चर्चा सत्र
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डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत को मतांतरित करने के प्रयास काफी लम्बे अरसे से चले आ रहे हैं। गोआ में पुर्तगाल के ईसाई मिशनरियों ने मतांतरण का जो आन्दोलन डण्डे के बल पर चलाया था, कालान्तर में शेष भारत में अंग्रेजी राज के दिनों में चर्च ने यही आन्दोलन छल और कपट के आधार पर चलाया। अंग्रेजों के भारत से जाने के वक्त ईसाई मिशनरियों की मुख्य चिन्ता यही थी कि भविष्य में चर्च मतांतरण की अपनी गतिविधियों को कैसे जारी रख सकेगा? इस मुद्दे को लेकर ईसाई मिशनरियों का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमण्डल महात्मा गांधी से भी मिला था। लेकिन महात्मा गांधी ने इसमें हस्तक्षेप करने से न केवल इनकार किया, बल्कि उन्होंने इसका विरोध भी किया। गांधी जी चर्च द्वारा भारत में किए जा रहे मतांतरण के खिलाफ तो थे ही, वे मिशनरियों द्वारा किए जा रहे सेवा प्रकल्पों को भी मतांतरण का एक माध्यम ही मानते थे। भारत में सात- आठ सौ साल तक इस्लामी ताकतों द्वारा किए गए मतांतरण ने भारत को खण्डित कर पाकिस्तान बना दिया था और अब चर्च अपने लिए उसी प्रक्रिया की छूट देने की मांग कर रहा था, भविष्य में जिसके नतीजे खतरनाक निकल सकते थे।
चर्च के पीछे विदेशी ताकतें
कालांतर में चर्च की गतिविधियों की छानबीन के लिए मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार द्वारा गठित नियोगी आयोग ने जो रपट प्रस्तुत की वह काफी चौंकाने वाली थी। इसमें धोखाधड़ी के उन तरीकों का भण्डाफोड़ किया गया था जिनके माध्यम से चर्च मतांतरण का कार्य कर रहा था। इस रपट को ध्यान में रखते हुए 1967 में मध्य प्रदेश सरकार ने छल-कपट और लालच से मतांतरण को रोकने के लिए 'मध्य प्रदेश पांथिक स्वतन्त्रता अधिनियम- 1967' पारित किया। इस जैसे प्रयासों के बावजूद चर्च के इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र को बहुत समय तक रोका नहीं जा सका, क्योंकि चर्च के पीछे अमरीका समेत अनेक पश्चिमी ताकतों का हाथ था। लेकिन अन्तत: 1977 में सर्वोच्च न्यायालय ने मतांतरण रोकने सम्बन्धी तमाम विधेयकों पर अंतिम निर्णय देते हुए इन को जायज ही नहीं ठहराया, बल्कि यह भी कहा कि अपनी बात को प्रचारित करने का अर्थ मतांतरण का अधिकार प्राप्त कर लेना नहीं है। जाहिर है कि ईसाई मिशनरियां अपनी पहली लड़ाई हार चुकी थीं। उसके अगले साल 1978 में पूर्वोत्तर भारत के एक प्रमुख राज्य अरुणाचल प्रदेश ने पांथिक स्वतन्त्रता अधिनियम पारित किया। मतांतरण के काम को तेजी देने के लिए ईसाई मिशनरियों ने जो अलग-अलग नामों से एन.जी.ओ. बना रखे थे उनको करोड़ों रुपए की वित्तीय सहायता अमरीका, कनाडा और आस्ट्रेलिया के अतिरिक्त अनेक पश्चिमी देशों से आ रही थी। अरुणाचल प्रदेश में मतांतरण रोकने के लिए बने इस विधेयक से चर्च का बौखला जाना स्वाभाविक ही था।
सोनिया कांग्रेस और चर्च
कांग्रेस पर सोनिया गांधी का कब्जा हो गया तो ईसाई मिशनरियों ने फौरन अपनी रणनीतियों में भी बदलाव किया। अब उनकी रणनीति यह बनी कि इस प्रकार का वातावरण तैयार किया जाए और परदे के पीछे से ही ऐसी ताकतों को समर्थन दिया जाए जिनके कारण विभिन्न राज्यों की विधान सभाएं मतांतरण को रोकने के लिए अधिनियम ही पारित न कर सकें। सोनिया कांग्रेस इस नई रणनीति में पूरी तरी चर्च के साथ खड़ी दिखाई दे रही थी। यह धीरे-धीरे तब स्पष्ट होने लगा जब तमिलनाडु विधान सभा को बलपूर्वक मतांतरण को रोकने के लिए 2002 में बने अधिनियम को वापस लेना पड़ा। 2006 में राजस्थान विधान सभा द्वारा पांथिक स्वतन्त्रता अधिनियम पारित करने के प्रयासों को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। राजस्थान विधान सभा ने जब ऐसा विधेयक पारित किया तो राज्यपाल ने इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। दूसरी बार यही विधेयक राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास भेज दिया। विधेयक पर कहीं राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त न हो जाए इस आशंका को दूर करने के लिए सोनिया कांग्रेस ने राजस्थान की राज्यपाल को ही राष्ट्रपति बना दिया। लेकिन इसे संयोग ही कहना चाहिए कि इसी बीच यानी 2006 में हिमाचल प्रदेश विधान सभा में यह अधिनियम पारित हो गया।
