पहाड़ को हरा-भरा करने में जुटे लोग
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द्र दिनेश
उत्तराखण्ड की हिमाच्छादित पर्वत चोटियों पर बढ़ते मानव के कदम व उनके द्वारा फैलाये जा रहे प्रदूषण से न सिर्फ हिमालय का अस्तित्व संकट में है, बल्कि मोक्षदायिनी गंगा भी इससे अछूती नही हैं। उत्तराखण्ड की तमाम गगन चुम्बी पर्वत चोटियां जहां हमेशा बर्फ ढकी रहती थीं वहां अब समय पर हिमपात न होने व “ग्लोबल वार्मिंग” के बढ़ते खतरे से ये बर्फीली चोटियां भी कम होती जा रही हैं। वहीं गंगोत्री की हिम चोटियों के बर्फ विहीन हो जाने से भविष्य में गंगा के निर्मल प्रवाह पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। तेजी के साथ पिघलते ग्लेशियर का प्रमुख कारण भूमण्डल में तापमान की वृद्धि का होना बताया जाता है।
हरी-भरी हो उठी वृक्ष विहीन धरा
इस सब का सीधा संबंध है पर्यावरण से, यानी हरे-भरे वृक्षों से, वृक्ष धरती का श्रृंगार हैं, मानव जीवन के आधार हैं, यह बात हर इंसान जानता है कि वृक्ष हमें सब कुछ देते हैं पर हम वृक्ष को क्या देते हैं ये एक बड़ा सवाल है। उत्तराखण्ड के हिमालयन क्षेत्र में वृक्ष तेजी से कम हो रहे हैं। इस गहराती समस्या के बीच उत्तराखण्ड के पहाड़ों को वृक्षविहीन देख कुछ उत्साही पर्यावरण प्रेमियों ने हरे पेड़ों के संरक्षण का बीड़ा उठाया। अपनी पूरी जिन्दगी हिमालय के वृक्षों के बचाव में लगाने वाले ये देव भूमि उत्तराखण्ड के सच्चे सपूत हैं। जो प्रचार से दूर दिन रात वृक्षों के संर्वधन व उत्तराखण्ड के जंगलों को हरा-भरा बनाए रखने के मकसद में लगे हैं इनमें एक नाम है चण्डी प्रसाद भट्ट जिन्होंने गोपेश्वर में किसान गंगा प्रसाद भट्ट के यहां जन्म लिया और आज 78 साल की उम्र में हिमालय को संरक्षित करने के अभियान में जुटे हुए हैं। 1973 में हिमालय की हरियाली को बचाने के अभियान में जुटे चण्डी प्रसाद ने पर्यावरणविद् चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दर लाल बहुगुणा से आशीर्वाद लेकर जंगल लगाने का अभियान शुरू किया। आज करीब 2 हजार हेक्टेयर जंगल चन्डी प्रसाद की देन हैं। पर्यावरण बचाने और समाज सेवा के लिये पद्मश्री सम्मान और मेगासेसे सम्मान से सम्मानित चण्डी प्रसाद भट्ट को लोग उत्तराखण्ड में जंगली के रूप में जानते हैं। वनों का संरक्षण करने में एक और नाम है सच्चिदानन्द भारती का, सच्चिदानन्द भारती ने पौड़ी जनपद के गांव उफरेखाल में शिक्षक के रूप में अपनी तैनाती के दौरान वन संर्वधन के लिये महत्पूर्ण कार्य किये। जगह-जगह जाकर लोगों को जल-जमीन-जंगल और पर्यावरण संरक्षण की जरूरत समझाने वाले सच्चिदानन्द भारती ने 1500 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में घने वन विकसित कर 20 हजार से अधिक चाल खालों का निर्माण कर एक सूखी नदी को पुनर्जीवित करने का अद्भुत कार्य किया है। सच्चिदानन्द भारती रविवार की छुटटी के दिन ग्राम देवता के मन्दिर में गांव वालों को इकट्ठा कर वीरान और उजड़े पहाड़ों पर जाकर 2न्4 फिट के गड्ढे खोदते थे, बरसात आने से पहले वो हजारों की तादात में गड्ढे तैयार कर लिया करते थे और बारिश क दौरान गड्ढों में पानी जमा होते ही गड्ढ़े के किनारे एक पेड़ लगा दिया करते थे। सच्चिदानन्द ने पानी संक्षरण वृक्ष, बांझ, तीस, काफल, टुन जैसे वृक्षों का खूब रोपण किया है। आज उनके प्रयास से करीब 15 किलोमीटर बंजर पहाड़ हरे जंगल में तब्दील हो गये हैं। प्रचार से कोसों दूर सच्चिदानन्द भारती आज भी अपने जंगल का दायरा बिना किसी सरकारी मदद के बढ़ाने में लगे हुए हैं।
