पांडवों की कुलदेवी मां हथीरा देवी

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दिंनाक: 09 Apr 2012 12:00:26

 


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अभिनव

पांडवों द्वारा कुरु भूमि पर धर्मरक्षा और न्याय के लिए महाभारत का भीषण युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण की थी। उन्होंने प्रत्येक विषम परिस्थिति से पांडवों को सचेत करके उनका मार्ग प्रशस्त किया। वे जानते थे कि यह इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध होगा। धरती अनेक महारथी योद्धाओं की मृत्यु से रिक्त हो जाएगी। अत: उन्होंने सत्य पर अडिग पांडवों की रक्षा के लिए हर संभव यत्न किया। यही कारण था कि उन्होंने युद्ध से पूर्व पांडवों द्वारा भगवान स्थाणीश्वर की स्थापना करवा कर स्थाणु लिंग की पूजा करवाई।

शिव के साथ ही शक्ति की अराधना भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। यही कारण है कि पांडवों ने माता दुर्गा, जो साक्षात् शक्ति स्वरूपा हैं, की पूजा करने का निर्णय लिया। माता भगवती का बाला सुंदरी रूप पाडंवों की कुल देवी के रूप में जाना जाता था। परन्तु उनका मंदिर हस्तिनापुर,जो पांडवों के शत्रु भाइयों कौरवों की राजधानी थी,में था। युद्धभूमि से दूर व शत्रु क्षेत्र में होने के कारण पांडवों का वहां जाकर आराधना करना संभव नहीं था। इस कारण पांडु पुत्रों ने युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में ही माता शक्ति की पूजा करने का निर्णय लिया। उन्होंने कुरुक्षेत्र में माता की पिंडी स्थापित करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। इस स्थान का नाम उन्होंने हस्तिपुर रखा। तत्पश्चात् देवी बाला सुंदरी के प्रसाद के रूप में पांडवों को विजय प्राप्त हुई। इस बात का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।

समय बीतने के साथ ही वह स्थान जहां पांडवों ने माता की आराधना की थी, इतिहास के पन्नों में खो गया। पांडवों द्वारा स्थापित माता की पिंडी भी एक मिट्टी के टीले के नीचे दब गई। वर्ष 1640 की बात है- माता का एक भक्त, जो महाराष्ट्र के पुणे नगर में रहता था, उसे माता ने स्वप्न में आकर इस स्थान के दर्शन करवाए तथा इस स्थान को प्रकाश में लाने की प्रेरणा दी। कहा जाता है कि वह भक्त उसी समय पुणे से कुरुक्षेत्र के लिए चल पड़ा। उसने गांव हस्तिपुर, अब हथीरा नाम से जाना जाता है, आकर उस टीले को खोज लिया जहां मां भवानी की पिंडी दबी हुई थी। गांव वालों की सहायता से उस स्थान की खुदाई आरंभ हुई। अंतत: लोगों को सदियों उपरांत मां की पावन पिंडी के दर्शन प्राप्त हुए। गांव के नंबरदार की सहायता से उसी स्थान पर माता के मंदिर का निर्माण किया गया।

वर्तमान में यह हथीरा गांव कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध ब्रह्मसरोवर से किरमिच जाने वाली सड़क पर किरमिच गांव से दो किलोमीटर आगे बसा हुआ है। आज भी पांडवों द्वारा स्थापित माता की पिंडी यहां शोभायमान है। पुणे के उसी भक्त परिवार के वंशज आज भी माता के मंदिर का प्रबंध देखते हैं। आज यहां माता का भव्य मंदिर विराजमान है। माता को अब हथीरा देवी के नाम से भी जाना जाता है। वर्ष में आने वाले दोनों नवरात्रों में यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। इस दौरान गांव में मेले का आयोजन किया जाता है। मंदिर में भगवान गणेश, भैरोंनाथ सहित शिवालय में शिव परिवार भी स्थापित किया गया है। यहां बने विशाल हवन-कुंड में समय-समय पर यज्ञ का आयोजन किया जाता है। हालांकि यह मंदिर कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड के अधीन नहीं है परन्तु फिर भी गांव वालों ने इसका विकास भली-भांति किया है। कुरुक्षेत्र तथा आसपास के क्षेत्र के कई परिवारों में मां हथीरा को कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। इन परिवारों में जब भी कोई शुभ कार्य होता है तो सर्वप्रथम माता के द्वार पर आकर माथा टेका जाता है। जन सामान्य का विश्वास है कि जिस प्रकार माता बाला सुन्दरी ने पांडवों की रक्षा करके उन्हें विजय दिलाई वे अपने सभी भक्तों का कल्याण करती ½éþ*nù