हिमाचल पर तीखी नजर
दरअसल हिमाचल प्रदेश पिछले कुछ वर्षों से ईसाई मिशनरियों के एजेण्डे पर पूरी तरह से आ चुका है। लगभग सौ साल पहले अमरीका से एक पादरी को ईसाई मिशनरियों ने हिमाचल प्रदेश में मतांतरण के कार्य हेतु भेजा था। उसने शिमला की पहाड़ियों में भोले-भाले पहाड़ी लोगों को ईसाई पंथ में मतांतरित करने के प्रयास भी किए और इसमें उसको कुछ सफलता भी मिली। लेकिन धीरे-धीरे वह भारतीय ग्रंथों से इतना प्रभावित हुआ कि श्रीमद् भगवद्गीता का अनन्य उपासक बन गया और उसने अपना नाम ही बदलकर सत्यानन्द रख लिया। वह देश भर में घूमकर गीता पर व्याख्यान देता था। वह स्वामी सत्यानन्द स्टोक्स के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लेकिन इससे ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्र को गहरा आघात लगा। शायद इसकी भरपाई के लिए ईसाई मिशनरियों ने हिमाचल को अपने निशाने पर रख लिया और विदेशी पैसे के बल पर यहां मतांतरण के आन्दोलन को अत्यन्त गति प्रदान कर दी। ऊपरी पहाड़ी इलाकों में हजारों लोग अपनी विरासत छोड़ कर छोटे-मोटे सांसारिक प्रलोभनों में फंसकर मतांतरित होने लगे।
चर्च ने अब फिर अपनी रणनीति बदली है और इन अधिनियमों को न्यायालय के माध्यम से निरस्त करवाने की रणनीति को दोबारा आजमाने की कोशिश शुरू की है। गुजरात पांथिक स्वतन्त्रता अधिनियम को वहां के उच्च न्यायालय में कैथोलिक बिशप कान्फ्रेंस ने 2009 में चुनौती दी थी। लेकिन अभी तक वह सुनवाई की प्रतीक्षा में है। दूसरा प्रयोग चर्च ने हिमाचल प्रदेश में किया है। सुदूर महाराष्ट्र के यवतमाल में पंजीकृत एक 'इवेंजेलिकल फैलोशिप ऑफ इण्डिया' (इस संस्था में मतांतरण के काम में लगे 200 से भी ज्यादा ईसाई मिशनरी शामिल हैं।) नामक ईसाई मिशनरी संस्थान ने शिमला आकर उच्च न्यायालय में हिमाचल प्रदेश पांथिक स्वतन्त्रता अधिनियम को चुनौती दी। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने 22 फरवरी 2011 को इस याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया और साल के भीतर ही यह याचिका अपनी अन्तिम सुनवाई के स्तर तक जा पहुंची है। याचिका के अनुसार, 'राज्य को परमात्मा और भक्त के बीच दखलंदाजी करने का कोई अधिकार नहीं है।' लेकिन चर्च इस विषय पर मौन है कि ईसाई मत में तो परमात्मा और भक्त के बीच सबसे ज्यादा दखलंदाजी करने वाले पोप और आर्चबिशप ही स्वीकारे जाते हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह याचिका स्वीकार कर लिए जाने से वेटिकन इतना प्रसन्न है कि उसकी समाचार एजेंसी एजेनजिया फादस इसको भारतवर्ष के सभी मतांतरित ईसाइयों के लिए 'खुशखबरी' और एक नई न्यायिक प्रक्रिया की शुरुआत बताते हुए दुनिया भर में प्रचारित कर रही है। इसके साथ ही अपने को वामपंथी विचारधारा से जुड़ा होने का दावा करने वाली 'अनहद' नाम की संस्था, जिसकी अध्यक्षा मरहूम सफदर हाशमी की बहन शबनम हाशमी हैं, ने भी इस अधिनियम को शिमला उच्च न्यायालय में चुनौती दी। अनहद ने गुजरात में वहां के साम्प्रदायिक सद्भाव को खण्डित करने के अनेक प्रयास किए जिसके कारण गुजरात सरकार ने समय-समय पर शबनम हाशमी को गुजरात में प्रवेश करने से भी रोका। लेकिन सोनिया कांग्रेस की सरकार ने शबनम हाशमी को राष्ट्रीय एकता परिषद् का सदस्य बनाया। लगता है, मतांतरण षड्यंत्र को चलाए रखने के लिए चर्च और इस्लामी ताकतें एक हो गई हैं। हिमाचल प्रदेश में ईसाई मजहब में आस्था रखने वालों ने इस अधिनियम पर कभी आपत्ति नहीं की। 'इवेंजेलिकल फैलोशिप ऑफ इण्डिया' जैसी बाहरी संस्था प्रदेश में आकर यहां का साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने का प्रयास ही नहीं कर रही है बल्कि उनकी कोशिश यह भी है कि यदि हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय से उनको थोड़ी सी भी राहत मिल जाती है तो वे देश भर में हल्ला मचाकर एक बार फिर विदेशी पैसे और विदेशी ताकतों की शह पर देश के माहौल को खराब ही नहीं करेंगे, बल्कि मतांतरण को रोकने सम्बन्धी विधेयकों को सभी जगह से वापस लेने के लिए एक बड़ी रणनीति पर भी काम करेंगे। n
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