मंथन
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भारत कैसे बना रहे भारत-8
मंथन
देवेन्द्र स्वरूप
दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी की भूमिका और मन:स्थिति को जानने के लिए उस कालखंड में नरमदलीय नेता बी.एस. श्रीनिवास शास्त्री के पत्रों का अध्ययन बहुत उपयोगी है। अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के समान शास्त्री जी भी नरमदलीय होते हुए प्रखर राष्ट्रभक्त, संस्कृतिनिष्ठ एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वे अपने युग के असामान्य वक्ता थे। उनके वक्तृत्व की प्रशंसा करते हुए गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'भारतीय विधान परिषद की कार्रवाई में उपस्थित रहने का अवसर मेरे जीवन में केवल एक बार आया। वह अवसर था जब वहां रोलर विधेयक (1919) पर बहस चल रही थी। तब शास्त्री जी ने एक भावुक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार को गंभीर चेतावनी दी। वायसराय मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुन रहे थे। जब तक शास्त्री जी के वक्तृत्व की उष्ण धारा बहती रही, वायसराय की दृष्टि उन पर ही गड़ी रही। एक क्षण के लिए मुझे लगा कि उनका भाषण सत्य के इतना निकट और भावना से ओतप्रोत था कि वायसराय उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे होंगे।'
शास्त्री जी की निष्ठा
संस्कृतिनिष्ठा, राष्ट्रभक्ति और वक्तृत्व के धरातल पर महान होते हुए भी शास्त्री जी को अंग्रेजों की लोकतंत्र-निष्ठा, न्यायप्रियता और प्रजा वत्सलता पर असीम श्रद्धा थी। उन्हें विश्वास था भारत को ब्रिटिश दासता से स्वातंत्र्य बिना किसी संघर्ष या जनांदोलन के, केवल अपनी प्रशासकीय क्षमता बढ़ाने और ब्रिटिश सदिच्छा को जाग्रत करने से प्राप्त हो सकेगी। इसलिए गांधी जी के आध्यात्मिक व्यक्तित्व से अभिभूत होते हुए भी वे उनके सत्याग्रह या सविनय अवज्ञा आंदोलन को ध्वंसात्मक मार्ग मानते थे और ब्रिटिश संवैधानिक प्रक्रिया का अंग बनकर विधान परिषदों में अपने वाक्-चातुर्य से ब्रिटिश आत्मा को झकझोरने के मार्ग को रचनात्मक मानते थे। संभवत: शास्त्री जी अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने पत्रों में गांधी जी से मत-भिन्नता प्रकट करने और गांधी जी की कमियों को जताने का साहस दिखाया। यह गांधी जी की महानता ही थी कि उन्होंने न केवल शास्त्री जी की फटकार का स्वागत किया अपितु उनके प्रत्येक पत्र का उत्तर दिया, उन्हें बड़ा भाई और स्वयं को 'आपका छोटा भाई' कहकर संबोधित किया। 22 सितम्बर, 1869 को जन्म लेने के कारण शास्त्री जी उनसे आयु में केवल दस दिन बड़े थे, पर 17 अप्रैल, 1946 को हुई उनकी मृत्यु तक उनका गांधी जी के साथ संबंध व पत्राचार लगातार बना रहा।
शास्त्री जी की स्पष्टवादिता
