां भरत शेर के बच्चों से खेल रहा था।

दुष्यंत ने ऐसा साहसी बालक पहले कभी नहीं देखा था। बालक के चेहरे पर अद्भुत तेज था। न जाने कैसे खेलते हुए भरत का ताबीज खुलकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। दुष्यंत ने आगे बढ़कर ताबीज उठा लिया और उसे भरत के गले में बांधने लगे। आश्रम में रहने वाले लोग दुष्यंत को ऐसा करने से रोकते ही रह गए। उन्हें यह देखकर बेहद आश्चर्य हो रहा था कि ताबीज ने सर्प बनकर दुष्यंत को डसा क्यों नहीं। वे सोचने लगे कि यह अतिथि कौन है।

दुष्यंत ने वीर बालक से उसका परिचय पूछा। बालक ने अपना व अपनी मां का नाम तो बता दिया पर पिता के नाम पर बोला, 'पिता का नाम जानने की जरूरत उन्हें पड़ती है जो अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते।'

तब तक तपस्विनी के वेश में शकुंतला भी वहां आ पहुंचीं। दुष्यंत ने उससे सब बातें जानकर भरत को गले लगा लिया। वह अपने पुत्र और पत्नी को लेकर नगर में वापस आ गए।

दुष्यंत के बाद भरत राजा बने। भरत ने एकछत्र राज्य किया। भरत के नाम पर ही अपने देश का नाम 'भारत' पड़ा। n

हमारे सपने और बच्चे

बच्चों का लालन-पालन उचित ढंग से हो, उनका सम्पूर्ण विकास हो। इसके लिए आवश्यक है कि उनमें सही मूल्यों का समोवश हो। उनमें नैतिक मूल्यों के बीज बोए जाएं। जीवन के झंझावातों से लड़ना सिखाया जाए। हार को बच्चे जीवन से हारना नहीं एक अनुभव के रूप में लेना सीखें। संयुक्त परिवार में कई रिश्ते जीते हुए बच्चों में भावनात्मक परिपक्वता आती थी। किन्तु अब एकल परिवार के कारण यह परिपक्वता भी नहीं दिखती है। अत: माता-पिता बच्चों और अपने व्यवहार के बीच निम्न प्रकार के सन्तुलन रखें-

l अपने सपनों और बच्चों की क्षमताओं में l अपने लाड़-दुलार और अनुशासन में l º´ÉÒEòÉ®úÉäÊHò और गलत व्यवहार तुरन्त रोकने में l विकास के लिए आवश्यक स्थितियां बनाने और अपना रास्ता स्वयं चुनने की आजादी में l नैतिकता, जीवन मूल्यों और आधुनिकता में l सपनों और यथार्थ में l जीत की खुशी और हार का गम सहेजने में l =c÷xÉä के पंखों और जमीन की जड़ों में।

उपरोक्त संतुलन बनाकर चलेंगे तो समझिए आपका बच्चा जीवन संग्राम में अपराजेय योद्धा बनकर उतर रहा है। n®úÉVÉÒ सिंह

पंचतंत्र की एक कहानी में जंगल का राजा शेर अंधाधुंध जानवरों का शिकार करता था। तब जानवरों ने मिलकर तय किया था कि रोज एक जानवर शेर के पास उसके भोजन के लिए भेजा करेंगे। इससे शेर को शिकार नहीं करना पड़ेगा और जानवर भी सुरक्षित रहेंगे। बारी-बारी से रोज एक जानवर शेर के पास जाने लगा। शेर उसे मारकर खाता और गुफा में आराम करता। अंत में एक खरगोश की बारी आई। वह बहुत चालाक था और जान-बूझकर देर शाम को टहलते-टहलते राजा के पास पहुंचा। शेर भूख और गुस्से से आग बबूला हो रहा था। खरगोश ने डरने का अभिनय करते हुए बताया कि रास्ते में एक दूसरे शेर ने उसे रोक लिया था। शेर को विश्वास नहीं हुआ। तब खरगोश उस शेर को एक कुएं के पास ले गया। शेर ने कुएं में अपनी परछाई देखी तो उसे दूसरा शेर समझकर कुएं में कूद पड़ा और डूबकर मर गया।

