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विघ्न हरने वाले शमी विघ्नेश्वर
इन्दिरा किसलय
जहां तक दृष्टि की सीमा है वहां तक वनश्री और निपट एकान्त में पहाड़ी पर सौंदर्य रचना के लिए सामग्री जुटाता है श्री क्षेत्र यानी अदासा गणेश। एक हजार वर्षों से भी प्राचीन कालखण्ड की गाथाएं समेटे यह समूचा परिसर, दर्शक भक्तों के मन में स्थायी आकर्षण को जन्म देता है।
'अदासा', अदोष शब्द का अपभ्रंश है। जिसका आशय है दोषरहित या निर्दोष। अदासा गणेश को 'शमी विघ्नेश्वर' भी कहते हैं। मूल प्रतिमा पर सिन्दूर के आलेपन से प्रत्यक्ष कुछ कहना भले ही असंभव लगे पर यह नृत्य मुद्रा में अंकित गणेश ही हैं। इसका काल निर्धारण 8वीं या 10वीं शती के आसपास किया गया है।
महाराष्ट्र में नागपुर से 32 किमी दूर सौम्य और सुशान्त वनस्थली के अंक में शोभित अदासा अपने शिल्प के लिए कम, पौराणिक महत्व के लिए अधिक जाना जाता है। विशालाकार प्रस्तर खण्डों से निर्मित 12 स्तंभों पर आधारित है यह देवालय। 6 फुट चौड़ी और 18 फुट ऊंची शमी विघ्नेश्र की प्रतिमा, राज्य में सबसे ऊंची गणेश प्रतिमा है। मंदिर उत्तरमुखी है। इस गणेश प्रतिमा को 8वीं या 10वीं शती के आसपास निर्मित माना जाता है।
पुरातत्ववेत्ता अदासा को 'शाणपत्य सम्प्रदाय' की साधना स्थली कहते हैं। 5वीं से 9वीं शताब्दी के बीच इस सम्प्रदाय का वर्चस्व रहा। इसके छह वर्गों ने छह ग्रंथों की रचना की- 1. गणेश पुराण 2. गणेश संहिता 3. गणपति उपनिषद् 4. गणपति कवच 5. गणपति पंचरत्न और 6. गणपति रहस्य। गणपत्य सम्प्रदाय के नागा साधुओं की परिसर में चारों ओर स्थित समाधियां इस बात का साक्ष्य देती हैं।
दक्षिण भारत की शैली-शिल्प से सर्वथा अलग इस मन्दिर का 'गर्भगृह' अत्यन्त छोटा है। जैसे भक्त और भगवान के अलावा किसी तीसरे का क्या काम।
प्रेम गली अति सांकरी,
जामें दो न समाय
भक्ति पथ का रहस्य भी तो यही है।
इसी परिसर में त्रिमुखी शिवलिंग वाला त्र्यंबकेश्वर शिव मन्दिर भी है। 11वीं या 12वीं शती का कालांश अपने अन्तस में छिपाये। अदासा से वामनावतार एवं बलि के गर्वहरण की कथा जोड़ी जाती हैं। वामन ने अपनी आराधना के लिए जिस गणेश का निर्माण किया वही हैं यह अदासा गणेश। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार 'वामन क्षेत्र' ही 'अदोष-क्षेत्र' है।
यहां दो अन्य मंदिर भी ध्यान आकृष्ट करते हैं। पहले में 12 शिवलिंग तथा एक गणेश, दूसरे में छह गणेश और एक शिवलिंग स्थापित हैं। यहां के 'खंजरधारी हनुमान' उल्लेखनीय हैं। इतिहासज्ञ इसके चालुक्य-परमार कालीन होने की संभावना व्यक्त करते हैं। सोलहवीं शती में शाहजहां के सेनापति खानदौरान द्वारा मूर्तिभंजन के प्रमाण मिलते हैं। क्षेत्र में 'झोपला मारुति' अर्थात् सोये हुए हनुमान भी दर्शनीय हैं।