इन दो महापुरुषों के संबंधों की गहराई को समझने के लिए यहां एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा। गांधी जी ने जेल में बंद होते हुए ही 11 फरवरी, 1933 से अंग्रेजी भाषा में 'हरिजन' पत्र का प्रकाशन आरंभ किया। उसके लिए श्रीनिवास शास्त्री को पत्र लिखकर आशीर्वचन मांगे। शास्त्री जी ने 13 फरवरी, 1933 को उनके पत्र का उत्तर दिया, जिसके शिखर पर गोपनीय लिख दिया। इस पत्र को उन्होंने लिखा, 'तुमने अपने नये शिशु के लिए संदेश मांगा है। अब मैं तुम्हारे प्रति अपना रुख बदलने जा रहा हूं। यह तुम्हारे हित में आवश्यक है, भले ही उसके लिए मुझे कितना ही प्रयास करना पड़े। तुम एक दुरूह दुनिया में जी रहे हो। सोते-जागते तुम पाप और प्रायश्चित, आत्मस्वीकृति और सत्यान्वेषण, सत्याग्रह और नैतिक आत्म-प्रवंजना के विचारों में खोये रहते हो। जिन्हें तुमसे बात करने या पत्र लिखने का मौका मिलता है, वे लगातार शंकाएं और गंभीर समस्याएं खड़ी करते हैं, जिससे तुम्हारे इर्द-गिर्द घुटन और गंभीरता का वातावरण और अधिक गंभीर हो जाता है। कम लोग हैं जो हल्की- फुल्की बातें, निरापद चुटकुलों, अर्थपूर्ण हंसी-मजाक और प्रचलित गाली-गलौज की भाषा बोलकर वातावरण को हल्का बना सकें। तुम्हें अपनी मंडली में एक मजाकिये की बहुत आवश्यकता है। मैं समय-समय पर यह काम करने की कोशिश करूंगा। मैं लम्बे समय से सोये पड़े तुम्हारे मस्तिष्क को झकझोरने की कोशिश करूंगा और जिन पोषक तत्वों का उसे लम्बे समय से अभाव है, वह देने की कोशिश करूंगा। नि:संदेह यदि मेरी दवा को अनुकूल न पाओ और उसे झेल न पाओ तो तुम उसे बंद करवा सकते हो। वह मेरे लिए संकेत होगा कि बीमारी बहुत आगे जा चुकी है।…तुम अंग्रेजी भाषा के असामान्य शुद्ध लेखक हो। सामान्य पाठक तुम्हारे लेखन में कोई भूल नहीं देख पाता, क्योंकि वे बहुत कम और सूक्ष्म होती हैं। मैं 'हरिजन' के पहले अंक में तुम्हारे नाम से छपी रचनाओं में से कुछ नमूने पेश कर रहा हूं।' इसके बाद शास्त्री जी भाषा की भूलों की एक लम्बी तालिका प्रस्तुत करते हैं।
गांधीजी का बड़प्पन
ऐसे कठोर निंदा भरे पत्र पर गांधी जी की प्रतिक्रिया देखने लायक है। शास्त्री जी से इस पत्र के प्रकाशन की अनुमति मांगते हुए गांधी जी ने लिखा, 'मैं इस पत्र को सार्वजनिक करना चाहता हूं, क्योंकि यह प्रकाशन के भाव से नहीं लिखा गया है। मैं इस पत्र को छापकर सनातनियों और सुधारकों के बीच के वर्तमान तनाव को भी कम करना चाहता हूं। उन्हें सीखना चाहिए कि परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों के व्यक्तियों में भी घनिष्ठ मित्रता बनी रह सकती है। जनता जानती है कि कई महत्वपूर्ण प्रश्नों पर मेरे और आपके विचार एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। परंतु इस कारण एक-दूसरे के प्रति हमारे स्नेह और सम्मान की भावना में कोई अंतर नहीं पड़ा।'…आगे गांधी जी लिखते हैं, 'शायद आपको पता नहीं है कि मेरी मंडली में सरदार वल्लभभाई पटेल उस मजाकिये की आवश्यकता को भली प्रकार पूरा कर देते हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब वे अपने अनपेक्षित व्यंग्य वाणों से मुझे हंसाते-हंसाते पेट में दर्द न करा देते हों। उनकी उपस्थिति में उदासी अपना मनहूस चेहरा छिपा लेती है। कितनी भी बड़ी निराशा उन्हें अधिक देर तक उदास नहीं रहने देती। मेरा 'संतपना' भी उनके हमले से नहीं बच पाता। भले ही सीधे-सादे लोग उससे धोखा खा जाएं, पर सरदार या सनातनी नहीं। दोनों मेरे चेहरे का नकाब उधेड़ डालते हैं और मुझे अपने आपको अपनी आंखों से देखने के लिए मजबूर कर देते हैं।…