पंचतंत्र की इस कहानी में जंगल के राजा शेर को खरगोश ने धोखे से कुएं में गिराकर मार डाला था। इस कहानी को आगे बढ़ाते हैं। शेर तब भले मर गया था, परन्तु अगले जन्म में भी उसने शेर के रूप में जन्म लिया और जंगल में राज करने लगा। पिछले जन्म की बातें उसे याद थीं। खरगोश के विश्वासघात से वह बहुत खफा था।

उसने जंगल के सभी जानवरों की सभा बुलाई और गरजकर कहा, पिछली व्यवस्था में अब मैं परिवर्तन करना चाहता हूं। अब से रोज एक जानवर मेरे पास नहीं आएगा।

'तो फिर हम क्या करें सरकार?' जानवरों ने एक साथ पूछा।

'देखो, एक जानवर से मेरा और मेरे परिवार के सदस्यों का पेट नहीं भरता। सारे जानवर एक जैसे आकार के नहीं होते। कोई छोटा होता है, कोई बड़ा। जिस दिन छोटा जानवर मेरे पास आता है, उस दिन मेरे बच्चों का कलेवा भी नहीं होता। खाने की बात बहुत दूर की रही।'

'फिर सरकार हम दो जानवर एक साथ रोज आपके पास भेजा करेंगे- एक छोटा, एक बड़ा।'

जानवरों ने एकजुट होकर कहा।

'नहीं,' शेर फिर गरजा, 'अब मुझे प्रजा के किसी जानवर पर विश्वास नहीं रहा। तुममें से फिर कोई जानवर मुझे धोखे से मार सकता है, अत: मैं स्वयं अपनी व्यवस्था करूंगा।'

सारे जानवरों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वह एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। शेर ने दहाड़कर कहा-'अब मैं जंगल में लोकतंत्र लागू करूंगा। इसमें मैं निर्विरोध जंगल का राजा बनूंगा और तुम लोग मेरी प्रजा। तुममें से मैं अपने लिए कुछ अंगरक्षक और सेवक चुनना चाहता हूं। वही मेरा कार्य-भार संभालेंगे। बताइए आप में से कौन-कौन मेरे काम करना पसन्द करेगा?'

चीता, तेन्दुआ, भेड़िया, लकड़बग्घा और सियार स्वेच्छा से आगे आ गए। शेर खुश होकर बोला, बहुत अच्छे। आज से आप लोग न केवल मेरे अंगरंक्षक रहोगे, बल्कि मेरे लिए भोजन और सुख-सुविधा की व्यवस्था करोगे। आप लोग जंगल के किसी भी जानवर को मार सकते हैं, उनसे अपना काम करवा सकते हैं। आपको पूरी छूट और आजादी होगी।'

सारे जानवर डरकर इधर-उधर भागने लगे, परन्तु भागकर वह कहां जा सकते थे। दूसरे जंगल में जाने के लिए उनके पास 'पासपोर्ट' और 'वीजा' नहीं था।

उस दिन के बाद जंगल में लोकतंत्र लागू हो गया, परन्तु वहां कोई लोकतंत्र नहीं था। राजा के सेवकों का राजतंत्र था। वे सेवक निरीह जानवरों को बेवजह सताते और मारते। उन्हें लूटकर अपने घर की तिजोरियां भरते। उनका शिकार करते और मांस को थोड़ा-बहुत नोंचकर खाते, फिर अधमरा छोड़ देते।

जंगल के जानवरों में त्राहि-त्राहि मच गई, परन्तु उनकी सुनने वाला कोई नहीं था, क्योंकि राजा रात-दिन दरबारियों से घिरा रहता था और आधी रात को तिजोरी में ठूंसा हुआ माल गिनता। वह अपने को जनसेवक कहता था, परन्तु जनता के बीच कभी नहीं जाता था और जंगल के जानवरों को उस तक पहुंचने नहीं दिया जाता था, क्योंकि लोकतंत्र में 'लोकनायक' जनता से मिलना पसंद नहीं करते।

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