आन्ध्र प्रदेश से शुरू होगी"जीरो बजट खेती" की क्रांति
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आन्ध्र प्रदेश से शुरू होगी
“जीरो बजट खेती” की क्रांति
द्र नागराज राव
भारत के ऋषि-मुनियों ने आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व का अनुभव करते हुए कहा था – “प्रकृति हमारी माता है, जो अपना सर्वस्व अपने बच्चों को अर्पण कर देती है। प्रकृति की गोद में खेलकर ही हम बड़े होते हैं। वह हमारी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। धरती, नदी, पहाड़, मैदान, वन, पशु-पक्षी, आकाश, जल, वायु आदि सब हमें जीवनयापन में सहायता प्रदान करते हैं। ये सब हमारे पर्यावरण के अंग हैं। अपने जीवन में सर्वस्व पर्यावरण की रक्षा करना, उसको बनाए रखना हम मानवों का कर्तव्य होना चाहिए।” सच्चाई भी यही है कि स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है और पर्यावरण प्रदूषण जीवन के अस्तित्व के सम्मुख प्रश्नचिन्ह लगा देता है। पर्यावरण जीवन के प्रत्येक पक्ष से जुड़ा हुआ है। इसलिए यह अति आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे। पर्यावरण का स्थान जीवन की प्राथमिकताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यों में होना चाहिए।
कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत के सामथ्र्य और समृद्धि का आधार स्तम्भ यहां की कृषि व्यवस्था थी। कृषि, गोपालन और वाणिज्य के त्रिकोण के कारण भारत में कभी दूध-दही की नदियां बहा करती थीं। विशेष भौगोलिक स्थिति और अपार जैव विविधता वाले इस देश में सही वितरण और संयमित उपभोग, विकास का अभौतिक आयाम और मूल्यबोध, सत्ता और संस्कार का उचित समन्वय, समृद्धि और संस्कृति का मेल एवं ममता और मुदिता की दृष्टि हुआ करती थी। इसी सबसे भारत की चमक पूरे विश्व में फैलती थी। यहां जल, जंगल, जमीन और जानवर का मेल अन्योन्याश्रित था। इसी समन्वय के आधार पर समाज जीवन की रचना होती थी।
यह कैसा विकास?
दुर्भाग्य है कि आज विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। इससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। 1947 में अंग्रेज तो चले गए पर उनकी बनाई गई व्यवस्था के खतरों को हमारे नेता या तो समझ नहीं पाए या फिर जान-बूझकर अनजान बने रहे। जमीन, जंगल, जल और जानवर की सुध नहीं ली गई। पारम्परिक खेती के ज्ञान की उपेक्षा की गई। देशी व्यवस्थाओं को सुधारने-संवारने की बजाय उसके बारे में हीन भावना को बढ़ाया गया। आजादी के बाद किसानों और गांवों के देश में पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य लक्ष्य “भारी औद्योगिकीकरण” रखा गया। इसके लिए पं. नेहरू की महानता का गुणगान किया गया। कृषि में लागत बढ़ने लगी, दाम कम मिलने लगे। कृषि एक अप्रतिष्ठित आजीविका बन गई। पढ़े-लिखे लोग खेती से हटने लगे। हरित क्रान्ति के नाम पर सिर्फ गेहूं क्रान्ति हुई। सब्सिडी और सरकारी खरीद पर निर्भरता बढ़ी। रासायनिक खाद और कीटनाशकों का धुआंधार प्रयोग होने लगा। पारम्परिक खेती बिगड़ने लगी। इस बिगड़ी व्यवस्था में आंध्र प्रदेश के हालात भी अलग नहीं हैं, दिन ब दिन और अधिक बदतर होते जा रहे हैं। किसान और सरकार के बीच टकराव बढ़ रहा है। एक आम किसान को अब खेती करना हानिकारक काम लगने लगा है। केवल खेती से किसान को अपनी आजीविका चलाने में मुश्किल आने लगी है। स्वाभाविक रूप से किसान को जंगल और जानवरों से अपनी पूरक आमदनी की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन इसकी उपेक्षा करके उसे दूसरे व्यवसायों की ओर मोड़ा गया। गांव का किसान धीरे-धीरे शहर का मजदूर बन गया। फलत: शहरों पर दबाव बढ़ा, प्रदूषण बढ़ा, बेरोजगारी बढ़ी। जो किसान अभी भी गांवों में रह गये, उनका झुकाव नकदी फसलों की ओर हुआ। इससे लागत मूल्य और बढ़ा तथा खेती और मंहगी होती गई। खेती न तो पारम्परिक रही और न ही आधुनिक हो पाई।