सरकार को धन्यवाद है कि उसने वल्लभ भाई को मेरे या मुझे उनके साथ रख दिया। परंतु यह जानकारी देने का अर्थ यह नहीं है कि आप (शास्त्री) अपने स्व-स्वीकृत दायित्व से मुक्त हो गये हैं, क्योंकि सरदार वह नहीं कर पाएंगे जिसे आप पर हमेशा करने का भरोसा किया जा सकता है। इसके विपरीत सरदार ने मेरी हर बात के समर्थन में 'हां जी, कहने की बुरी आदत पाल ली है। और यह किसी भी व्यक्ति के लिए हितकर नहीं है।…'
इस लम्बे पत्र के अंत में गांधी जी ने शास्त्री जी के पत्र को 'हरिजन' के अंक को सामने रखकर तीन-चार बार पढ़ने की प्रार्थना की, ताकि वे शास्त्री जी के पत्र के सौंदर्य को पकड़ सकें। 'हरिजन' में शास्त्री जी के पत्र और अपने उत्तर को प्रकाशित करने के पूर्व गांधी जी ने उनसे निजी पत्र के प्रकाशन की अनुमति मांगी। इस रोचक पत्राचार के ऊपर उन्होंने टिप्पणी लिखी, 'मैंने शास्त्री जी से 'हरजिन' के लिए संदेश मांगा था और उनसे निजी निर्देश के साथ यह विशेष पत्र मिला। मुझे यह पत्र इतना अच्छा लगा कि मैंने उसे दबाना उचित नहीं समझा और इसलिए उनसे प्रकाशन की तार द्वारा अनुमति मांगी। उत्तर में उनका तार भी उतना ही विशिष्ट है जितना कि उनका पत्र। वे लिखते हैं 'प्रथमत: यह पत्र 'हरिजन' के लिए उपयुक्त नहीं है। दूसरे, आपके प्रशंसकों की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। तीसरे, तुम्हारे अनवरत स्नेह का उचित प्रतिदान नहीं है। फिर भी यदि तुम्हें इससे कोई भी लाभ दिखाई देता है, तो छापो।'
अपने–अपने निष्कर्षों पर दृढ़
गांधी जी और शास्त्री जी के लम्बे संबंधों में ऐसे अनेक मधुर प्रसंग हैं जिन्हें हम पाठकों के सामने अवश्य लाना चाहेंगे, पर इस समय तो केवल द्वितीय गोलमेज सम्मेलन पर ही केन्द्रित करेंगे। गांधी जी 22 सितम्बर, 1931 को लंदन पहुंच पाये जबकि सम्मेलन 7 सितम्बर को ही आरंभ हो चुका था। शास्त्री जी तो स्वयं भी अप्रैल माह से ही इंग्लैण्ड पहुंच गये थे और वहां लेखों, भाषणों एवं व्यक्तिगत भेंटों के द्वारा भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा देने के पक्ष में वातावरण बनाने में जुट गये थे। वे गांधी जी के आगमन की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। वस्तुत: उन्होंने ही गांधी जी की लंदन यात्रा के लिए गांधी- इर्विन वार्ता और समझौते की भूमिका तैयार की थी। 'गांधी जी आएंगे या नहीं', इस ऊहापोह की भी वे लंदन में बैठकर चिंतापूर्वक खोज-खबर ले रहे थे।
गांधी जी के लंदन पहुंच जाने पर उन्होंने राहत की सांस ली, पर इस बारे में 22 सितम्बर के अपने पहले पत्र में ही उन्होंने लिखा, 'गांधी आये यह तो अच्छा हुआ, पर वह स्वयं में एक समस्या बन गये हैं। यहां आकर उन्होंने एक सदन या दो सदन की अनावश्यक बहस आरंभ कर दी है। बिड़ला (घनश्याम दास) ने मुझे बताया कि गांधी जी गोलमेज सम्मेलन को तोड़ने का निश्चय लेकर ही आये हैं, अत: हम लोग व्यर्थ ही क्यों परेशान हों? कभी-कभी मुझे भी ऐसा ही लगता है।'