बाजारीकरण और आधुनिकता का दंश

n राजी सिंह

बाजार-संस्कृति के कारण उपभोक्तावाद की जो बाढ़ आयी है, उसमें समस्त सामाजिक मूल्य बहे जा रहे हैं। मानवीय रिश्तों का फैसला भी बाजार के तौर-तरीकों से होने लगा है। वर्तमान दौर का भाग्यविधाता बाजार बन गया है। समाज पर जब बाजार हावी हो जाता है तो लक्ष्य की प्राप्ति महत्वपूर्ण हो जाती है और इस दिशा में अपनाए गए सभी हथकंडे उचित लगने लगते हैं। जो चाहिए उसे तुरन्त एवं किसी भी तरह प्राप्त करो, यही आज का मूलमंत्र है। किसी भी कीमत पर सफलता की सोच ने युवतियों एवं युवकों को दिग्भ्रमित कर दिया है। उपभोक्तावादी सोच उन्हें एक-दूसरे का उपयोग और उपभोग करने के मार्ग पर ले जा रही है। इसी कारण कभी वे बिन ब्याहे साथ-साथ रहने लगते हैं और कभी विवाहेत्तर संबंध बन जाते हैं। परन्तु ऐसे रिश्ते प्रेम पर आधारित नहीं होते। ये रिश्ते आवश्यकता पर टिके होते हैं जिनमें देह का उपभोग अधिक होता है।

ऐसे रिश्तों में स्थायित्व नहीं होता। समय बीतने के साथ शनै:-शनै: शारीरिक आकर्षक घटता जाता है। परिणामत: मैत्री भी घटने लगती है। साथ ही जाग्रत होता है अधिकार भाव। एक दूजे पर अधिकार भाव इन रिश्तों में स्वीकार्य नहीं है। मातृत्व के अधिकार की मांग ने ही उ.प्र. में मधुमिता शुक्ला को मौत के आगोश में पहुंचाया था। दिल्ली की शिवानी भी नियति की इसी क्रूरता का शिकार हुई थी। कुछ दिन पहले वायु सेना की महिला अधिकारी अंजली गुप्ता ने आत्महत्या कर ली थी। अंजली के भीतर की परम्परागत स्त्री ही थी, जो अमित की पत्नी बनने के लोभ में अपनी समझ खो बैठी।

इन सभी मामलों में कारण मात्र पुरुषों द्वारा स्त्री देह का शोषण ही नहीं है, कहीं न कहीं जिम्मेदारी स्त्री के भटकाव की भी है। स्वयं को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थायित्व देना नारी का अधिकार है। मगर इस अधिकार को गलत दिशा देकर इन सबकी प्राप्ति अनुचित है और आज नारी समाज का एक वर्ग ऐसा ही कर रहा है। आधुनिक कहलाने की अंधी दौड़ और प्राचीन रूढ़ियों को तोड़ने की उधेड़बुन में लगी नारी यह भूल गयी कि परम्परा एवं रूढ़ि में अन्तर होता है। रूढ़ियां तोड़ी जाती हैं और परम्पराएं बदली जाती हैं। परम्परा को नया संदर्भ देना उसे जीवन्त बनाना है। खुले विचारों का होने का अर्थ मर्यादा की हदें लांघना नहीं है। अपनी गौरवपूर्ण संस्कृति की रक्षा होनी ही चाहिए। अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता तथा सामाजिक मार्यादा में रहकर अस्तित्व को पहचानकर लक्ष्य प्राप्ति और जीवन को सही दिशा देना आधुनिकता है। बिना किसी बन्धन में बंधे 'स्वतंत्र संबंध' या सह-संबंधों में आस्था रखना आधुनिकता नहीं सरासर गलत सोच है, असंगत है। ऐसे अकारण विचारों में पड़कर संबंधों की मधुरता एवं स्थायित्व तो खत्म होता ही है, इन संबंधों का परिणाम भयानक भी हो सकता है।

उपभोक्तावाद की चकाचौंध, पैसे का वैभव, यही सब आज के दौर की मान्यताएं हैं। इन सबके बीच स्त्री की मनुष्यता कहीं खो गई है और वह एक वस्तु की तरह सिर्फ देह तक सीमित होकर रह गयी है। स्त्री स्वतंत्रता और नई जीवनशैली के नाम पर सिर्फ स्त्री की देह का इस्तेमाल किया जा रहा है। बाजार आधारित मूल्यों के इस दौर में महत्वाकांक्षी, लेकिन गरीब और मध्यमवर्गीय लड़कियां शीघ्र ही मधुमिता या नैना साहनी बन जाती हैं।

क्या जल्द से जल्द सब कुछ पा लेने की चाह की कीमत यूं ही जिन्दगी देकर चुकाती रहेंगी या संभल जायेंगी? इस नियति का क्रूर सिलसिला सतत् जारी न रह पाये, इसके लिए नारी को जीवनमूल्यों और मर्यादा की लक्ष्मण रेखा में स्वयं को बांधना होगा। n

 