अनुकरणीय पहल
भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां पेड़-पौधों की पूजा होती है। नदियों की भी पूजा होती है। पत्थर तक पूजे जाते हैं। फिर भी हम अपने वनों, नदियों, जानवरों की सुरक्षा क्यों नहीं कर पा रहे हैं? दु:ख इस बात का है कि हमारे देश में हर व्यक्ति पर्यावरण को प्रदूषित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। इस विषय में हैदराबाद स्थित स्वयंसेवी संस्था “सोसायटी फार अवेयरनैस एंड विजन ऑन इन्वायरमेंट” (सेव) की चर्चा करना उचित होगा! इस संस्था के संस्थापक 42 वर्षीय विजयराम ने ललित कलाओं में डिप्लोमा लेने के बाद पर्यावरण सुरक्षा का अध्ययन किया और पर्यावरण सम्बन्धी कार्य में जुट गये। विजयराम ने तीन कार्यक्रम निर्धारित किए। उन्होंने अपनी परियोजना को “निर्मलम्, सुजलम् और हरितम्” का नाम दिया।
निर्मलम् परियोजना के अनुसार हर नागरिक सिर्फ कपड़े या जूट का थैला (बैग) इस्तेमाल करेगा। पॉलिथिन बैग के उपयोग पर सख्त पाबंदी।
सुजलम् परियोजना जल और वर्षा जल संचयन पर जोर देती है! 80-84 प्रतिशत पानी कृषि, 10 प्रतिशत उद्योग, 4 प्रतिशत घरेलू और शेष अन्य कार्यों में उपयोग लिया जाता है। इसमें सामाजिक स्तर पर बदलाव लाए बिना सुजलम् परियोजना को लागू करना आसान नहीं होगा। पानी की बर्बादी के लिए जल विभाग, स्थानीय निकाय और जनता- सभी दोषी हैं।
हरितम् परियोजना में पेड़ ,पौधों की रक्षा और वृक्ष की पूजा शामिल है।
उल्लेखनीय है कि हैदराबाद की हुसैन सागर झील में प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी के दिन गणेशजी की हजारों मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है! प्लास्टर आफ पेरिस तथा चूने से बनाई गई मूर्तियों का विसर्जन, सीमेंट और विषाक्त पदार्थों और गंदे पानी के नाले हुसैन सागर में जाकर मिलते हैं। इसके अलावा, मूर्तियों को रंगने के लिए रासायनिक रंगों का भी भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। पारा, क्रोमियम, जिंक आक्साइड और लेड, जो कम तीव्रता में भी जलीय जीवन को समाप्त करता है, यहां तक कि कैंसर का कारक बनता है। यह सब पत्थर, प्लास्टर आफ पेरिस, रंगों आदि के माध्यम से पानी में मिल जाते हैं। मूर्तियों के निर्माण में प्लास्टर आफ पेरिस या पत्थर, रासायनिक रंगों के प्रयोग से एक ही दिन में जल प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ता है। इसे रोकने के लिए “सेव” नामक इस स्वयंसेवी संस्था ने मिट्टी से बनी गणेश जी की मूर्तियों को कम दाम पर बांटने का अभियान शुरू किया। हर साल इस संस्था की देख-रेख में कच्ची मिट्टी से बनी गणेश जी की मूर्तियां बांटी जाती हैं। सन् 2011 में 8 इंच ऊ ंचाई की 45,000 मूर्तियां और 5 फुट ऊ ंचाई की 2000 मूर्तियां बांटी गईं।
नई सोच, नई पहल