24 सितम्बर को अगले पत्र में उन्होंने रामस्वामी शास्त्री को लिखा कि, 'रंगास्वामी ने मुझे गुप्त तौर पर बताया कि गांधी सम्मेलन से विच्छेद करने का निश्चय कर चुके दीखते हैं, और उसके लिए कोई अच्छा बहाना ढूंढ रहे हैं। निश्चय ही, बिड़ला, डा.जीवराज मेहता और कुछ अन्य उसी तरफ दृढ़ता से खींच रहे हैं। सच तो ईश्वर ही जानता है। मैं उनसे बिल्कुल नहीं मिलता हूं। भीड़ उन्हें हर समय घेरे रहती है। यहां आने के बाद उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी नहीं है। मालवीय जी बहुत सहमे और हक्के-बक्के लग रहे हैं।…'
2 अक्तूबर को टी.आर.वेंकटराम शास्त्री को वे लिखते हैं, 'लक्षण शुभ नहीं हैं। गांधी अपनी ही महानता के शिकार हैं और परेशान हो रहे हैं। वे कहते हैं कि मैं अपना पक्ष रखकर चला जाऊंगा। जिसका अर्थ हुआ कि वे 'अल्टीमेटम' देकर चले जाएंगे। वे कठोर भाषा का प्रयोग नहीं करते इस कारण उनकी शैली बहुत मधुर है। मुसलमानों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। उन्होंने बताया कि मुसलमानों ने उनसे लम्बी जिरह की और उन्हें जानबूझकर सताया। परंतु वे इस सबका दोष ब्रिटिश पक्ष पर डालकर सम्मेलन से अलग हो जाना चाहते हैं। उन्होंने अपनी यह योजना कल रात सप्रू के कमरे में भोजन के समय हम कुछ लोगों को बतायी। हममें से कुछ लोगों ने स्पष्ट शब्दों में असहमति प्रकट की। उन्हें पता है कि हम उनका साथ नहीं देंगे। मालवीय जी एक पतिव्रता हिन्दू पत्नी के समान उनसे संबंध विच्छेद नहीं कर सकते, भले ही दूसरों से मिन्नत करें कि वे उसके पति को सद्-परामर्श दें। गांधी ने हमें बताया कि उन्होंने अल्पसंख्यक समिति को एक सप्ताह के लिए स्थगित करने की मांग मुसलमानों की इच्छा से की है और उसकी असफलता का पूरा दोष अपने माथे ले लिया।…मैंने गांधी को अपनी सोच बता दी है। उनका कहना है कि मेरी 'लाइन' का उन्हें पहले से पता है। तुम अपने रास्ते जाओ, मैं अपने रास्ते जाऊंगा।'
7 अक्तूबर को गुंडप्पा के नाम पत्र में शास्त्री जी ने लिखा, 'सम्मेलन नीचे जा रहा है। पिछले साल की तरह इस बार भी साम्प्रदायिक प्रश्न रास्ता रोककर खड़ा है। सब गांधी के पास जाते हैं, पर वे पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। गांधी अपने को हताश और पराजित पा रहे हैं। यहां आकर उन्होंने जो भाषण दिये हैं उनसे उनकी अपनी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी है। आज रात को 11.00 बजे हम लोग समस्या का हल निकालने का अंतिम प्रयास करेंगे। कल सम्मेलन में गांधी अपनी विफलता स्वीकार कर लेंगे।' 1 दिसम्बर को सम्मेलन के समापन सत्र में गांधी जी के प्रति शास्त्री जी के भावुक उद्बोधन को हम लेखमाला में पहले ही उद्धृत कर चुके हैं। 9 दिसंबर को शास्त्री जी ने गांधी जी को एक पत्र लिखकर उस उद्बोधन की भाषा के लिए क्षमायाचना की। उन्होंने लिखा कि 'उस विचित्र और लम्बे तनाव के क्षणों में मैं अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाया। वे मेरे वास्तविक मनोभाव थे जो कई महीनों से मेरे भीतर घूम रहे थे।' n (18.4.2012)
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