जीवनशाला

n   वरिष्ठ पद पर आसीन लोगों को सिर्फ अपने कनिष्ठ (जूनियर) का अभिवादन शालीनतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए, बल्कि वापस पलट कर उनका भी अभिवादन करना चाहिए।

n   जब भी आप अपनी सीट पर बैठे हों और कोई आपसे मिलने आए तो सबसे पहले उसे बैठने का स्थान दीजिए।

n   हर व्यक्ति के साथ सम्मानपूर्वक बातचीत करें, भले ही वह किसी भी पद पर काम करता हो।

n   कभी भी अपने कनिष्ठ की उपस्थिति में कोई अशोभनीय या अनुचित बात कहें। साथ ही, हल्की बातों से बचें।

n   जब आप किसी के साथ चल रहे हों तो अपनी चाल को इस तरह नियंत्रित करें, ताकि आपके कदम साथ वाले के पद उम्र के हिसाब की चाल से तालमेल बैठा सकें।

 

सहजन की फलियों की भाजी

विधि: सहजन की फलियों में 1 चम्मच नमक और 1/4 चम्मच हल्दी मिलाकर उबाल लें, फिर पानी निकालकर रखें। ठंडा होने पर उसे एक इंच के टुकड़ों में काट लें। प्याज को तलकर उसमें टमाटर, मटर और बाकी के सूखे मसाले मिला दें और फिर दही मिला कर उसे धीमी आंच पर ढककर कर पकाएं। जब मटर गल जाएं तो पानी सुखा कर थोड़ा हरा धनिया मिलाकर भूनें। इसे रोटी या पराठे के साथ परोसें। यह स्वादिष्ट होने के साथ-साथ भूख को बढ़ाने वाली तथा मधुमेह के रोगियों के लिए विशेष रूप से लाभकारी है। सहजन की फलियां फरवरी से लेकर मई तक मिलती हैं। इनमें अनेक रोगों से लड़ने की क्षमता होती है। n प्रोमिला पोपली

तेल-2 बड़े चम्मच, सहजन की फली-25 ग्राम, दही-100 ग्राम, मटर-आधा कप, प्याज-1, टमाटर- 2, नमक- 1.1/2 चम्मच, मिर्च- 1/2 चम्मच, हल्दी-1/2 चम्मच, पिसा धनिया-1 चम्मच, गरम मसाला-1/2 चम्मच

 

'आंटी' ने दुनिया बांटी

जाने-अनजाने में पश्चिमीकरण हमारे घरों में ही पल रहा है और हमें पृथकता की ओर ले जा रहा है। आजकल हमारे घरों, विशेषकर शहरी घरों में कोई महिला आए तो बच्चे कहते हैं 'आंटी' आई हैं। और यदि मौसी, बुआ या चाची आएं तो भी बच्चे कहते हैं 'आंटी' आई हैं। कोई परिचित पुरुष आएं तो 'अंकल' आए हैं और यदि चाचा, मामा या फूफा आएं तो भी बच्चे कहते हैं 'अंकल' आए हैं। जिस प्रकार का यह साधारण सा संबोधन है वैसा ही इसका प्रभाव है। 'आंटी' या 'अंकल' इन शब्दों में अपनत्व नहीं है। भारत एक भाव-प्रधान देश है और केवल यहीं संबंधों को इतना अधिक महत्व दिया जाता है। हमारे भारतीय परिवार, हमारी भारतीय संस्कृति जानी ही जाती है अपनी रंग-बिरंगी सभ्यता के लिए। पर आज हमारे परिवार रूपी गुलदस्ते रंगहीन होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार कम होते जा रहे हैं।

इन सिकुड़ते हुए परिवारों का प्रभाव धीरे-धीरे पूरे समाज पर भी दिखाई दे रहा है। हमारे समाज में भावनात्मकता व संवेदना की कमी होती जा रही है। इसलिए हमें अपने रिश्तों के लिए जो संबोधन हमारी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा से मिलते हैं उन्हें अपने बच्चों से प्रयोग करवाना चाहिए। इससे रिश्तों में माधुर्य बढ़ता है। अपनापन व आत्मीयता का भाव उत्पन्न होता है। यदि कोई बच्चा आपको मौसी या बुआ कहकर पुकारता है तो अपनत्व की जो भावना आपके मन में उठती है वह 'आंटी' सुनकर नहीं। हमारे यहां हर संबंध के लिए हर भाषा में आदरसूचक संबोधन हैं, जैसे दादी-दादा, बुआ-फूफा, मौसी-मौसा इत्यादि। हमें अपने बच्चों को रिश्तों का महत्व बताना चाहिए। आंटी/अंकल भावनाशून्य शब्द हैं, यह केवल हमारे मुंह से उच्चारित होते हैं, भावनाओं को नहीं छूते। जो भावना हम एक बुजुर्ग महिला को मां या मौसी कहकर जागृत कर सकते हैं, 'आंटी' कह कर नहीं। हमें हर छोटा-बड़ा प्रयास करना होगा अपनी परंपराओं व संस्कृति को बचाने का। और इन सबकी नींव डाल सकती है मां, जो कि बच्चों की सर्वश्रेष्ठ और प्रथम गुरु होती है। मां के दिए हुए संस्कार बच्चा अंत तक गांठ बांधे निभाता है। n ¨É¨ÉiÉÉ कोचर

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