यादों में बसा नैसर्गिक सौंदर्य
उत्तराखण्ड में हिमालयी क्षेत्र में एक और विभूति हैं दामोदर राठौर, 85 साल की उम्र में भी दामोदर राठोर सीमावर्ती तहसील डीडीहाट पिथौरागढ़ में वृक्ष लगाने के अभियान की पताका लहरा रहे हैं। 1951 में वे छात्र जीवन के दौरान यहां आये और लखनऊ जाते वक्त यहां के गांव भानरा की नैसर्गिक सुन्दरता को अपने साथ यादों के रूप में ले गये। 1960 में जब वह दोबारा यहां आये तब उन्हें यहीं कटे हुए जंगल और गर्म जलवायु देख गहरा सदमा लगा। उसके बाद दामोदर राठौर यहीं के होकर रह गये और अपनी जिन्दगी का मकसद बना लिया हरियाली, तब से अब तक दामोदर राठौर ने करीब 15 करोड़ पौधों का रोपण कराया है। आई.टी.बी.पी. केन्द्रीय विद्यालय स्कूल के बच्चों को साथ में लेकर बनायी गयी “हिमालयन ग्रीन ब्रिग्रेड” के साथ आज कई सामाजिक संस्थाएं और जनप्रतिनिधि अपना योगदान देते हैं। दामोदर राठौर को “इन्द्रा प्रिय दर्शन वृक्ष मित्र पुरस्कार” से भी नवाजा जा चुका है। उम्र के इस पड़ाव आज भी वे सुबह-सुबह उठकर नये पौधों को लगाने का काम करते हैं। पिछले दिनों जब वे अस्वस्थ थे तो देहरादून में अस्पताल में भर्ती के दौरान भी वे रोज सुबह चिकित्सकों को साथ लेकर अस्पताल परिसर में पेड़ लगवाते रहे । ये उनका जुनून ही है जो उत्तराखण्ड के हिमालय क्षेत्र को हरा-भरा रखने में अपनी अद्वितीय भूमिका निभा रहा है।
चिपको आंदोलन के प्रणेता
उत्तराखण्ड के जंगलों की रक्षा के लिये शुरू किये गये अभियान में “चिपको आन्दोलन” के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा को हिमालय संरक्षण का सबसे बड़ा नेता माना जाता है। टिहरी के पास मरोदा गांव में जन्मे सुन्दरलाल बहुगुणा का उत्तराखण्ड के जंगलों को बचाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 60 के दशक में शुरू किये चिपको आन्दोलन की बदौलत ही हिमालय के जंगलों और उत्तर भारत की नदियों का संरक्षण हो पाया। सुन्दरलाल बहुगुणा के चिपको आन्दोलन से आज की युवा पीड़ी और पर्यावरण से जुड़े लोग प्रेरणा ले रहे हैं। पद्मविभूषण से सम्मानित श्री बहुगुणा ने हिमालय और नदियों की रक्षा के लिये जीवनभर सघर्ष किया।
उत्तराखण्ड में हिमालय के जंगलों को संरक्षित करने और नये पड़ों को लगाने में भारतीय सेना भी तीस सालों से एक बड़े लक्ष्य की ओर काम कर रही है। पूर्व थल सेना अध्यक्ष बिपिन चन्द्र जोशी ने उत्तराखण्ड के पर्यावरण संरक्षण के लिये “इको टास्क फोर्स” का गठन करवाया। भारतीय सेना से सेवानिवृत्त फौजियों को इस फोर्स में भर्ती किया गया। इस फोर्स का मकसद है कुमाऊं और गढ़वाल में वनस्पति विहीन पहाड़ियों पर हरे वृक्ष लगाना और हरियाली का संरक्षण कराना। “इको टास्क फोर्स” चमोली जिले के जोशीमठ इलाके और पिथौरागढ़ के चडडाक की पहाड़ियों पर लाखों हरे पेड़ों का जंगल खड़ा कर चुकी है। इनके कार्य को देखकर उत्तराखण्ड में दो और बटालियन ने “इको टास्क फोर्स” गठित किये जाने की घोषणा की है। जो सेना के जवान सीमा पर अपने देश की रक्षा में जुटे रहते हैं अब वो सेवानिवृत्त हो जाने के बाद हिमालय के पर्यावरण की रक्षा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
आज उत्तराखण्ड में जरूरत इस बात की है कि नई पीड़ी हिमालय के वनों के संरक्षण में सामने आये। बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठन यहां पर्यावरण संरक्षण के नाम पर काम तो कर रहे हैं। लेकिन उनका काम सिर्फ कागजों में दिखलाई देता है, न कि धरातल पर। द
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