वृक्ष काटे न जाएं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर स्थानांतरित किए जाएं यह भी इस संस्था का प्रयास है। इसलिए क्रेनों के जरिये वृक्ष की “ट्रांसलोकेशन” में इस संस्था के मदद ली जाती है। स्वयं विजयराम अपने साथियों के साथ इसमें भाग लेते हैं! विजयराम का कहना है कि पर्यावरण संरक्षण का बुनियादी लक्ष्य प्राकृतिक संसाधनों के मानवीय उपयोग के प्रबन्धन से है, ताकि वे वर्तमान पीढ़ी के लिए दीर्घकालीन लाभ प्रदान कर सकें एवं भावी पीढ़ियों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सक्षम रहें।
विजयराम का कहना है कि एक गाय से 30 एकड़ कृषि भूमि में आवश्यक उर्वरकों और कीटनाशकों की आवश्यकता पूरी की जा सकती है! इसलिए जमीन, जल, जैव विविधता और गो-संवर्धन को लेकर किसानों के हित में पारदर्शी नीति बननी चाहिए। दिन-ब-दिन कटते पेड़, विज्ञान के नित नए आविष्कार, पानी की बूंद-बूंद को तरसते मानव, प्रकृति की करुण पुकार, वातावरण में फैलती अराजकता के लिए मनुष्य स्वयं दोषी है। विजय राम ने सेवा भारती और ग्राम भारती के सहयोग से अनेक कार्यक्रम आयोजित किए हैं और उन्हें अनेक सम्मान व पुरस्कार भी दिए गए हैं।
आंध्र प्रदेश में आज शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा भी कम पड़ने लगी है, जंगल कटते जा रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी लुप्त होते जा रहे हैं। औद्योगिकीकरण ने खेत-खलिहान और वन-प्रान्तर निगल लिये हैं। वन्य जीवों का आशियाना उजड़ गया है। कल-कारखाने धुआं उगल रहे हैं और प्राणवायु को दूषित कर रहे हैं। यह सब खतरे की घंटी है।
“सेव” नामक यह संस्था कृषि विज्ञान से सम्बंधित प्रशिक्षण वर्ग भी आयोजित करती है! शून्य लागत प्राकृतिक खेती (जीरो बजट, नेचुरल फार्मिंग) के बारे में विजयराम ने बताया कि इस तरह की खेती में कीटनाशक, रासायनिक खाद और उन्नत बीज तथा किसी भी आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल नहीं होता है। यह खेती पूरी तरह प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। इस तकनीक में किसान भरपूर फसल उगाकर लाभ कमा रहे हैं, इसीलिए इसे “जीरो बजट खेती” का नाम दिया गया है। उन्होंने बताया कि रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर नीम, गोबर और गोमूत्र से बना “नीमास्त्र” इस्तेमाल किया जाता है। इससे फसल को कीड़ा नहीं लगता है। संकर प्रजाति के बीजों के स्थान पर देशी बीज का प्रयोग किया जाता है। उन्होंने बताया कि जबसे इस खेती के बारे में प्रचार-प्रसार हुआ है तबसे दूसरे प्रदेशों के किसान भी इसमें शामिल होने की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं और वह भी इस खेती के बारे में प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहते हैं। “जीरो बजट खेती” अभी तो एक शुरुआत है, धीरे-धीरे यह पूरे देश में एक क्रांति के रूप में फैल जाएगी।
समस्या और उसके उपाय
विजयराम का कहना है कि हर समस्या का कोई न कोई समाधान होता है। लगातार प्रदूषित होते जा रहे वातावरण को बचाने के लिए हम सबको ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाने चाहिए। वातावरण शुद्ध रहने से हम सब निरोगी रहेंगे, साथ ही विकास के मार्ग पर तेजी से अग्रसर हो सकते हैं।
वनों की रक्षा, जंगली जीव-जंतुओं की रक्षा, जल, तालाब और जमीन की रक्षा, ग्रामीण विकास योजनाओं का ईमानदारी-पूर्वक संचालन हो तो ग्रामों का स्वरूप निश्चय ही बदलेगा और वहां के पर्यावरण से प्रभावित होकर शहर जाकर नौकरी-मजदूरी करने वाले भी वापस आकर यहां रहने को आतुर होंगे।थ्
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