अदासा मन्दिर परिसर में अनेक खंडित मूर्तियां विचलित करती हैं। शिव एवं काल भैरव की क्षत-विक्षत प्रतिमाएं, इतिहास के निन्दित पृष्ठों तक ले जाती हैं। यवन आक्रान्ताओं की करतूत है यह। इस ध्वंस के पीछे अलाउद्दीन खिलजी की फौज का उत्पात माना जाता है। औरंगजेब भी इतिहासज्ञों के सन्देह की परिधि से परे नहीं। भक्तगण, शास्त्रोक्त कथनों को भूलकर इन खंडित प्रतिमाओं पर आस्था के फूल चढ़ाते हैं। यह श्रद्धा एवं विश्वास का चरम है। विदर्भ के अनेक मंदिर भोंसलों ने संरक्षित किये। उन्हें नवजीवन दिया। अदासा का जीर्णोद्धार भी जानोजी एवं रघुजी भोंसले द्वितीय के शासनकाल में हुआ। तिल चतुर्थी पर यहां भारी भीड़ उमड़ती है। वसंत पंचमी पर होने वाला आयोजन अविस्मरणीय होता है। इस अवसर पर गणपति को फूलों की सेज चढ़ाई जाती है। यहां लाल गुलाबों में शुभ्रफूल और दूर्वा गूंथकर जो माला बनाई जाती है वह जैसे मांगल्य, शुचिता और मन की समृद्धि का आभास कराती है।
जब कभी जगत-जीवन की भीड़ से उकताकर दो घड़ी सौम्य क्षणों का आनन्द लेना हो या मंदिर की पर्वतनुमा ऊंचाई पर बैठकर खुद से दो बातें करने का मन हो तो शमी विघ्नेश्वर को साक्षी रखकर समय का सम्मान किया जा सकता है।
सीधी का मणिकूट आश्रम
जहां चल रहा है 108 वर्षीय अखण्ड संकीर्तन
मध्य प्रदेश में सीधी जिला मुख्यालय के बीच में अलौकिक अध्यात्म रामायण मंदिर है। यह वही पावन भूमि है जहां विश्व विख्यात ग्रंथ कादम्बरी के रचनाकार बाणभट्ट एवं देश के नामी विद्वान बीरबल ने जन्म लिया था। सीधी जिले के सोनवर्षा गांव में वि.सं. 1980 तदनुसार ई. सन् 1923 में सन्त गोपालदास जी महाराज का जन्म हुआ। उन्होंने घोर तपस्या के पश्चात् अनेक चमत्मकार दिखाए। इस कारण सीधी और उसके आसपास में महाराज जी काफी प्रसिद्ध हुए। धीरे-धीरे उनके भक्तों की संख्या बढ़ती गई और उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। जनकल्याण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए। इसके बाद महाराज जी ने सन् 1962 में सीधी में मणिकूट आश्रम की स्थापना कर 108 वर्षीय 'जय सियाराम, जय जय सियाराम' अखण्ड संकीर्तन प्रारंभ किया, जो उनके ब्रह्मलीन होने के पश्चात् भी अनवरत चल रहा है। महाराज जी ने मणिकूट आश्रम के परिसर में भव्य अध्यात्म रामायण मंदिर, तपोवन कुटी (धरौली), सत्संग मंदिर (अरैल, प्रयाग) एवं श्रीराम जानकी मंदिर (हिनौती, सिहावल) का निर्माण कराया। उन्होंने 11 मई 1987 को अध्यात्म रामायण मंदिर की आधारशिला रखी। उनके अथक प्रयास एवं साधना के परिणामस्वरूप 13 वर्ष के पश्चात् 2 फरवरी 2000 में अध्यात्म रामायण मंदिर तैयार हो गया। मन्दिर में श्रीराम जानकी जी, श्री शिव पार्वती जी एवं महाराज जी के परम गुरु खांकीजू की मूर्तियों को स्थापित कर यह मन्दिर महाराज जी ने ही श्रद्धालुओं को समर्पित कर दिया। अध्यात्म रामायण मंदिर इस क्षेत्र के गौरव का प्रतीक चिह्न माना जाता है।
अध्यात्म रामायण मंदिर सीधी शहर के बीचों-बीच स्थित ऊंची पहाड़ी पर है। मंदिर के गर्भ गृह की दीवारों पर जयपुर के कुशल कारीगरों द्वारा संपूर्ण अध्यात्म रामायण को संगमरमर के पत्थरों में लिखकर लगाया गया है। श्रद्धालु अध्यात्म रामायण मंदिर के दर्शन मात्र से ही अपने आपको महाराज जी के अति समीप पाते हैं। साथ ही मंदिर परिसर में श्री राधाकृष्ण, श्री हनुमान जी का विराट मंदिर है, जिसमें आकर्षक मूर्तियां स्थापित की गई हैं। n=nùªÉ कमल मिश्र
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